जैन धर्म में 18 प्रकार के पाप बताए गए हैं : 1. प्राणातिपात : हिंसा , कोई भी जीव के प्राण को घात करना , पीड़ा देना , मानसिक त्रास देना वो द्रव्य हिंसा है। रागादि भाव के साथ आत्मगुण को दबाना या घात करना वो भाव हिंसा है।
2. मृषावाद : असत्य बोलना , छल , कपट , मान और माया
माया अर्थात बाहर कुछ मन मे कुछ और। धन , धान्य के परिवार के लाभ या लोभ के कारण असत्य वचन बोलना। झूठी साक्षी देना।
3. अदत्तादान : अदत्त - चोरी , आदान लेना। चोरी से छुपा के लेना। पूछे बिना लेना। राज्य के कर आदि छुपाना वो भी चोरी है। एक परमाणु जितना भी चोरी करना भी अदत्तादान है।
4. मैथुन : विषयभोग , काम वासना , इन्द्रियों का असंयम , पांचेय इन्द्रियों के भोगों की लोलुपता , विजातीय की भोग वासना।
5. परिग्रह : धन धान्यादि संग्रह करके उसमें मान, दिखावा, ममत्व करना। आवश्यक संग्रह करके भी ज्यादा की तृष्णा करना। जितना भी है उसके उपयोग में नियंत्रण नही रखना।
6. क्रोध : गुस्सा , आवेश , आक्रोश , अनादर और रीस।
7. मान : अहंकार , अहं , अभिमान और आठ प्रकार के मद , जाती , कल , बल , मान , तप , ज्ञान , रुप , ऐश्वर्य आदि प्रकार के जीव अहं लगाते है।
8. माया : छल , कपट , प्रपंच , मलिनता , माया , एक शल्य माने जाते है।
9. लोभ : तृष्णा , असंतोष , लालच और लोभ को दोषों का बाप माना जाता है।