विहित कर्म न करने से, निन्दित कर्म करने से तथा इंद्रियों के विषय में अति आसक्त होने से मनुष्य का पतन होता है।
प्रत्येक युग की अपनी महिमा होती है,
उसी के अनुसार उस युग के विहित और निषिद्ध कर्म भी नियत किए गए हैं। इस प्रकार एक युग में जो नियत कर्म है; वही दूसरे युग में निषिद्ध या निन्दित भी हो सकता है। अतः इसे जानना और समझना धर्मपरायण व्यक्ति के लिए आवश्यक हो जाता है।
विशेषरूप से कलियुग के लिए निषिद्ध कर्मों के विषय में पुराणों में जानकारियाँ बिखरी हुई हैं जिन्हें ‘निर्णयसिंधु’ जैसे ग्रथों ने एकीकृत किया है। इस लेख में हम ‘धर्मसिन्धु’ (चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान) के आधार पर कलियुग के लिए कुछ निषिद्ध और निन्दित कर्मों को जानने का प्रयास करेंगे।
धर्मसिंधु, निर्णयसिंधु, कालमाधव जैसे ग्रंथ कर्तव्य–अकर्तव्य की स्थिति में शास्त्रों के आधार पर निर्णय लेने हेतु लिखे गये हैं अतः इनकी प्रामाणिकता शास्त्रों की प्रामाणिकता ही सिद्ध होती है।
कलियुग के लिए मुख्य निषिद्ध कर्म निम्नलिखित हैं :
१. जल मार्ग से समुद्र पार की यात्रा करने वालों से सम्बन्ध रखना।
२. जल से भरे कमण्डलु को धारण करना।
३. दूसरे वर्ण में उत्पन्न कन्या से (द्विजों का) विवाह करना।
४. देवर से पुत्र की उत्पत्ति करना।
५. वानप्रस्थ आश्रम धारण करना।
६. दान की हुई कन्या का पुनः दान करना।
७. लम्बे समय तक ब्रह्मचर्य रखना।
८. नरमेध, अश्वमेध, गोमेध आदि करना।
९. उत्तर दिशा की यात्रा करना।
१०. मदिरा (शराब) पीना अथवा उसके बर्तन का ही प्रयोग करना।
११. वाममार्ग के मदिरा भक्षण, मांस भक्षण आदि को मानना।
१२. कलियुग में अपनी पत्नी से जनित पुत्र, दत्तक पुत्र अथवा किसीने अपना पुत्र स्वयं दिया हो – यही तीन पुत्र माने गये हैं।
१३. ब्रह्महत्या करने वालों से संबंध रखने में दोष तो लगता है किन्तु व्यक्ति पतित नहीं होता क्योंकि पापों में संसर्ग का दोष नहीं है।
“सतयुग में पापी के साथ बोलने से मनुष्य पतित हो जाता था; त्रेतायुग में पापी को स्पर्श करने से पतितपना; द्वापरयुग में पापी के अन्न को ग्रहण करने से पतितपाना और कलियुग में पाप कर्म करने से या उसमें सहयोग करने से मनुष्य पतित होता है।”
१४. ऐसे लोग जो गुप्तरूप से अभक्ष्य का भक्षण करते हैं, अपेय का पान करते हैं या अगम्यागमन करते हैं ऐसे लोगों को जानने वालों को दोष तो लगता है किन्तु व्यक्ति पतित नहीं होता क्योंकि पापों में संसर्ग का दोष नहीं है।
१५. जाति से बाहर किए गए पापियों का संसर्ग मनुष्य के पतितपने का कारण होता है। इस कारण से “सतयुग में देशका त्याग, त्रेता में ग्राम का त्याग, द्वापर में एक कुल का त्याग और कलियुग में पाप कर्म करने वाले का त्याग विहित है।”
१६. किसी भी प्रकार के यज्ञ में किसी भी मान्यता में पशुओं की हिंसा (विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिये) कलियुग में वर्जित है।
१७. कलियुग में ज्येष्ठ आदि सभी भाइयों का बराबर भाग कहा गया है।
१८. जहाज में बैठ कर समुद्र में गमन करने वाले द्विज ने प्रायश्चित भी किया हो तो भी
उनका संसर्ग नहीं करना चाहिए।
१९. आपातकाल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि के वृत्ति का त्याग करना चाहिये। sambhashan.com/kaliyug-karma/
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‘जाति’ शब्द वैदिक नहीं है, अर्थात् यह शब्द वेदों में नहीं मिलता। श्रौतसूत्रों (यथा कात्यायन १५.४.१४) में जहां यह प्रथम मिलता है वहाँ एक ही गोत्र, कुल अथवा परिवार में जन्म लेने के अर्थ को प्रकट करता है। मनु आदि स्मृति ग्रंथों में भी यह इसी प्रकार के अर्थ
को प्रकट करता है और ‘वर्ण’ शब्द के आधुनिक पर्याय के रूप में समझा और जाना जाता है।
अब प्रश्न है कि ‘जाति’ शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
आज बुद्धिजीवियों को जाने कौन सी बीमारी लगी हुई है जो फल, सब्जी, अनाज यहाँ तक कि आर्यों को भी विदेशों से आया सिद्ध करते हैं।
आर्य प्रवास सिद्धांत पर तो न्यायालय के आदेश के बाद भी प्रश्न ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। यद्यपि इसमें दोष किसी दूसरे का नहीं है, जो दोष है वह भारतीयों का ही है, हमारा दोष है। प्रश्न भी हम करते हैं और उत्तर भी स्वयं देते हैं। विश्व बस हमें देख कर ताली बजाता है।
सूर्य देव का वर्णन ऋग्वेद में एक अत्यंत उपकारी शक्ति के रूप में आया है जो ऋग्वेद १.५०.६, १.११५.१, १.१५५.३, १.१६४.११, १.१६४.१३, १.१९१.८, १.१९१.९, १०.८८.११, १०.१३९.३ आदि ऋचाओं में दृष्टव्य है।
आदित्यह्रदयम्, वाल्मीकिरामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग १०५.८,९ में कहा गया है -
ये (आदित्य) ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चंद्रमा, वरुण, पितर,
वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण और ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुँज हैं।
अदिति के पुत्र के रूप में आदित्य का वर्णन मिलता है। जिनकी संख्या बारह बताई गई है। ऐतरेय ब्राह्मण में दिव् (चमकना) धातु से आदित्य शब्द की व्युत्पत्ति बताई गई है।
सनातन धर्म में जो भी नियम आदि निर्दिष्ट हैं, उनका कोई न कोई आधार अवश्य मिलता है। उदाहरण स्वरूप ‘पुष्पादि को बिना स्नान न तोड़ना’।
“संसार में अच्छे कार्य प्रायः धर्म से ही हुआ करते हैं और धर्म में मनुष्य को प्रीति उत्पन्न हो सके इसके दो ही मार्ग हैं - १. तात्विक विचार और २.डर।”
स्नान करके पवित्र अवस्था में, निश्चित समय में पुष्प तोड़ने का विधान इस लिए बनाया गया ताकि कोई अनायास ही पुष्पादि को न तोड़े। आज बड़े शहरों में बने पार्कों में यदि आप पुष्पादि तोड़ें तो दण्ड का भागी बनते हैं।
आज की सरकारें भी अच्छे कार्य कराने के लिए ‘डर’ का ही सहारा लेती हैं।
आज यदि आप हरे पेड़ आदि काटते हैं तो जेल तक की हवा खानी पड़ सकती है अथवा भारी अर्थ दण्ड देना पड़ सकता है; जबकि यदि धर्म के अनुसार चलें तो आप स्वतः ही ऐसा कृत्य करने से बचना चाहेंगे।
देवोपासना में ‘पंचोपचार’, ‘दसोपचार’ और ‘षोडशोपचार’ पूजन का वर्णन मिलता है।
पंचोपचार (पाँच उपचार) - १. पुष्प २. गन्ध ३. धूप ४. दीप और ६. नैवेद्य के माध्यम से पूजन।
दसोपचार (दस उपचार) - १. पाद्य २. अर्ध्य ३. आचमन ४. स्नान ५. वस्त्र-निवेदन ६. गन्ध ७. पुष्प ८. धूप ९. दीप और
१०. नैवेद्य अर्पित कर पूजन।
इसके अतिरिक्त जो सम्पूर्ण पूजन कहा गया है, वह है ‘षोडशोपचार’ (सोलह उपचार) - १. पाद्य २. अर्ध्य ३. आचमन ४. स्नान ५. वस्त्र-निवेदन ६. गन्ध ७. पुष्प ८. धूप ९. दीप १०. नैवेद्य ११. आभूषण १२. ताम्बूल १३. स्तवपाठ १४. तर्पण १५. दक्षिणा और १६. नमस्कार।
अच्छा, यहाँ एक और बात ध्यान में आती है कि हम जो एक-दूसरे का अभिवादन ‘नमस्ते’ से करते हैं, वह दोष पूर्ण है। ‘नमस्ते’ से अभिवादन नहीं करना चाहिए। चित्र में पढ़िए।