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Mar 1, 2023 34 tweets 10 min read Read on X
ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति तद्धास्य विजिज्ञाविति
विजज्ञाविति।।

जिस आत्मा के ज्ञान से मोक्ष और अज्ञान से बन्धन होता है, जो संसार का मूल है, एवं समस्त प्रजाओं का आधार है, जिसमें समस्त प्रजा प्रतिष्ठित है, यदात्मक ही यह सारा जगत् है,
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जो अज, अमृत, अभय, शिव और अद्वितीय है, वही सत्य है और वह आत्मा है, अतः हे श्वेतके तो तुम वही हो।

यहाँ त्वं शब्द का वाच्य वह श्वेतकेतु है जो उद्दालक का पुत्र अपने को जानता था, जिसने पिता के उस आदेश को-
'तमादेशप्रास' येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं ममविज्ञातं विज्ञात-मित्यादि ।'
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इसको—सुनकर श्वेतकेतु ने पूछा कि 'कथंनुभगवः
स आदेशो भवति, वह आदेश किस प्रकार है ? श्रोता,मन्ता विज्ञाता अधिकारी उसने उपदेश सुना, और विचार किया। उपदेश सुनने के पूर्व देह, इन्दियों से भिन्न सत्स्वरूप आत्मा अपने को नहीं जानता था, अनन्तर तुम वही हो।
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ओमित्येतदक्षरमिद सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव । यच्चान्यत्
त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥
-माण्डूक्योपनिषद्

ॐ अक्षर ही यह सच है, जो कुछ अभिधेय-वाच्यभूत पदार्थसमूह अर्थात् रूप है तथा अभिधान-वाचक यानी नाम है-यह सब ओंकार ही है, तात्पर्य यह कि रूप और
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नाम में भेद नहीं होता, अतः अभिन्न होने से यह सब नामरूपात्मक जगत् ओंकारस्वरूप ब्रह्म ही है। यह जो परापर ब्रह्मस्वरूप ओंकार अक्षर है, उसी का उपव्याख्यान अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय होने से उसके सामीप्य से विस्पष्ट कथन प्रस्तुत किया गया।
यह समझना चाहिए। भूत, भविष्यत् और वर्तमान जो कुछ कालत्रय से परिच्छिन्न है, वह ॐकार है, तथा जो त्रिकालातीत है, कार्य से ही विदित होता है, स्वयं कालापरिछेद्य अन्याकृतादि है, वह भी ओंकार ही है ।

अमात्रश्चतुर्थो व्यवहार्यः त एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं शिवोय एवं वेद।।
प्रकरण से प्राप्त ब्रह्म अमात्र —-मात्रारहित है, चतुर्थ-तुरीय केवल आत्मा ही है अव्यवहार्य-अभिघानभिघेय यानी नाम-रूप से रहित होने के कारण वाणी और मन का अविषय प्रपञ्चोपशम - प्रपञ्च का निषेधावधि अद्वैत है, इस तरह ओंकार आत्मा ही है। जो इस प्रकार उसकी उपासना करता है,
वह परमार्थदर्शी अपनी आत्मा में प्रवेश कर जाता है, अतः अव्यवहार्य है।

प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ
मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।

प्रपञ्चोपशम, शान्त, शिव एवं अद्वैत है, वही आत्मा है, वही जानने योग्य है; अर्थ ऊपर स्पष्ट है ।
अदृटमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यप-
देश्यमे कात्मप्रत्यय सारमित्यादि ॥

अपूर्वता वह आत्मा अदृष्ट है, अदृष्ट होने से अव्यवहार्य है,
इन्द्रियों का अविषय होने से अग्राह्य है, अलक्षण-लिङ्गरहित है, इसीसे अचिन्त्य है, अचिन्त्य होने से शब्दों के द्वारा अव्यपदेश्य है ।
एकात्मप्रत्ययसार अर्थात् जाग्रदादि अवस्थाओं में एक ही है ।।

संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद।।
फलम् मात्रा-रहित ओंकार आत्मा ही है, इस प्रकार जो जानता है वह परमार्थदर्शी स्वतः परमार्थ आत्मा में प्रवेश कर जाता है ॥

आप्नोति ह वै सर्वान् कामा नादिश्च भवति
य एवं वेद ॥
जो ओंकारस्वरूप ब्रह्म की उपासना करता है, वह समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है, और श्रेष्ठ पुरुषों में आदिमान् स्तुतिपरार्थवादः । अर्थात् प्रधान होता है ॥

सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादामकार उपपत्ति: मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो इति।
यह आत्मा अध्यक्षर है— अक्षर का अवलम्बन कर अभिधान की प्रधानता से आत्मा का वर्णन किया गया है, वह अक्षर ओंकार है, वह पादरूप से अघिमात्र है अर्थात् मात्रा को आश्रय करके वर्तमान है। क्योंकि जो आत्मा में पाद है, वही ओंकार की मात्रायें हैं, अतः जो पाद है, वही मात्रा है और
जो मात्रा है, वहीं पाद है—वह मात्रा अकार, उकार, और मकार है ।

ब्रह्मविदाप्नोति परम्।
ब्रह्मविद् वृहत्तम होने से ब्रह्म कहलाता है, उसको जो जानता है, वह ब्रह्मविद् है। वह ब्रह्मविद् पर को प्राप्त हो जाता है निरतिशय ब्रह्म।
इत्युपक्रमःउपनिषत्तात्पर्यनिर्णयः
यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये स एकः।

जो आकाशादि अन्नमय पर्यन्त कार्यों की रचना करके उसमें प्रविष्ट हुआ, वही इस पुरुष में परमाकाश हृदयाकाश के भीतर बुद्धिरूप गुहा का आश्रयण करके स्थित है। और जो आदित्य में परमानन्दस्वरूप पुरुष है, वह एक ही है ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥

ब्रह्म सत्य है, ज्ञानस्वरूप है और अनन्त है। यह सत्यादि शब्द परार्थ होने से परस्पर सम्बद्धि नहीं है। सत्य यानी जो पदार्थ जिस रूप से निश्चित है, उस रूप से त्रिकाल में भी व्यभिचरित न हो। वही सत्यशब्दवाच्य होता है। सत्य ही कारण होता है,
कार्य अनित्य होता है। जैसे घटादि कार्य अनित्य है, मृत्तिका कारण होनेसे नित्य सत्य है।

'वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्'। ब्रह्म को सत्य कारणरूप स्वीकार करने पर उसमें मृद्वत् अचिद्रूपता-जड़ता न आ जाय, अतः श्रुति ज्ञानं ब्रह्म कहती है अर्थात् ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है।
ज्ञान कहने पर जडता की शंका तो निवृत्त हो जाती है, किन्तु ज्ञानं ब्रह्म कहने पर ब्रह्म को अन्तबच प्राप्त होता है, क्योंकि लौकिक सभी ज्ञान अन्तवत् ही देखे जाते हैं, तन्निवृत्यर्थ श्रुति अनन्त कहती है ।

तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकोशः सम्भूतः ।
आकाशाद्वायुः । वायोरभिः । अनेरापः ।
श्रद्धयःपृथिवी।

जिस ब्रह्म को पहले 'ब्रह्मविदाप्नोति' परं' इस वाक्य से सूत्रित किया है,उसी का विस्तार से निर्णय करने के लिए ग्रंथ आरम्भ करते हैं 'तस्मादित्यादि। आत्मशब्द का वाच्य ब्रह्म हैं 'आत्मा हि तत्सर्वस्य' 'तत्सत्यं स आत्मा' इत्यादि श्रुतियों से वह ब्रह्म ही सबकी आत्मा है।
अतः 'तस्मादेतस्मादब्रह्मणः आत्मस्वरूपादाकाशः' ब्रह्मात्मस्वरूप से आकाश उत्पन्न हुआ आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी
पृथ्वी से औषधियां, औषधियों से अन्न, अन्न से पुरुष, वही यह अन्नरसमय पुरुष है।
यदा हृयेवेष निरुक्ते निलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते॥
एतस्मिन्नदृश्येज्नाम्येऽ-
जिस काल में ही दृश्य होती है। साधक, अदृश्य अधिकारी, विकारी वस्तु ब्रह्म अविकारी होने से अदृश्य है, एवं अनात्म्य – अशरीर, लोकदृष्टि से शरीर को ही आत्मा कहते हैं, किन्तु आत्मा अशरीरी है अतः अनात्म्य है।
अनात्म्य होने से भी अदृश्य है। तथा अनात्म्य होने से अनिरुक्त है, विशेष का ही निरूपण होता है, आत्मा गुण, जात्यादि धर्मों से रहित होने से निर्विशेष है, अतः अनिरुक्त है। और अनिलयन–निलय- नीड अथवा आश्रय, जिसका आश्रय नहीं है, वह अनिलयन है।
ब्रह्म सबका आश्रय है, किन्तु स्वयं निराश्रय है। वह सबका कारण है, किन्तु उसका कोई कारण नहीं है । जो सबका आश्रय और सबका कारण होता है, वह स्वयं निराश्रय और अकारण होता है। तात्पर्य यह कि अदृश्य, अनात्म्य, अनिरुक्त और अनिलयन इस लक्षणलक्षित ब्रह्म में जब आत्मभाव से स्थित होता है,
तब अभय हो जाता है।

भीषाऽस्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूर्यः ।
भीषा स्माद मिश्चेन्द्रश्च । मृत्युर्धावति पञ्चमः।।
ब्रह्म परमात्मा के भय से ही वायु चलता है, इसी के भय से ठीक समय पर सूर्य उदित होता है। एवं इसी के भय से अग्नि, इन्द्र और मृत्यु दौड़ते रहते हैं।
आनन्दं कुतश्चन। ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति
स्वगत सजातीय विजातीय भेद रहित अद्वय आनन्दस्वरूप का ज्ञाता विद्वान् कभी किसी से भय नहीं करता।

असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत ।
तदात्मानं स्वयमकुरुत । तस्मात्तत्सुकृतमुच्यते इति ।
यद्वैतत् सुकृतं रसो वै सः । रस ह्य वायं लब्ध्वाऽऽ- नन्दी भवति । को ह्यवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ॥

असत् शब्द का अर्थ है जिनके नाम रूप व्यक्त हो गये हैं उनसे विपरीत रूप वाला अव्योकृत ब्रह्म।
उस असत्शब्द- वाच्य ब्रह्म ने स्वयं अपने को रचा 'यस्मादेवं तस्मात्त्रह्मैव सुकृतं इसलिए ब्रह्म ही सुकृत है। वह जो सुकृत है वह रस ही है। रस का अर्थ तृप्ति का हेतु आनन्दकर पदार्थ लोक में प्रसिद्ध ही है। रस को प्राप्त करके ही प्राणो आनन्दित होता है। बाह्य साधनरहित होने पर भी
निरीह एपणारहित विद्वान् बाह्य रसलाभ से आनन्द के समान ही आनन्द युक्त देखे जाते हैं।
-
वह परमानन्द स्वरूप ब्रह्म यदि आकाश – परमाकाश हृदय रूपी गुद्दाकाश में नहीं होता, तो कौन व्यक्ति प्राणन, अपानन क्रिया करता। तात्पर्य यह कि जडपिण्ड शरीर में प्राणन-अपानन क्रिया हो रही है,
अतः ब्रह्म की सत्ता अवश्य है, यह इत्यभ्यासः जानना चाहिए ।

यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
अपूर्वता सविकल्प वस्तुओं का प्रकाश करने में

समर्थ वाक् का प्रयोग प्रयोक्ताओं द्वारा निर्विकल्प अद्वैत ब्रह्म का निर्देश करने में किया जाता है, किन्तु उसको प्रकाश किये बिना ही
लौट आती है—
'अप्राप्य मनसा सह' । मनःशब्द विज्ञान का वाचक है। जहाँ विज्ञान होता है, वहाँ वाणी की प्रवृत्ति होती है अर्थात् मन और वाणी साथ ही प्रवृत्त होते हैं। परन्तु ब्रह्म को मन सहित वाणी

सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विप
श्चितेति ॥
ब्रह्मभूत विद्वान् ब्रह्मस्वरूप से ही समस्त कामनाओं को भोगता है।

यदा ह्य वैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते अथ
तस्य भयं भवति।
साधक जिस काल में 'आत्मैवेदं सर्वम्, ऐसा जानता है, उस काल में अभय हो जाता है— ऐसा पहले कहा गया है, किन्तु जिस काल में आत्मा में अविद्यु से किञ्चित् 'अरम्'
अल्पमात्र भी भेद देखता है, तब होता है ।

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन
जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्वि
जिज्ञासस्व | तद्ब्रह्म ॥
जिससे यह अचर चर जीव उत्पन्न होते हैं, तथा उत्पन्न होकर जीते हैं, और मलय काल में सभी जीव जिसमें प्रवेश कर जाते हैं, उसी को जानो;
वही ब्रह्म है ।

तत्सृष्ट्वा तदेनुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य
सच्च त्यच्चाभवत् । निरुक्तं चानिरुक्तं च निलयं
चानिलयं च विज्ञानञ्चाविज्ञानं च सत्यं चानृतं च
सत्यमभवत् यदिदं किञ्च ॥

यह जो कुछ दृश्य जगत् है, इसे रच कर स्वरचित
जगत् में अनुप्रपिष्ट हो गया।
प्रवेश करके सत्-मूर्त त्यच माने अमूर्त, निरुक्त अनिरुक्त एवं निलयन तथा अनिलयन भी वही हो गया। विज्ञान चेतन अविज्ञान अचेतन-जड़ और व्यवहारिक सत्य एवं अनृत मृगतृष्णादिभी वही बना तात्पर्य यह कि जो कुछ जगत् है वह सब पर ब्रह्म का स्वरूप ही है।

तन्मेः मनः शिवसंकल्पस्तु 🙏
नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव 🙏

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