कुछ दस पंद्रह साल पहले तक भारत की युवा बेटियाँ आमतौर पर घरों में व बाहर आरामदायक सलवार सूट दुपट्टा पहने दिखाई देती थीं। अब हम कितने घरों में बेटियों को सामान्य दैनिक जीवन में सलज्जतापूर्वक सलवार सूट पहने हुए शालीनता से दुपट्टा लिए हुए देखते हैं?
आजकल संभ्रांत घरों की (1/12)
युवतियां भी ना सिर्फ कॉलेज, वर्कप्लेस बल्कि घरों में भी टाइट जींस, कैप्री, शॉर्ट्स आदि पहने रहतीं हैं। ऐसी पोशाकों में वक्षस्थल ढंकने का तो सवाल ही नहीं तो दुपट्टे के हटने से लुप्त होती लज्जा धीरे धीरे टॉप, टीशर्ट आदि पहनते पहनते समाप्त ही हो जाती है और प्रत्येक ऐरागैरा (2/12)
सभ्य परिवारों की इन लक्ष्मियों के यौवन का नेत्रसुख लेता हुआ आनंदित होता रहता है। कौन तो पूरा ढंका हुआ सलवार सूट पहने और कौन दुपट्टा सँभालता फिरे। इस विषय पर बात करना ही एक टैबू बना दिया गया है। कपड़े नहीं तुम्हारी सोच खराब है। ऐसी कन्याओं द्वारा सलवार सूट आज भी अगर कभी (3/12)
पहना जाता है तो जब परंपरागत दिखने का ढोंग करना हो, मंदिर जाना हो, इंस्टा फेसबुक पर दीवाली पूजा की फोटो डालनी हो सिर्फ तब।
कन्याओं,स्त्रियों में शालीनतापूर्ण पोशाक की बात चलते ही दो तरह के लोग हल्ला मचाकर बात का रुख मोड़ने का पूर्ण प्रयास करते हैं। एक तो वे जिन्हें महिलाओं (4/12)
को देह प्रदर्शित करते वस्त्रों में देखकर अपनी यौनकुंठा शांत करनी होती है और दूसरी स्वयं वे निर्लज्ज महिलाएं जो लार टपकाते पुरुषों से अपने रूप यौवन की प्रशंसा सुनकर फूली नहीं समातीं।
खैर, यह रोग तो अब लाइलाज हो चुका। बरसों पहले वक्षस्थल से दुपट्टा हटा चुकी पीढ़ी को चुनरी (5/12)
की लाज समझाने की फुरसत मुझे नहीं। वैसे भी यह परिदृश्य यहाँ उदाहरण मात्र के लिए, यह बताने के लिए था कि बॉलीवुड किस प्रकार हमारे अचेतन मन पर नियंत्रण करके हमारी पहनने ओढ़ने, खाने पीने की आदतों, हमारे सामाजिक व्यवहार पर प्रभाव डालता है। हर समय दुपट्टा लेना संभव नहीं है मैं (6/12)
समझ सकता हूँ। पर निरंतर पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण करते करते हमने जहाँ दुपट्टा लेना चाहिए, वहाँ भी लेना बंद कर दिया है क्योंकि सामान्यतः हम टॉप, टीशर्ट आदि पहनते हैं तो अब बिना दुपट्टे के वक्षस्थल हमें असहज नहीं लगता। इस प्वाइंट पर इतनी अधिक कंडीशनिंग हो गई है कि अब बदलाव (7/12)
या सुधार संभव भी नहीं।
मेरा प्रश्न तो यह है कि आखिर भारतीय युवतियों के वस्त्रों में यह बदलाव आया कैसे कि आज इस मुद्दे पर बात करना तक दूभर हो गया है? उत्तर है निरंतर बॉलीवुड द्वारा किए जा रहे मैनीपुलेशन से, ब्रेनवॉश से। फिल्मों में हीरोइनों के चुभाचुभ, अधनंगे कपड़ो से (8/12)
प्रभावित होकर उनका अंधानुकरण करते करते हमारी पूरी युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति, अपनी जलवायु सबकुछ भूलकर अपने आदर्श नायक नायिका जैसे दिखने की आस में आधी तीतर आधी बटेर बन गई। बहुत अच्छा किया। ऐसे ही रहो अब। भारत जैसे गर्म देश में भी ठंडे देशों जैसी टाइट जींस पहनकर घूमते रहो।
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अच्छा वह सब छोड़िए। गर्भवती अभिनेत्रियों द्वारा पूर्ण विकसित गर्भ के साथ पेट पर कपड़े उघाड़कर फोटोसेशन कराने का यह जो नया फैशन चला है, बॉलीवुड के इस ट्रैंड के विषय में आप सबका क्या विचार है? (देखिए चित्र)
जिस प्रकार बॉलीवुड के अंधानुकरण के कारण हमारे परिवारों में आज (10/12)
वैलेंटाइन डे, हैलोवीन और प्रिवैडिंग शूट आदि उत्सव धूमधाम से मनाए जाने लगे हैं, कल को हमारे परिवार की गर्भवती महिलाओं को भी तो सोसायटी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए ऐसे फोटोशूट करवाने होंगे तब के लिए कुछ स्टाइल्स और पोज नीचे दिए गए चित्रों में से चुन सकते हैं। (11/12)
इन चित्रों को देखिए और सोचिए क्या आप अपनी पुत्री या पुत्रवधू को ऐसा फोटोसेशन करवाते देखकर प्रसन्न होंगे? यह अनावश्यक नग्नता मातृत्व का सम्मान है या अपमान?
आखिर इस निकृष्ट बॉलीवुड का पूर्ण बहिष्कार करने के लिए हमें और कितने कारण चाहिए।
यह महाराजा रणजीत सिंह जी की सेना का ध्वज है। रक्त वर्ण के ध्वज के मध्य में अष्टभुजा जगदम्बा दुर्गा, बायें हनुमान जी और दायें कालभैरव विराज रहे हैं। पठानों की छाती फ़ोड़ कर अक्टूबर 1836 को ख़ैबर के जमरूद के किले पर यही पवित्र ध्वज (1/7)
फहराया गया था।
यह ध्वज कुछ समय पूर्व शायद सिदबी द्वारा लंदन में नीलाम किया गया था। अब किसी के व्यक्तिगत कलेक्शन का हिस्सा है।
ये स्थापित सत्य है, महराजा रणजीत सिह हिन्दू देवी देवताओं मे अगाध श्रद्धा रखते थे, अपनी वसीयत मे उन्होंने कोहिनूर हीरा जगन्नाथ मन्दिर मे चढाने (2/7)
की इच्छा जतायी थी
स्वर्ण मंदिर नाम है... स्वर्ण गुरुद्वारा नहीं... इसी में बहुत कुछ निहित है।
1984 से पहले स्वर्ण मंदिर में भी दुर्गा जी की प्रतिमा रखी थी।
परिक्रमा में अनेकों देवी-देवताओं की प्रतिमाएं थीं। हरि मंदिर तब महंत सम्हालते थे मगर यह 70-80 वर्ष से अधिक पुरानी (3/7)
मनमौजी दुबे को जानते है? बनारस के ब्राह्मण दंपत्ति जिनकी पुत्री मनु उर्फ मणिकर्णिका, जानते हैं आप? जी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई यही थीं। इन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं.!
लखनऊ की ऊदा देवी को अधिकतर लोग नहीं जानते होंगे। ब्रिटिश फौजी सिकंदर बाग पर कब्जा करने की कोशिश कर (1/11)
रहे थे, लेकिन ऊदा देवी ने अकेले ही इन्हें कई घंटे रोककर रखा। ब्रिटिश जनरल कूपर, जनरल लैम्सजन सहित कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। तीन घंटे बाद, उनकी शहादत के उपरांत ही अंग्रेज बाग में प्रवेश कर सके.!
मुंदर, झलकारी देवी लक्ष्मीबाई की सहेलियां थीं, जिन्होंने उन्हीं की (2/11)
तरह युद्ध में प्राणोत्सर्ग किया। महारानी तपस्विनी देवी उर्फ सुनंदा, लक्ष्मीबाई की भतीजी थी। बाल विधवा सुनंदा छापेमार दस्ते के नेतृत्व, सामरिक निरीक्षण जैसी भुमिकाएँ निभाती थीं। वह कभी अंग्रेजों की गिरफ्त में नहीं आईं.!
मांडला की रानी अवंतिकाबाई ने अठारह सौ अट्ठावन को (3/11)
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की अगुवाई वाली राज्य सरकार द्वारा पादरियों को दिए जा रहे वेतन पर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने आंध्र प्रदेश सरकार से पूछा है की आप सरकारी खजाने से पादरियों को दिए जा रहे वेतन को कैसे सही ठहरा सकते हैं।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ (1/10)
की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य सरकार की ओर से पादरियों को दिए जा रहे वेतन को को लेकर एक जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिका में सरकार के इस फैसले को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने इस संबंध में सरकार से जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। हाईकोर्ट ने कहा की धार्मिक गतिविधियों के लिए फंड (2/10)
देना अलग बात है, लेकिन किसी के धार्मिक आस्था के लिए वेतन देना अलग बात है। वहीं सोशल मीडिया पर भी लोगों ने सवाल उठाया कि आखिर कैसे पादरियों को जनता के रुपए से वेतन दिया जा सकता है।
विजयवाडा के विजय कुमार ने पादरियों को वेतन भुगतान करने के संबंध में सरकारी आदेश (जीओ) संख्या (3/10)
सुन्दर स्त्री बाद में शूर्पणखा निकली।
सोने का हिरन बाद में मारीच निकला।
भिक्षा माँगने वाला साधू बाद में रावण निकला।
लंका में तो निशाचार लगातार रूप ही बदलते दिखते थे।
हर जगह भ्रम, हर जगह अविश्वास, हर जगह शंका... बावजूद इसके जब लंका में अशोक वाटिका के नीचे सीता माँ को राम (1/7)
नाम की मुद्रिका मिलती है तो वो उस पर 'विश्वास' कर लेती हैं। वो मानती हैं और स्वीकार करती हैं कि इसे प्रभु श्री राम ने ही भेजा है।
जीवन में कई लोग आपको ठगेंगे, कई आपको निराश करेंगे, कई बार आप भी सम्पूर्ण परिस्थितियों पर संदेह करेंगे... लेकिन इस पूरे माहौल में जब आप रुक (2/7)
कर पुनः किसी व्यक्ति, प्रकृति या अपने ऊपर 'विश्वास' करेंगे तो रामायण के पात्र बन जाएंगे।
राम और माँ सीता केवल आपको 'विश्वास करना' ही तो सिखाते हैं। माँ कठोर हुईं लेकिन माँ से विश्वास नहीं छूटा, परिस्थितियाँ विषम हुईं लेकिन उसके बेहतर होने का विश्वास नहीं छूटा, भाई-भाई (3/7)
विकास दिव्यकीर्ति जी की प्रसिद्धि की भूख और उत्तेजित अज्ञानी हिंदू!
पिछले दो दिन से इस विषय पर पाठकों के विचार जानने की कोशिश कर रहा था... अधिकांश लोग आहत हैं, कुछ लोग समर्थन कर रहे हैं! कुछ आश्चर्य कर रहे हैं कि क्या राम ने ऐसा कहा होगा? राम हों या कृष्ण अनेक लोग इनके (1/20)
जीवन में इनके विरोधी थे, तो लेखन भी वैसा ही हुआ था!
वाल्मीकि अन्य लेखकों से अलग हैं, वे राम के समकालीन हैं, वे राम को दिव्य पुरुष मानते हैं, उस काल और सभ्यता का आदर्श पुरुष मानते हैं। इसके बाद भी सीता को शरण देते हैं। अपनी पुत्री मानते हैं और सीता का पक्ष रखते हैं। (2/20)
सीता के पुत्रों को अपना पहला शिष्य मान कर उन्हें रामायण गाना सिखाते हैं (अंततः ये दोनों भाई राम की सभा में जाकर रामायण गाते हैं) राम हिल जाते हैं !
आज हम दिव्य कीर्ति की बात नहीं करेंगे क्योंकि वे कुछ नया नहीं कह रहे हैं!
वे पहले से कहे गए तथ्य को अपनी सुविधा से ट्विस्ट (3/20)
यदि इन घटनाओं पर थोड़ा नियन्त्रण स्थापित करना है तो वराहदेव की शरण ही इस समय एकमात्र साधन है... बहनों को असुरों के प्रेमजाल रूपी वशीकरण से बचाने हेतु वराह देव के तीखे दाढ़ दन्तों से बने कवच रूपी ताबीज को धारण कराने से वशीकरण कट जाता है।
सुअरों के थूथन से दो दांत निकले (1/6)
होते हैं जिन्हें कुकुर दंत कहा जाता है। तंत्र क्रिया में इन्हीं कुकुरदंतों का इस्तेमाल होता है। यह किसी भी हिन्दू वाल्मीकि कसाई के यहां से प्राप्त किया जा सकता है... अमूमन तंत्रक्रिया से बचाव में स्वाभाविक मृत्यु के बाद प्राप्त किया गया सूअर का दांत ज्यादा कारगर होता है।
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शूकर दंत लेकर वराहदेव की साधना की जाती है| वशीकरण करने एवं काटने हेतु शूकर दंत को पहले सिद्ध करना आवश्यक है, जिसकी विधि अत्यंत सरल है। होली दीपावली, दशहरा अथवा ग्रहण काल में अपने दाहिने हाथ में शूकर दंत रखें तथा 108 बार निम्नलिखत मंत्र का जाप करें:-
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