बिंदु परंपरा का पालन करते हुए जब मैं पूर्वामान्य पुरी पीठाधीश्वर पूज्यपाद श्रीपुरीशंकराचार्य जगद्गुरु स्वामिश्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाभाग जी से माघ मेला में #दीक्षा लेने गया था तब मन में यही प्रश्न था कि पूज्यपाद गुरुदेव से साधना संबंधित मार्गदर्शन किस प्रकार प्राप्त करें।
मेरा जन्म परंपरागत #स्मार्त ब्राह्मण परिवार में हुआ है। कुलपरंपरा अनुसार हम लोग पंचायतन पूजन करते हैं। पंचदेवों में किसका पंचायतन है यह कुलपरंपरा से संबंधित होने के कारण गोपनीय विषय है। हम स्मार्त ब्राह्मण शैव,वैष्णव,शाक्त,गाणपत्य और सौर्य होते भी हैं और नही भी होते हैं।
होते भी हैं का अर्थ है हम लोग पंचदेवों से संबंधित कोई भी मंत्र दे सकते हैं और नही भी होते हैं का अर्थ है कि किसी एक संप्रदाय को प्रमुखता भी नही दे सकते हैं। दीक्षा से पूर्व जब संगोष्ठी चल रही थी तब गुरुदेव ने साधना संबंधित मार्गदर्शन देते हुए कहा था । ......
मंत्र,मन(हममें) और इष्ट में एकनिष्ठता होनी चाहिए । पूज्यपाद गुरुदेव रहस्यमयी तरीके से उपदेश देते हैं शायद इसका कारण यह हो कि अनाधिकारी को इसका अर्थ न पता चले क्योंकि अधिकारी तो स्वयं ही पुरुषार्थ से ज्ञात कर लेगा।
दीक्षा के बाद जब गुरुदेव के हमने पुनः दर्शन किये और दंडवत प्रणाम करके जैसे ही उठें तो गुरुदेव ने पुनः कहा कि मंत्र,साधक और इष्ट में एकनिष्ठता होनी चाहिए । कुलपरंपरा का पालन करते हुए जब हमने गुरुदेव के वचन का मनन किया तो शेष मार्गदर्शन स्वयं मिलने लगा।
साधक जब मंत्र और इष्ट में एकनिष्ठता रखता है तब साधक को इष्ट की अनुकंपा स्वयं प्राप्त होने लगती है। जैसे अगर साधक विष्णु जी से संबंधित मंत्र में और विष्णु जी में एकनिष्ठता रखते हुए जप करता है तो उसमें वैष्णव तेज स्फूर्तित होने लगता है ।
महाकवि कालिदास जी मंत्र(बीजमंत्र) और इष्ट(भगवती) में एकनिष्ठता रखते हुए जप करते थे जिसके कारण उन्हें भगवती की कृपा प्राप्त हुई और उनके ह्रदय में भगवती ने विद्या प्रतिष्टित कर दी। अतः साधक,मंत्र और इष्ट में जब एकनिष्ठता रहती है तभी मंत्र का फल प्राप्त होता है।
संगोष्ठी के दौरान गुरुजी ने कुलधर्म में भी विशेष बल दिया था। अतः कुलधर्म का पालन करते हुए कुलाचार अनुसार कुलदेवी,देवता अथवा भैरव की उपासना करनी चाहिए। उपासना के समय हममें, मंत्र में और इष्ट में एकनिष्ठता होना अतिआवश्यक है। मंत्र और इष्ट से खुद को अलग नही समझना चाहिए।
जो साधक स्वयं को नामी(इष्ट) और नाम(मंत्र/भगवन्नाम)से इतर समझता है उसे सिद्धि नही प्राप्त होती है।साधना छोटे बच्चे समान है और लोगो की नजर चुड़ैल समान है। जिस प्रकार छोटे बच्चों को चुड़ैल से खतरा रहता है उसी प्रकार साधक को लोगो की दृष्टि से खतरा रहता है।
अतः साधना एकांत में करनी चाहिए। यही कारण था कि ऋषि वनों व गुफाओं में गुप्त रूप से साधना करते थें। साधनाजनित अनुभव ,ज्ञान,सिद्धि आदि गुप्त रखना चाहिए क्योंकि परिपक्व होने के बाद यह स्वयं प्रकट होने लगते हैं अतः परिपक्वता से पहले स्वयं को दुनिया के सामने छिपाना चाहिए।
प्रमुख बात कुलधर्म कभी न त्यागें। मैं इस पटल में देखता हूँ कि कुलधर्म त्यागने वाले अन्यों को उपदेश देते हैं और सही व गलत का ज्ञान देते हैं। धर्म व अधर्म का पूरा व्याख्यान दिया जाता है पर कुलधर्म के विषय में यह तथाकथित ज्ञानी मौन रहते हैं।
कुलधर्म को त्यागकर कोई स भी मंत्र,उपदेश ,भजन आदि सफल नही होता है। सनातन धर्म का आधार कुलधर्म और जाति धर्म है। कुलधर्म का पालन करने से जातिधर्म का पालन खुद होने लगता है। कुलधर्म और जातिधर्म ही वर्णाश्रमधर्म है।
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गौतम बुद्ध से पहले सात ब्राह्मण बुद्ध हो चुके हैं। दीपंकर, मंगला, रेवता,अनोदस्सी,काकूसंध , कोंडगमन और कश्यप । सिद्धार्थ क्षत्रिय थे। गौतम गोत्र के कारण इन्हें गौतम बुद्ध बोला जाता है। अगले बुद्ध मैत्रेय नामक ब्राह्मण होंगे।
जातक कथा अनुसार ही गौतमबुद्ध की जन्मस्थली ब्राह्मण मुनि कपिल के नाम मे कपिलावस्तु थी/ है। धम्मपद जो कि गौतम बुद्ध की वाणी है उसका एक पूरा अध्याय ब्राह्मणो की स्तुति में है जिसे ब्रह्मानवाग्गो कहते हैं।
मज्जहिम निकाय में गौतम बुद्ध ब्राह्मणों की पाँच विशेषताएं बताते हैं ।सत्य,तपस्या,ब्रम्हचर्य, अध्यन और त्याग । महायान बुद्धिज्म मत के प्रवर्तक कश्यप ब्राह्मण हैं। थेरवादी बुद्धिज्म मत के प्रवर्तक नागार्जुन और अश्वघोष ब्राह्मण हैं। वज्रयानत के प्रवर्तक बुद्धघोष ब्राह्मण हैं।
प्रेम का अर्थ वासना हो गया, संभोग का अर्थ सेक्स हो गया और विवाह का अर्थ शादी हो गया बस इसी कारण हिंदुओ का पतन हो गया। पति का पत्नी के प्रति प्रेम "महाश्रृंगार" है, योद्धा का मातृभूमि के प्रति प्रेम "महानिर्वाण" है, शिष्य का गुरु के प्रति प्रेम "मोक्ष" है।
भक्त का भगवान के प्रति प्रेम " आत्मानुभूति " है और माँ का संतान के प्रति प्रेम " वात्सल्य" है। शाररिक आकर्षण कदापि प्रेम नही है ,प्रेम तो " एकनिष्ठता" का भाव है , "एकनिष्ठता" जीवन को मर्यादित और सफल बनाती है।
संभोग का अर्थ " देह तृप्ति " नही है बल्कि "काम" रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि है,यह काम रूपी पुरुषार्थ ही उत्तम संतान को जन्म देने के लिए प्रेरित करता है अब " काम " का ही ज्ञान नही है तो संतान भला कहाँ से ज्ञानवान होगी और ग्रहस्थ आश्रम भी कैसे सफल होगा।