रवींद्र जैन ने कहा था कि अगर कभी वो संसार का देख पाये, तो सबसे पहले येसुदास को देखना पसंद करेंगे, क्योंकि वो ईश्वर का स्वर हैं। किसी गायक के लिए इससे बड़ा कोई तमग़ा नहीं हो सकता। इसे रूपक कहूं, विशेषण कहूं....मुझे समझ नहीं आता। #Yesudas
किसी-किसी स्वर में कविता की रसधारा समायी हुई होती है।
जब वो इलैयाराजा की धुन पर गुलज़ार के बोलों को अपने कंठ का स्वर्ण-स्पर्श देते हैं—तो मन के कोमलतम कोनों को स्पर्श कर जाते हैं—‘हल्का-फुल्का शबनमी/ रेशम से भी रेशमी….सुरमई अंखियों में नन्हा-मुन्ना एक सपना दे जा रे.....
हममें से भला कौन होगा जो एक शिशु की नींद ना सोना चाहता हो..आज किसी अंजान व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर बड़ी विकलता से कहा, ‘नाहक बड़े हो गए’। उसके शब्दों में अतीत को जीने की विकलता थी, उस माहौल में बने रहने की विकलता—जिसे हम पीछे छोड़ आए। और फिर इस गीत में येसुदास का ‘रा री रा रू
उनका वो ‘नन्हा’ का उच्चारण। येसुदास क्यों अद्भुत हैं बताऊं...वो अद्भुत हैं अपने बेहद कोमल मनुष्य होने में.....संसार के राग-द्वेष से ख़ुद को अनछुआ रख पाने में। अपनी आध्यात्मिकता में।
जब येसुदास ‘गाओ मेरे मन/चाहे सूरज निकले चाहे लगा हो ग्रहण’ गाते हैं तो कैसा वीतराग महसूस होता है।
यहां मैं येसुदास का जो गीत लेकर आया हूं वो मुझे सदा पसंद रहा है। ये डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन की रचना है। वो लिखते हैं—‘कोई गाता मैं सो जाता.... कोई गाता’….
.संसार की इस आपाधापी में सच येसुदास ही वो विरल स्वर हैं जो सारे दबावों और तनावों के बीच हमें नींद की वादियों में पहुंचा सकते हैं। उनका स्वर गूंजता है--
संसृति के विस्तृत सागर पर
सपनों की नौका के अंदर
सुख-दुख की लहरों पर
उठ-गिर बहता जाता मैं सो जाता!
कोई गाता मैं सो जाता!
येसुदास सचमुच मन की डोंगी को सुख-दुःख की लहरों पर ले जाते हैं। वे मन को सुकून के शहद से भर देते हैं।
आँखों में भरकर प्यार अमर,
आशीष हथेली में भरकर
कोई मेरा सिर गोदी में रख सहलाता,
मैं सो जाता!
कोई गाता मैं सो जाता!
मुझे इस कोलाहल भरी दुनिया में येसुदास एक ठौर लगते हैं, इस स्वर के कंधों पर सिर रखकर आप ख़ुद को विश्वास के साथ छोड़ सकते हैं।
मेरे जीवन का खारा जल,
मेरे जीवन का हालाहल
कोई अपने स्वर में मधुमय कर बरसाता,
मैं सो जाता!
कोई गाता मैं सो जाता!
येसुदास को हिंदी की दहलीज़ पार करके सुनें तो आपको लगेगा किस अमृत-मय संसार में पहुंच गये। जन्मदिन की शुभकामनाएं इस विरल गायक को।
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बहुत बड़ी चुनौती होती है किरदार के भीतर चल रहे झंझावत को पर्दे पर उतारना। वो झंझावात तो अदृश्य होता है। वो कौन से औज़ार, कौन से संकेत हों, जो इस तूफान को दृश्य में उभारेंगे।
"बंदिनी" का दृश्य.....कल्याणी के पिता की उसको खोजते हुए मृत्यु हो चुकी है। वो उनके अंतिम दर्शन करके सुन्न लौटी है।
नर्सिंग होम के डॉक्टर ने बीते कुछ समय से उसे हिस्टीरिया की शिकार शिवानी की देखभाल का कठिन और यातना से भरा काम दिया है।
कल्याणी का जीवन दुख की अंधेरी कोठरी है। वो लौटती है तो पाती है कि शिवानी असल में क्रांतिकारी बिकाश बाबू की पत्नी है। वही जो उसे पत्नी मानकर और विवाह का वादा करके जो गए तो लौटे नहीं।
अब कल्याणी चाय बना रही है।
उसके मन में तूफान है। दो बहुत बड़े झटके अभी अभी उसे मिले हैं।