दो बरस हुए....कोंकण में कर्ली नदी के किनारे सूर्योदय हो रहा था और मन में गूँज रहा था कुमार गंधर्व का दिव्य-स्वर...
फिर Kalapini Komkali जीजी ने बातों बातों में बताया कि इस नदी का नाम काळी नदी का अपभ्रंश है जो कुमार जी के पारिवारिक नाम का मूल उद्गम है। #KumarGandharva #UdJayega
शायद एक डोर थी जो कर्ली नदी के किनारे कुमार जी के स्वर से मन को आलोकित कर रही थी...हम मध्यप्रदेश में पले-बढ़े सत्तर अस्सी के दशक की पीढ़ी के लोगों को सदा कुमार जी निकट लगते रहे। शहर बदलते रहे-पर लगता रहा कि ये जो हवाएं आ रही हैं-- इनका एक अंश भानु-कुल को छूकर आ रहा होगा।
हमारे आंसूओं और मुस्कानों का साक्षी रहा कुमार जी का स्वर।
कुछ उदास शामें होती थीं, जब पता नहीं था कि जीवन का रास्ता क्या होगा, भविष्य क्या होगा... तब भी कुमार जी की आवाज़ गूंजती थी और सूरज क्षितिज के उस पार डूब जाता था।
पर हाथों में आशा की पुडिया थमा जाता था। कह जाता था अपने सपनों को जिंदा रखो।
न जाने क्यों बहुत ज़माने से सूरज उगते या सूरज डूबते देखूँ तो मन में कुमार जी का स्वर सुगंध बिखेर देता है और सब निर्मल हो जाता है। कल स्मृति दिवस था कुमार जी का। नमन।
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RRR के गाने ‘नाटू नाटू’ को ‘गोल्डन ग्लोब’ मिला है। इसके संगीतकार हैं एम एम कीरवानी जिन्हें हिंदी जगत में एम एम क्रीम के नाम से ही जाना जाता है। क्रीम बेमिसाल संगीतकार हैं पर उनका काम लोगों की नज़रों से दूर रहा है। #GoldenGlobes#NatuNatu#natunatusong#MMKreem#MMKeeravani
असल में हमारे यहां गानों को उनके संगीतकार या गीतकारों से जोड़कर देखने-सुनने की परंपरा ज़्यादा नहीं है। बहरहाल... अपनी निजी राय ये है कि भले ‘नाटू नाटू’ किरवानी का सबसे अच्छा काम नहीं है। तो फिर वो कौन से गाने हैं जिन्हें एम.एम. क्रीम की प्रतिभा के लिए सुना जा सकता है।
मुझे लगता है कि ‘ज़ख़्म’ का गाना ‘गली में आज चाँद निकला’ क्रीम के सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक है। इसे आनंद बख़्शी ने लिखा है। इस गाने के बनने की कहानी फिर कभी। पर इस गाने में है भावनाओं की कोमलता और बेमिसाल संगीत संयोजन। #Zakhm #GaliMeinAajChand
रवींद्र जैन ने कहा था कि अगर कभी वो संसार का देख पाये, तो सबसे पहले येसुदास को देखना पसंद करेंगे, क्योंकि वो ईश्वर का स्वर हैं। किसी गायक के लिए इससे बड़ा कोई तमग़ा नहीं हो सकता। इसे रूपक कहूं, विशेषण कहूं....मुझे समझ नहीं आता। #Yesudas
किसी-किसी स्वर में कविता की रसधारा समायी हुई होती है।
जब वो इलैयाराजा की धुन पर गुलज़ार के बोलों को अपने कंठ का स्वर्ण-स्पर्श देते हैं—तो मन के कोमलतम कोनों को स्पर्श कर जाते हैं—‘हल्का-फुल्का शबनमी/ रेशम से भी रेशमी….सुरमई अंखियों में नन्हा-मुन्ना एक सपना दे जा रे.....
हममें से भला कौन होगा जो एक शिशु की नींद ना सोना चाहता हो..आज किसी अंजान व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर बड़ी विकलता से कहा, ‘नाहक बड़े हो गए’। उसके शब्दों में अतीत को जीने की विकलता थी, उस माहौल में बने रहने की विकलता—जिसे हम पीछे छोड़ आए। और फिर इस गीत में येसुदास का ‘रा री रा रू
बहुत बड़ी चुनौती होती है किरदार के भीतर चल रहे झंझावत को पर्दे पर उतारना। वो झंझावात तो अदृश्य होता है। वो कौन से औज़ार, कौन से संकेत हों, जो इस तूफान को दृश्य में उभारेंगे।
"बंदिनी" का दृश्य.....कल्याणी के पिता की उसको खोजते हुए मृत्यु हो चुकी है। वो उनके अंतिम दर्शन करके सुन्न लौटी है।
नर्सिंग होम के डॉक्टर ने बीते कुछ समय से उसे हिस्टीरिया की शिकार शिवानी की देखभाल का कठिन और यातना से भरा काम दिया है।
कल्याणी का जीवन दुख की अंधेरी कोठरी है। वो लौटती है तो पाती है कि शिवानी असल में क्रांतिकारी बिकाश बाबू की पत्नी है। वही जो उसे पत्नी मानकर और विवाह का वादा करके जो गए तो लौटे नहीं।
अब कल्याणी चाय बना रही है।
उसके मन में तूफान है। दो बहुत बड़े झटके अभी अभी उसे मिले हैं।