Thread: संभ्रांत सारस्वत ब्राह्मण परिवार की #DeepikaPadukone इतना झूमकर क्यों नाच रही हैं? कहाँ गए संस्कार? हिंदी फ़िल्मों में एक समय लड़की का रोल लड़के करते थे और नाचने वालियों की समाज में कोई इज़्ज़त नहीं होती थी। फिर सब बदल गया और घुँघरू टूट गए। कैसे हुआ ये सब? पढ़िए।
नाचना अब बुरा काम नहीं है। इलीट कहे जाने परिवारों की लड़कियां भी अब नाचने लगी हैं। सिर्फ निजी सेटिंग्स में नहीं, पब्लिक में भी स्टेज पर भी और कैमरे के सामने भी। अगर ड्रेस बॉडी हगिंग हो और अच्छी-खासी स्किन भी दिख रही हो तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ता। दीपिका से पूछिए।
लेकिन ज्यादा पुरानी बात नहीं हुई, जब पब्लिक के सामने नाचने का मतलब यह होता था कि जो लड़की इस तरह नाचने को तैयार है, वह पैसा या दबाव पर देह बेचने को भी तैयार हो जाएगी। पहले देवदासियां नाचती थीं, गणिकाएं नाचती थीं, तवायफें और 'बाईजी' नाचती थीं। खास बिरादरी की औरतें नाचती थीं।
रामलीलाओं से लेकर नौटंकियों तक और भारत की शुरुआती फिल्मों में भी महिलाओं के रोल पुरुष ही निभाते थे। काफी समय तक फिल्मों में लोगों के बीच नाचने का काम आम तौर पर वैंप यानी खलनायिकाओं के हिस्से आता था। अच्छी औरतें हद से हद देवताओं के सामने नाचा करती थीं। नृत्य कहते थे उसे।
'शोले' में बसंती 'कुत्तों' के सामने तब नाची, जब उसके प्रेमी की जान पर बन आई। हीरोइन को नाचने के लिए एक पवित्र उद्देश्य की जरूरत थी। 'तेजाब' में माधुरी दीक्षित भी डांस फ्लोर पर एक-दो-तीन की ताल पर अपनी मर्जी से नहीं बल्कि लालची बाप के मजबूर करने पर नाचीं।
काफी समय तक संदिग्ध पृष्ठभूमि के परिवारों की लड़कियां ही फिल्मों में नाचती थीं। इसे एंग्लो इंडियन, यहूदी या कुछेक पारसी लड़कियों का विशेषाधिकार माना जाता था। तवायफ परिवार की लड़कियाँ नाचती थीं।
कई हीरोइनों ने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि जाहिर न होने देने के लिए खासा जतन किया। क्या यह मामूली बात है कि हिंदुस्तानी फिल्मों के सबसे पुराने खानदान कपूर परिवार में करिश्मा कपूर से पहले कोई भी लड़की पर्दे पर नहीं नाची?
लंदन युनिवर्सिटी की रिसर्चर ऐना मॉरकम लंबे समय तक रिसर्च के बाद लिखी गई अपनी किताब 'कोर्टिजंस, बार गर्ल्स एंड डांसिंग ब्यॉज' में बताती हैं कि पहले सिर्फ छोटी माने जानी वाली जाति की लड़कियां और तवायफें ही सार्वजनिक तौर पर नाचती थीं।
मंदिरों में शास्त्रीय नृत्य भी देवदासियां या उनकी संतानें ही करती थीं। नाचने, गाने, बजाने और देह बेचने के बीच अनिवार्य न हो तो भी एक ढीला-ढाला सा रिश्ता रहा है। लेकिन देखते ही देखते यह सब बदल गया। नृत्य के सार्वजनिक प्रदर्शन के साथ मोटी आमदनी का जुड़ना शायद इसकी सबसे बड़ी वजह है।
भारतीय नृत्य कला को लेकर पश्चिम में आकर्षण पैदा होने के साथ भारतीय नृत्यकर्मियों की यूरोप और अमेरिका के सांस्कृतिक आयोजनों में मांग बढ़ी, जिसे पूरा करने के लिए शिक्षित-संभ्रांत परिवारों का आगे आना स्वाभाविक था। नृत्य शैलियों को भारतीय संस्कृति के प्रतीक के तौर पर पेश किया गया।
देखते ही देखते नृत्य की शास्त्रीयता की ऐसा एलीट घेराबंदी हुई कि परंपरागत नर्तक जातियां इस काम से बाहर हो गई। आधुनिक भारतीय शास्त्रीय नृत्य विधा के प्रमुख शिक्षक नारायण भातखंडे ने तो तवायफों से मिलने तक से इनकार कर दिया था।
कला जब शास्त्रीय हुई तो कलाकार भी बदल गए। 1954 में तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री बीवी केसकर ने यहां तक कह दिया कि आकाशवाणी में ऐसी महिला कलाकारों के लिए कोई जगह नहीं है, जिनका निजी जीवन कलंकित है।
एनआरआई ऑडियंस का मार्केट बढ़ने के साथ ही फिल्मों में भांगड़ा और गिद्दा के दृश्य लाने की जरूरत पड़ी क्योंकि ओवरसीज ऑडियंस का सबसे बड़ा हिस्सा पंजाबी प्रवासियों का था। 'कल हो न हो', 'दिल तो पागल है', 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' से लेकर 'कुछ कुछ होता है' तक में हीरोइनें खूब नाचीं
कोरस डांस करने वाली स्थूलकाय महिलाओं की जगह फिट और तंदुरुस्त लड़कियों ने ले ली है। इसे श्यामक डावर इफेक्ट भी कहा जा सकता है। खाते-पीते परिवार की संतानों को मॉडर्न डांस सिखाने वाले भारत के इस सबसे लोकप्रिय उस्ताद ने अपनी डांस क्लासेज में फिटनेस पर काफी जोर रखा है।
फिल्मों की कोरियोग्राफी से जुड़े होने के कारण वे इस चलन को फिल्मों में भी ले गए। डांस को सामाजिक मंजूरी मिलने का सबसे नया रूप टीवी में डांस से जुड़े रिएलिटी शोज और टैलेंट हंट की शक्ल में सामने आया।
टीवी पर इन शोज के लिए देश भर में प्रतिभाओं की तलाश होती है। इस तरह डांस के पब्लिक परफॉर्मेंस का चलन छोटे-छोटे शहरों तक में पहुंच गया। जाहिर है, जो 'बुरी औरतें' पहले नाचने का पेशा करती थीं, अब उनमें से ज्यादातर सिर्फ 'पेशा' कर रही हैं। उनकी जगह किसी और ने ले ली है।
नाचने की चाह रखने वालों के लिए भारत में इससे बेहतर समय शायद कभी नहीं था। यहां नाचने का मतलब देवता की मूर्ति के सामने या शादी के संगीत कार्यक्रम में परिवार के बीच नाचने से नहीं है। यह नाचना पब्लिक के बीच है, पैसा और शोहरत कमाने के लिए है।
पापा या मम्मी आज अपनी बेटी को घर आए गेस्ट के सामने कह सकते हैं कि बेबी जरा नाच कर दिखाना। वे अपनी बेटी को डांस क्लासेज में भेजते हैं, टैलंट हंट शोज में डांस ऑडिशन के लिए प्रेरित करते हैं और फिल्मों व टीवी में डांस को अपना प्रफेशन बनाने के लिए उसकी हर संभव मदद करते हैं।
बीजेपी ने आज आरोप लगाया है कि कांग्रेस ने 1980-90 में मंडल कमीशन लागू करने का विरोध किया था। मेरे पास इस बात के सैकड़ों सबूत हैं कि उस दौर में कांग्रेस, बीजेपी और सीपीएम तीनों ने मंडल कमीशन का विरोध किया था। इसलिए पुरानी बातों को छेड़ने से बचना चाहिए। वरना मुझे सच बताना पड़ेगा।
बीजेपी ने तब कहा था कि कोर्ट का आदेश आने तक ओबीसी आरक्षण लागू न हो। EWS पर उसकी चाल बदल गई।
कांग्रेस की चाल भी आरक्षण पर बेढंगी थी। विरोध का ही स्वर था।
What type of person should not become a priest? A thread.
- Dr. B.R. Ambedkar (1935) Annihilation of Caste
(1) There should be one and only one standard book of Hindu Religion, acceptable to all Hindus and recognized by all Hindus…
… This of course means that all other books of Hindu religion such as Vedas, Shastras and Puranas, which are treated as sacred and authoritative, must by law cease to be so and the preaching of any doctrine, religious or social contained in these books should be penalized.
Thread पढ़िए। डॉ बाबा साहब आंबेडकर ने कोलिजियम सिस्टम को बताया था खतरनाक, संविधान सभा द्वारा खारिज सिस्टम को 1993 में वापस ले आए जज। जानिए 23-24 मई 1949 को क्या हुआ था संविधान सभा में। @narendramodi@KirenRijiju
जिस संवैधानिक व्यवस्था को 9 जजों की पीठ ने बदल दिया, वह संविधान सभा में गहन परामर्श और बहस के बाद अस्तित्व में आई थी. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज कैसे बनाए जाएंगे, इस पर संविधान सभा में 23 और 24 मई, 1949 को बहस हुई.
अनुच्छेद 124 में बी. पोकर साहिब ने दो संशोधन प्रस्ताव रखे. पहला प्रस्ताव था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस करें. दूसरा प्रस्ताव ये था कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति चीफ जस्टिस के सिर्फ परामर्श से नहीं, सहमति से करें.
A thread⤵️ . Modi govt’s Stand-Up India scheme is a great failure. A fiasco. What happened to the '1.25 lakh Dalit/Adivasi entrepreneurs' it was supposed to create every year? #StandupIndia@narendramodi@nsitharaman
In 2015 in his Independence Day speech, Narendra Modi had repeatedly invoked the number 125, to mark Dr Ambedkar’s 125th anniversary that year – “1.25 lakh branches of banks” would disburse start-up loans between ₹10 lakh and ₹1 crore to create “1.25 lakh Dalit entrepreneurs”.
Somewhat passingly, Modi had also referred to “women entrepreneurs” among the possible beneficiaries of the scheme. The focus was on the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes; women were an addendum.
Role of memory in the creation of the nation and why is forgetting important. A must read thread 🧵 for Manoj Shukla Muntashir.
In a viral video, Manoj Muntashir argued that Indians have forgotten their ancestors. For him, Mughals were “glorified dacoits” and Indians still kept on naming roads after them.
He said: “Hamare ghar tak aane wali sadkon ke naam bhi kisi Akbar, Humayun, Jahangir jaise glorified dacoits ke naam par rakh diye gaye aur hum ribbon kat te hue maukaparast netaon ko dekh kar taliyan bajate rahe.”
Aryan Invasion Theory (AIT) was started by the Brahmin elites like Tilak and Ram Mohan Roy. In fact, Dr Ambedkar debunked the Aryan migration and Aryan supremacy theories in his thesis Who Were the Shudras (1946). A thread.
The most notable and prominent proponent of the Aryan Migration Theory was none other than Bal Gangadhar Tilak, who published an entire book called Arctic Home in The Vedas (1903).
Based on the linguistic evidence in the Vedas, Tilak wrote that early Aryans were inhabitants of the Arctic and they migrated to different parts of the world. One group reached the place that we now call India.