डॉ.अंबेडकर को वायसराय की काउंसिल में 20.7.1942 को बतौर श्रम - सदस्य शामिल किया गया। वहां अपने चार साल (1942-46) के कार्यकाल में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कानून बनाए और कई पुराने कानूनों में बदलाव किए। यह उन्हीं की देन है कि भारतीय श्रम कानून का स्वरूप न
केवल बदला,बल्कि कहीं ज्यादा #मानवीय हुआ और महिला श्रमिकों के लिए विशेष सुविधाएं लागू की गईं। #कारखानों और #खदानों में काम के घंटे घटाकर फिर से निर्धारित किए गए। स्त्री और पुरुष श्रमिकों के लिए समान वेतन के अधिकार का भी प्रावधान किया गया।
छोटे बच्चों के लिए काम की जगह के आसपास ही पालनाघर बनाए गए। #स्वास्थ्य और #जीवन बीमा की शुरुआत की गई, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम बनाया गया। आज देश भर में जो #कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अस्पताल चलाए जा रहे हैं, इस नीति को भी आंबेडकर ने ही मूर्त रूप दिया था।
निश्चित तौर पर उनका योगदान #श्रम कानून के क्षेत्र में बहुत व्यापक और सराहनीय था। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उस समय #पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाए जा रहे कारखानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं थी और वह आंबेडकर के प्रयासों से ही संभव हो सकी। यों भी,पानी का अधिकार
#अछूतों के लिए हमेशा ही संघर्ष का कारण रहा। खुद आबेडकर इस दर्द के साथ ही जन्में और इस समस्या का सामना किया।
ग्रिस का इतिहासकार ग्रोट के अनुसार संवैधानिक नैतिकता मतलब संवैधानिक सिद्धांतो के प्रति सर्वोत्तम सन्मान रखकर कानून(भारत का संविधान) के निश्चित दायरे में रहकर
काम करनेवाले नागरिक,सरकार के आदेशो का पालन करते हुए,उनको खुद की राय और कार्य को स्वतंत्रता से अभीव्यक्त करना चाहिए और जनता
से संबंधित लिए हुए निर्णय से संबंधित सत्ताधारीयों पर संयमीत टिप्पणी करना चाहिए,ये करते हुए अलग अलग दलो में सत्तास्पर्धा होना स्वाभाविक है,फिर भी संविधानिक सिद्धांतो के प्रति सन्मान हमारा इतना ही विरोधी दलो के मन में है ऐसा भरोसा
भारत का संविधान का अनुच्छेद 25 में सभी वर्गों के भारत के नागरिकों को उनके धर्म का पालन एवं प्रचार प्रसार की स्वतंत्रता दी गई है और विषय को मौलिक अधिकारों में रख न्यायालय को संरक्षक बनाया गया है।
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न्यायालय के पास किसी भी विशेषत: मौलिक अधिकारों के विषय पर स्वतः संज्ञान का विशेषाधिकार भी है।
पर प्रशासन के सुस्त आचरण पर न्यायालय द्वारा संज्ञान न लेना दुर्भाग्यपूर्ण है।
न्यायालय को चाहिए कि अनुच्छेद 25 पर व्याख्या जारी करें।ताकि ब्राह्मणवादियों द्वारा दुष्प्रचार पर रोक लगे।
सीख जैन बौद्ध धर्म के मानने वालो के बीच ब्राह्मणवादियों द्वारा पत्रकारिता की आड़ में अधिक वातावरण अशांत करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।
पंजाब,मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश,जम्मू कश्मीर,हिमाचल प्रदेशराजस्थान हरियाणा जैसे राज्यों में अधिक आतंक है।
डॉ.अंबेडकर जानते थे कि वे जिस वर्ग के लिए संघर्ष कर रहे हैं।वह सामाजिक,आर्थिक,शैक्षिक और राजनीतिक,सब तरह से कमजोर है।उस स्थिति से लड़ना और जीतना कोई आसान काम नहीं।यह चौतरफा लड़ाई थी,जिसमें एक ओर ताकतवर हिंदू(ब्राह्मणवाद) धर्म-रक्षक भी थे।
लंबी चली लड़ाई में डॉ.अंबेडकर ने कई आंदोलन किए।मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर उन्होंने 1927-30 के बीच अछूतों के साथ नाशिक के काला राम मंदिर,पूना के पार्वती और अमरावती के अंबादेवी मंदिर में प्रवेश किया,जहां उन्हें हिंसा का भी सामना करना पड़ा।
1929 में येऊला के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि निम्नवर्णों को हिंदू धर्म में अत्याचार सहते रहने की कोई आवश्यकता नहीं,वे चाहें तो किसी भी धर्म में प्रवेश कर सकते हैं।इसी के बाद बारह महारों (अछूत) ने हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपना लिया।
कमजोर सामाजिक तबकों की स्त्रियों की स्थिति बदलने का संघर्ष डॉ.अंबेडकर के लिए एक महायुद्ध था,जिससे वे एक योद्धा की तरह लड़े। उनका संघर्ष देश के उस तबके के लिए था जो सम्मान और न्याय के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा था।
डॉ.अंबेडकर को वंचितों और स्त्रियों के लिए हर उस स्थिति से लड़ना था जो उनके हालात के लिए जिम्मेदार थी।उन्होंने समय-समय पर ऐसे कई आंदोलन किए,जिन्होंने हिंदू धर्म की जड़ों पर चोट की।
25.12.1927 को उन्होंने महाड (महाराष्ट्र) में मनुस्मृति को जलाया था,जिसे ' हिंदू धार्मिक संविधान माना जाता रहा और जो पिछड़ों और स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार था।उस वक्त यह ऐसा 'शॉक ट्रीटमेंट' साबित हुआ जिससे हिंदुत्व की जड़ें हिल गई और
चार साल बाद कानूनमंत्री के रूप में डॉ.अंबेडकर ने एक बार फिर हिंदू कोड बिल को संसद में रखा, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गई जब यह बिल भारी मतों से पराजित हो गया।हिंदू कोड बिल का पराजित होना आंबेडकर की निगाह में उनकी निजी हार थी।
स्त्री अधिकारों के प्रति वे कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस हार के बाद उन्होंने 27.11.1951 को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। तब से आज तक इस बिल को कई टुकड़ों में पारित किया गया,
लेकिन एक तरह से देखें तो 2006 में बने घरेलू हिंसा कानून ने उनके सपने को पूरा किया।