28.7.1928 के दिन,उन्होंने बंबई विधान परिषद में स्त्रियों के लिए प्रसूति से जुड़े पहलुओं से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण विधेयक पेश किया गया था।उसका जोरदार समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि यह देश हित में है कि मां को बच्चे के जन्म के दौरान आराम मिले,सरकारी और निजी,दोनों
क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले तमाम कारखाने,खदान या ऐसे सभी उपक्रम जहां भारी संख्या में स्त्रियां मजदूरी करती है और जो खतरनाक है और जिनमें काम करना उनके लिए जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है,यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे इस खर्च का वहन
करें,क्योंकि स्त्री श्रमिकों को तभी काम पर रखते हैं, जब उन्हें इससे ज्यादा फायदा होता है।इस विधेयक का मुख्य आधार अन्य सुविधाओं के साथ ही महिला श्रमिकों के लिए वेतन समेत छुट्टियों का प्रावधान था।आंबेडकर ने ब्रिटेन सरकार से इस विधेयक को
केवल बंबई विधान परिषद क्षेत्र तक सीमित न रख कर देश भर में लागू किए जाने की अपील की। जबकि भारतीय सामाजिक परंपरा में अछूतों और स्त्रियों के लिए अपने श्रम के एवज में किसी सहूलियत की उम्मीद करना लगभग #अपराध माना जाता था।
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ग्रिस का इतिहासकार ग्रोट के अनुसार संवैधानिक नैतिकता मतलब संवैधानिक सिद्धांतो के प्रति सर्वोत्तम सन्मान रखकर कानून(भारत का संविधान) के निश्चित दायरे में रहकर
काम करनेवाले नागरिक,सरकार के आदेशो का पालन करते हुए,उनको खुद की राय और कार्य को स्वतंत्रता से अभीव्यक्त करना चाहिए और जनता
से संबंधित लिए हुए निर्णय से संबंधित सत्ताधारीयों पर संयमीत टिप्पणी करना चाहिए,ये करते हुए अलग अलग दलो में सत्तास्पर्धा होना स्वाभाविक है,फिर भी संविधानिक सिद्धांतो के प्रति सन्मान हमारा इतना ही विरोधी दलो के मन में है ऐसा भरोसा
भारत का संविधान का अनुच्छेद 25 में सभी वर्गों के भारत के नागरिकों को उनके धर्म का पालन एवं प्रचार प्रसार की स्वतंत्रता दी गई है और विषय को मौलिक अधिकारों में रख न्यायालय को संरक्षक बनाया गया है।
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न्यायालय के पास किसी भी विशेषत: मौलिक अधिकारों के विषय पर स्वतः संज्ञान का विशेषाधिकार भी है।
पर प्रशासन के सुस्त आचरण पर न्यायालय द्वारा संज्ञान न लेना दुर्भाग्यपूर्ण है।
न्यायालय को चाहिए कि अनुच्छेद 25 पर व्याख्या जारी करें।ताकि ब्राह्मणवादियों द्वारा दुष्प्रचार पर रोक लगे।
सीख जैन बौद्ध धर्म के मानने वालो के बीच ब्राह्मणवादियों द्वारा पत्रकारिता की आड़ में अधिक वातावरण अशांत करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।
पंजाब,मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश,जम्मू कश्मीर,हिमाचल प्रदेशराजस्थान हरियाणा जैसे राज्यों में अधिक आतंक है।
डॉ.अंबेडकर जानते थे कि वे जिस वर्ग के लिए संघर्ष कर रहे हैं।वह सामाजिक,आर्थिक,शैक्षिक और राजनीतिक,सब तरह से कमजोर है।उस स्थिति से लड़ना और जीतना कोई आसान काम नहीं।यह चौतरफा लड़ाई थी,जिसमें एक ओर ताकतवर हिंदू(ब्राह्मणवाद) धर्म-रक्षक भी थे।
लंबी चली लड़ाई में डॉ.अंबेडकर ने कई आंदोलन किए।मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर उन्होंने 1927-30 के बीच अछूतों के साथ नाशिक के काला राम मंदिर,पूना के पार्वती और अमरावती के अंबादेवी मंदिर में प्रवेश किया,जहां उन्हें हिंसा का भी सामना करना पड़ा।
1929 में येऊला के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि निम्नवर्णों को हिंदू धर्म में अत्याचार सहते रहने की कोई आवश्यकता नहीं,वे चाहें तो किसी भी धर्म में प्रवेश कर सकते हैं।इसी के बाद बारह महारों (अछूत) ने हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपना लिया।
कमजोर सामाजिक तबकों की स्त्रियों की स्थिति बदलने का संघर्ष डॉ.अंबेडकर के लिए एक महायुद्ध था,जिससे वे एक योद्धा की तरह लड़े। उनका संघर्ष देश के उस तबके के लिए था जो सम्मान और न्याय के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा था।
डॉ.अंबेडकर को वंचितों और स्त्रियों के लिए हर उस स्थिति से लड़ना था जो उनके हालात के लिए जिम्मेदार थी।उन्होंने समय-समय पर ऐसे कई आंदोलन किए,जिन्होंने हिंदू धर्म की जड़ों पर चोट की।
25.12.1927 को उन्होंने महाड (महाराष्ट्र) में मनुस्मृति को जलाया था,जिसे ' हिंदू धार्मिक संविधान माना जाता रहा और जो पिछड़ों और स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार था।उस वक्त यह ऐसा 'शॉक ट्रीटमेंट' साबित हुआ जिससे हिंदुत्व की जड़ें हिल गई और
चार साल बाद कानूनमंत्री के रूप में डॉ.अंबेडकर ने एक बार फिर हिंदू कोड बिल को संसद में रखा, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गई जब यह बिल भारी मतों से पराजित हो गया।हिंदू कोड बिल का पराजित होना आंबेडकर की निगाह में उनकी निजी हार थी।
स्त्री अधिकारों के प्रति वे कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस हार के बाद उन्होंने 27.11.1951 को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। तब से आज तक इस बिल को कई टुकड़ों में पारित किया गया,
लेकिन एक तरह से देखें तो 2006 में बने घरेलू हिंसा कानून ने उनके सपने को पूरा किया।