मनुष्य देह अत्यंत दुर्लभ है। इसके अभाव में पूर्णत्व भगवद् मिलन नहीं हो सकता । 84 लाख योनि भेदन के बाद यह दुर्लभ देह प्राप्त होती है। प्रत्येक जीव में चिद् अंश आत्मरूप अचिद् अंश देहरूप में विद्यमान रहता है।
क्रम विकास के मार्ग में देह विकास के साथ-साथ आत्मा का भी विकास संगठित होता है। उपनिषद् इस विकास को अन्नमय कोष से प्राणमय कोष का विकास कहते हैं। प्रत्येक कोष में असंख्य जटिलताएं होती है प्राणमय कोष का विकास होने पर मन का पूर्वाभास स्फुरित होने लगता है।
मनोमय कोष का विकास 84 लाख योनि भेदन करने के बाद ही संपादित होता है।जिस देह में मनोमय कोष का विकास हुआ है वही मनुष्य देह है।84 लाख योनि का भेदन करते-करते अन्नमय कोष व प्राणमय कोष का विकास सम्पन्न हो जाता है। अन्य समस्त जीव देहों में मन विकसित नहीं होता इसलिए उनकी उन्नति नहीं होती।
दिव्य जीवन की प्राप्ति अध्यात्म के बगैर असम्भव है, अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी और अंतिम सीढ़ी दीक्षा है।दीक्षा के बगैर आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत हो ही नहीं सकती। दीक्षा के द्वारा ही पशुत्व समाप्त होता है इसके बगैर पाप,अशुद्धि व पशुत्व का नाश हो ही नहीं सकता, अदीक्षित की देह अशुद्ध है
और अशुद्ध देह से देवार्चन नहीं हो सकता है। अखण्ड परम तत्व ही जगत का सार हैं और उनसे ही अनंत ज्ञान स्त्रोत प्रवाहित होते रहते हैं और हर धारा में उनकी ही विशिष्ट शक्ति प्रवाहित होती रहती है एवं जब यह विशिष्ट शक्ति गुरु अपने शिष्य में संचारित करते हैं तब वह गुरुपद को प्राप्त करता है
इस प्रकार आदि गुरु से वर्तमान काल पर्यंत तक गुरु शक्ति की धारा सूक्ष्म अणु प्रवाह द्वारा चलती रहती है। गुरु कृपा तथा परमेश्वर की विशिष्ट शक्ति के संयोजन से दुर्लभ योग युक्त अवस्था भी शिष्य में आती है।वैसे दीक्षाओं के चार भेद हैं पहली मंत्र विचार द्वारा दीक्षा
इसमें साधक के तीन जन्म का विचार करके उसे विशेष मंत्र के साथ विशेष दीक्षा दी जाती है। जो कर्म कुशल होते हैं उन्हें क्रिया योग दीक्षा दी जाती है। तृतीय दीक्षा बीजोद्वार दीक्षा, यह विशेष प्रकार के साधकों को दी जाती है। चतुर्थ दीक्षा साक्षात्कारात्मक दीक्षा है, यह अत्यंत तीव्र
यह अत्यंत तीव्र शक्तिपात दीक्षा है, साधारण साधक इस दीक्षा के तेज को सहन नहीं कर सकते। कर्म शक्ति की महिमा अनंत है बिना कर्म के ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। कर्म शक्ति और ज्ञान शक्ति का मिलन होने पर भाव शक्ति का प्रस्फुटन स्वमेव होने लगता है,
भाव शक्ति ही पूर्ण शक्ति है।कर्म शक्ति स्थूलरूपिणी है,ज्ञानसूक्ष्म रूपा है जब स्थूल और सूक्ष्म का परस्पर एकीकरण हो जाता है तब अव्यक्तता आदि शक्ति की अभिज्ञता महसूस होने लगती है।भावगत अवस्था में ही चैतन्य देह की प्राप्त होती है मात्र ज्ञान की प्राप्ति से शरीर चैतन्य नहीं हो सकता।
इस देह में मात्र ज्ञान के द्वारा अमृत्व का संचार नहीं हो सकता, यह संचार होता है मन के द्वारा मन का साधनाओं के द्वारा अमन हो जाना तथा देह, प्राण और मन में एक तारतम्य होना यह सब आदि शक्ति के द्वारा ही सम्भव है।कर्म, ज्ञान तथा भाव इनमें से एक की भी उपेक्षा करके अन्य
की प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती।कर्म प्राथमिक सोपान है। सेवा के द्वारा,उद्यम के द्वारा, कर्म शक्ति का प्रसाद प्राप्त हो सकता है। सेवा धर्म का मर्म अति गहन है,इससे बढ़कर साधना नहीं है पर इसका मर्म योगीगण भी सम्यक रीति से नहीं जानते यह कार्य देखने में अत्यंत सरल है तथापि अति कठिन है
सेवा कार्य में कर्म शक्ति, ज्ञान शक्ति और भाव शक्ति इन तीनों का एकत्रीकरण हो जाता है। सेवाकार्य में ज्ञान, कर्म और भाव एक बिन्दु में हो जाते हैं ये बिन्दु ही मिलन बिन्दु है। इस मिलन बिन्दु में ही महाभाव स्फुरित होता है। सेवा कार्य महाभाव को प्रत्यक्ष कराता है।
कर्म का स्थल है देह, ज्ञान का स्थल है आज्ञा चक्र और भाव का स्थल है अनाहत परन्तु महाभाव सहस्त्रार से भी अतीत है। महाभाव की स्थिति में त्रिकोण की स्थिति नहीं रह जाती वह चक्राकार हो जाती है यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
महाभाव की स्थिति में ही महाआनंद प्रकट होता है, यही महाआनंद महारास है। कर्म शक्ति, ज्ञान शक्ति, भाव शक्ति के एकीकरण होने पर ही महाभाव अवस्था आती है यही सिद्धावस्था है। सिद्धाश्रम और सिद्ध देह ये एक दूसरे के पर्याय हैं यह सिद्ध देह ही षोडशी विद्या या जिसे श्री विद्या कहते हैं
उनकी कृपा से ही प्राप्त होती है। दस महाविद्याओं में पहली तीन काली, तारा, षोडशी ये सर्व प्रधान विद्याएं हैं मूल एक से ही तीन होती है। सर्वमूलभूत एक ही विद्या श्री विद्या है। इसी को ब्रहा विद्या, ब्रह्ममयी भी कहते हैं। काली और तारा का मूलविद्या षोडशी से क्या सम्बन्ध है ?
और ये एक से तीन कैसे हुई ? इसका फिर कभी विस्तार से वर्णन करूंगा। आत्म शक्ति ही षोडशी हैं। आत्म शक्ति के प्रकट हुये बिना सिद्धता, सिद्धियाँ, सिद्ध देह यह सम्भव नहीं है।
जगत में सब कुछ परिवर्तनशील परिणामी है यह कालशक्ति जनित क्रिया है, महाशक्ति तथा कालशक्ति इस जगत में
क्रियाशील है, इस जगत में सब कुछ काल के अधीन है। साधना का अर्थ है काल का अतिक्रमण या उससे मुक्ति कालजय के लिये शक्ति साधना का प्रचलन अधिक है। इसके लिये षोडशी शक्ति का ज्ञान अति आवश्यक है। षोडशी की प्राप्ति का अर्थ है काल राज्य से मुक्ति, जब शक्ति राज्य में प्रवेश हो जाती है
तब शक्ति के साथ शिव का नित्य सानिध्य रहता है, यही कामेश्वर व कामेश्वरी कहे जाते हैं। ये महात्रिकोण के मध्य में विराजित रहते हैं परन्तु षोडशी नित्या होने पर भी साक्षात् जगदम्बा हैं। षोडशी काल द्वारा बाधित नहीं होती, जिस देह में षोडशी कला का उपादान स्थित है वह देह अमृत स्वरूप है,
उस देह में षोडशी कला पूर्ण प्रकाशित हो जाती है। षोडशी काल का शोषण करती हैं, यह अखण्ड कुमारी तत्व है जिससे विश्व प्रवर्तित हो रहा है पर उसका कुमारीत्व यथावत् है ।
वैकुंठ लोक एक ग्रह है जहां इस ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाले भगवान विष्णु निवास करते हैं।
वैकुंठ धाम भक्तों के लिए अंतिम यात्रा पड़ाव है। सभी उच्च कोटि की पुण्यात्माओं को वैकुंठ धाम में रहने का अवसर मिलता है।
वैकुंठ लोक मकर राशि की दिशा में सत्यलोक से 2 करोड़ 62 लाख योजन ऊपर स्थित है।
यह वैकुंठ धाम ना तो सूर्य से और ना ही चंद्र से प्रकाशित होता है। इसकी देखभाल करने के लिए भगवान के 96 करोड़ पार्षद तैनात हैं। सभी पार्षद भगवान की तरह ही चतुर्भुज आकार में रहते हैं।
इस परमधाम में प्रवेश करने से पहले जीवात्मा विरजा नदी में स्नान करता है और चतुर्भुज रुप प्राप्त करता है।
इस वैकुंठ धाम में श्रीविष्णु श्रीदेवी, भूदेवी, नीला देवी और महालक्ष्मी के साथ निवास करते हैं।
एक बार महान भक्त नारद भगवान विष्णु के पास गए और उनसे माया (महान भ्रम) का अर्थ पूछा। जवाब में विष्णु ने कहा, "मेरी प्यास बुझ जाने के बाद मैं समझाऊंगा। मुझे थोड़ा पानी लाओ।"
नारद जी जल के लिए नदी पर गए। लेकिन जब वह पानी भर रहा था तो उसे एक सुंदर कन्या दिखाई दी।
वह उसके प्रति इतना आकर्षित हुआ कि वह उसके पीछे उसके गाँव चला गया और उसके पिता से शादी के लिए उसका हाथ माँगा। उसके पिता राजी हो गए और दोनों ने शादी कर ली। समय बीतता गया, नारद पिता बने, फिर दादा, फिर परदादा। नारद प्रसन्न हुए। एक दिन अचानक बहुत तेज बारिश हुई। बारिश थमी नहीं।
नदी में उफान आया और उसके किनारे टूट गए। नारद के घर में पानी घुस गया और उनकी पत्नी, बच्चे, पोते और परपोते सभी डूब गए। जब पानी ने उसे नीचे खींचा तो वह चिल्लाया और मदद के लिए पुकारा। अचानक उन्हें राहत मिली और उन्होंने खुद को विष्णु के सामने वैकुंठ (विष्णु का निवास) में पाया।
।।वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में अन्तर।।
सर्वप्रथम दोनों ग्रन्थों को लिखने की भावना में ही बहुत अन्तर है। ऋषि वाल्मीकि ने जहाँ मूलकथा को एक अवतार के रूप में बताने का प्रयत्न किया है, वहीं तुलसीदास ने श्रीराम की भक्ति में ग्रन्थ लिखा है।
वाल्मीकि के राम देवताओं के हित के लिए विष्णु के अवतार हैं परन्तु तुलसीदास के राम स्वयं सर्वशक्तिशाली, अनादि, अनन्त ईश्वर हैं।स्वयंभुव मनु-शतरूपा तपस्या से राम को प्रसन्न कर उन्हें पुत्र रूप में पाने का वरदान माँगते हैं। यहाँ कहीं-कहीं सीता को लक्ष्मी से भी महान दर्शाया गया है।
दूसरा अन्तर जो सभी जानते हैं, वह भाषा का है। रामायण कई शताब्दियों तक संस्कृत में पढ़ी-सुनी जाती रही, उसका अनुवाद दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं में तो हुआ था परन्तु उत्तर भारत में नहीं। ऐसे में जब सम्पूर्ण भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार हो रहा था, धर्मांतरण का बोलबाला था
परशुराम जी श्री विष्णु के छठे अवतार हैं। उनका जन्म भृगु ऋषि के कुल में हुआ था।वे ऋषि जमदग्नि और रेणुका के पुत्र थे।उनके पिता ब्राह्मण तथा माता क्षत्रिय थीं। वे पांच भाइयों में सबसे छोटे थे।
उन्होंने वेदों का ज्ञान अपने पिता जी से अर्जित किया था।
अस्त्र शस्त्र की शिक्षा उन्होंने स्वयं महादेव से प्राप्त की थी। महादेव ने ही उन्हें फरसा प्रदान किया था। परशुराम जी को पुराणों में चिरंजीवी बताया गया है।परशुराम जी द्वारा अपनी माता का वध -
एक दिन माता रेणुका स्नान करके लौट रही थीं।
उन्हें रास्ते में चित्ररथ गंधर्व अपनी पत्नी के साथ क्रीड़ा करते दिख गया जिससे उनका मन विचलित हो उठा। जब वह अपने कुटिया में पहुंची, तो उनके हाव - भाव को ऋषि जमदग्नि ने परख लिया और उनकी निंदा की।उन्होंने अपने चारों पुत्रों को एक एक करके रेणुका का वध कर देने का आदेश दिया।
भगवान राम से शबरी बोली, यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो हे राम! तुम यहाँ कहाँ से आते ?
राम गंभीर हुए और कहा कि "भ्रम में न पड़ो माते!
राम क्या केवल रावण का वध करने यहां आया है...?
अरे रावण का वध तो मेरा अनुज लक्ष्मण भी कर सकता था।
राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है माते, ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे।
तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।
जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं। यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।
राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय
बहुत समय पहले की बात है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ मे निर्णायक थी- मंडन मिश्र की धर्म पत्नी देवी भारती। हार-जीत का निर्णय होना बाक़ी था,
इसी बीच देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिये बाहर जाना पड़ गया।लेकिन जाने से पहले देवी भारती ने दोनो ही विद्वानो के गले मे एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, ये दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मे आपके हार और जीत का फैसला करेगी।
यह कहकर देवी भारती वहाँ से चली गई। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।
कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना कार्य पुरा करके लौट आई। उन्होने अपनी निर्णायक नजरो से शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया।