जानिए लोटा और गिलास के पानी में अंतर
- कभी भी गिलास में पानी ना पियें...
भारत में हजारों साल की पानी पीने की जो सभ्यता है वो गिलास नही है, ये गिलास जो है विदेशी है. गिलास भारत का नही है. गिलास यूरोप से आया. और यूरोप में पुर्तगाल से आया था.
ये पुर्तगाली जबसे भारत देश में घुसे थे तब से गिलास में हम फंस गये. गिलास अपना नही है. अपना लौटा है. और लोटा कभी भी एकरेखीय नही होता. तो वागभट्ट जी कहते हैं कि जो बर्तन एकरेखीय हैं उनका त्याग कीजिये. वो काम के नही हैं. इसलिए गिलास का पानी पीना अच्छा नही माना जाता.
लोटे का पानी पीना अच्छा माना जाता है.
हम इस पोस्ट में हम गिलास और लोटा के पानी पर चर्चा करेंगे और दोनों में अंतर बताएँगे...
फर्क सीधा सा ये है कि आपको तो सबको पता ही है कि पानी को जहाँ धारण किया जाए, उसमे वैसे ही गुण उसमें आते है. पानी के अपने कोई गुण नहीं हैं.
जिसमें डाल दो उसी के गुण आ जाते हैं. दही में मिला दो तो छाछ बन गया, तो वो दही के गुण ले लेगा. दूध में मिलाया तो दूध का गुण.
लोटे में पानी अगर रखा तो बर्तन का गुण आयेगा. अब लोटा गोल है तो वो उसी का गुण धारण कर लेगा. और अगर थोडा भी गणित आप समझते हैं तो हर गोल चीज का
सरफेस टेंशन कम रहता है. क्योंकि सरफेस एरिया कम होता है तो सरफेस टेंशन कम होगा. तो सरफेस टेंशन कम हैं तो हर उस चीज का सरफेस टेंशन कम होगा. और स्वास्थ्य की दष्टि से कम सरफेस टेंशन वाली चीज ही आपके लिए लाभदायक है.अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाली चीज आप पियेंगे तो बहुत
तकलीफ देने वाला है. क्योंकि उसमें शरीर को तकलीफ देने वाला एक्स्ट्रा प्रेशर आता है.
- गिलास और लोटा के पानी में अंतर...
गिलास के पानी और लोटे के पानी में जमीं आसमान का अंतर है. इसी तरह कुंए का पानी, कुंआ गोल है इसलिए सबसे अच्छा है. आपने थोड़े समय पहले देखा होगा कि
सभी साधू संत कुए का ही पानी पीते है. न मिले तो प्यास सहन कर जाते हैं, जहाँ मिलेगा वहीं पीयेंगे. वो कुंए का पानी इसीलिए पीते है क्यूंकि कुआ गोल है, और उसका सरफेस एरिया कम है. सरफेस टेंशन कम है. और साधू संत अपने साथ जो केतली की तरह पानी पीने के लिए रखते है वो भी लोटे की
तरह ही आकार वाली होती है. जो नीचे चित्र में दिखाई गई है.
सरफेस टेंशन कम होने से पानी का एक गुण लम्बे समय तक जीवित रहता है. पानी का सबसे बड़ा गुण है सफाई करना. अब वो गुण कैसे काम करता है वो आपको बताते है. आपकी बड़ी आंत है और छोटी आंत है, आप जानते हैं कि उसमें मेम्ब्रेन है
और कचरा उसी में जाके फंसता है. पेट की सफाई के लिए इसको बाहर लाना पड़ता है. ये तभी संभव है जब कम सरफेस टेंशन वाला पानी आप पी रहे हो. अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पानी है तो ये कचरा बाहर नही आएगा, मेम्ब्रेन में ही फंसा रह जाता है.
- दूसरे तरीके से समझें...
आप एक एक्सपेरिमेंट कीजिये. थोडा सा दूध ले और उसे चेहरे पे लगाइए, 5 मिनट बाद रुई से पोंछिये. तो वो रुई काली हो जाएगी. स्किन के अन्दर का कचरा और गन्दगी बाहर आ जाएगी. इसे दूध बाहर लेकर आया. अब आप पूछेंगे कि दूध कैसे बाहर लाया तो आप को बता दें कि दूध का सरफेस टेंशन सभी
वस्तुओं से कम है. तो जैसे ही दूध चेहरे पर लगाया, दूध ने चेहरे के सरफेस टेंशन को कम कर दिया क्योंकि जब किसी वस्तु को दूसरी वस्तु के सम्पर्क में लाते है तो वो दूसरी वस्तु के गुण ले लेता है.
इस एक्सपेरिमेंट में दूध ने स्किन का सरफेस टेंशन कम किया और त्वचा थोड़ी सी खुल गयी.
और त्वचा खुली तो अंदर का कचरा बाहर निकल गया. यही क्रिया लोटे का पानी पेट में करता है. आपने पेट में पानी डाला तो बड़ी आंत और छोटी आंत का सरफेस टेंशन कम हुआ और वो खुल गयी और खुली तो सारा कचरा उसमें से बाहर आ गया. जिससे आपकी आंत बिल्कुल साफ़ हो गई. अब इसके विपरीत अगर आप गिलास
का हाई सरफेस टेंशन का पानी पीयेंगे तो आंते सिकुडेंगी क्यूंकि तनाव बढेगा. तनाव बढते समय चीज सिकुड़ती है और तनाव कम होते समय चीज खुलती है. अब तनाव बढेगा तो सारा कचरा अंदर जमा हो जायेगा और वो ही कचरा भगन्दर, बवासीर, मुल्व्याद जैसी सेंकडो पेट की बीमारियाँ उत्पन्न करेगा.
इसलिए कम सरफेस टेंशन वाला ही पानी पीना चाहिए. इसलिए लौटे का पानी पीना सबसे अच्छा माना जाता है, गोल कुए का पानी है तो बहुत अच्छा है. गोल तालाब का पानी, पोखर अगर खोल हो तो उसका पानी बहुत अच्छा. नदियों के पानी से कुंए का पानी अधिक अच्छा होता है.
क्योंकि नदी में गोल कुछ भी नही है वो सिर्फ लम्बी है, उसमे पानी का फ्लो होता रहता है. नदी का पानी हाई सरफेस टेंशन वाला होता है और नदी से भी ज्यादा ख़राब पानी समुन्द्र का होता है उसका सरफेस टेंशन सबसे अधिक होता है.
अगर प्रकृति में देखेंगे तो बारिश का पानी गोल होकर धरती पर आता है.
मतलब सभी बूंदे गोल होती है क्यूंकि उसका सरफेस टेंशन बहुत कम होता है. तो गिलास की बजाय पानी लौटे में पीयें. तो लोटे ही घर में लायें. गिलास का प्रयोग बंद कर दें. जब से आपने लोटे को छोड़ा है तब से भारत में लौटे बनाने वाले कारीगरों की रोजी रोटी ख़त्म हो गयी.
गाँव गाँव में कसेरे कम हो गये, वो पीतल और कांसे के लौटे बनाते थे. सब इस गिलास के चक्कर में भूखे मर गये. तो #वागभट्ट जी की बात मानिये और लोटे वापिस लाइए।
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एकता ओर भाईचारे की कुवैत में एक मिसाल पेश करते हुए रतलाम के *मुल्ला मोहम्मद भाई कागदी।*
अमूमन ऐसा देखा गया है कि जो भी गल्फ कंट्री जाता है उसका मकसद सिर्फ पैसा कमाना होता है लेकिन आज आपको एक ऐसे शख्स के बारे में बताने जा रहा हूं जो कुवैत में है और इनका मकसद सर्वप्रथम इंसानी
सेवाभाव ही रहा है ये वो शख्सियत है जिसने विदेश में रेहकर जितना पैसा कमाने को महत्व नही दिया उतना अपने भारतवंशियों की जो कुवैत में है उनकी हर मदद को दिया है, ये सदैव अपनी तत्परता से काम करते हुए लोगो को राहत दे रहे है।
मुस्लिम वर्ग के लोगो की वहा मृत्यु होने पर कोई विशेष परेशानी नही होती लेकिन कोई हिन्दू समाज से हो तो आप सोच सकते है कितनी विकट परिस्थितिया उत्पन्न हो जाती है क्योंकि मुस्लिम रूल के हिसाब से वहां दाहसंस्कार नही किया जा सकता या तो लाश को दफनाना होता है या फिर अपने वतन ले जाने
इंसानी शरीर की उँगलियों में लकीरें तब बनने लगती हैं जब इंसान माँ के गर्भ में 4 माह तक पहुँचता है।
ये लकीरें एक रेडियोएक्टिव लहर की सूरत में मांस पर बनना शुरू होती हैं इन लहरों को भी आकार DNA देता है।
मगर हैरत की बात ये है कि पड़ने वाली लकीरें किसी सूरत में भी पूर्वजों और धरती पे रहने वाले इंसानों से मेल नहीं खातीं।
यानी लकीरें बनाने वाला इस तरह से समायोजन रखता है कि वो खरबों की तादाद में इंसान जो इस दुनियाँ में हैं और जो दुनियाँ में नहीं रहे उनकी उँगलियों में मौजूद
लकीरों की शेप और उनके एक एक डिजाइन से अच्छे से परिचित है।
यही वजह है कि वो हर बार एक नए अंदाज का डिजाइन उसके उँगलियों पर बनाकर के ये साबित करता है...
है कोई मुझ जैसा निर्माता?
है कोई मुझ जैसा कारीगर ?
है कोई मुझ जैसा आर्टिस्ट ?
है कोई मुझ जैसा कलाकार ?
Proof that the makers of the film Kerala Story consciously and knowingly faked big time when they quoted a figure of 32000 conversions. Not an error of omission but commission.
As per the Census of 2011, Kerala has a population of 28 lac females in the age band of 20 to 30.
As per the same census we also know Hindus comprise 55% of the states population. That makes it 15.5 lac Hindu girls in the 20-30 age band in the state.
As per census 2001 avg size of family in Kerala was 5 (2001 as the girls r all 20 plus).
This means that the total universe of Hindu families with girls between 20 and 30 in 2001 was 3.1 lacs. 32k conversions means every tenth Hindu family has had a case of a daughter being forced to convert!
ओढ़ कर कफ़न पड़े मजार देखते रहे
पिछले दिनों एकायक एक पोस्ट कई तरह से खूब चलन में आई. इसका भावार्थ यह था कि उत्तराखण्ड गढ़वाल के पर्वतीय इलाको में दूरस्थ वन क्षेत्रो के भीतर बे तहाशा मज़ार बनाये जा रहे हैं. और ऐसा वन भूमि को कब्ज़ा करने के लिए किया जा रहा है.
इन मजारों पर धूप दीप नियमित किया जा रहा है.
यह प्रथम दृष्टया एक चौंकाने वाली सूचना है. लेकिन किसी नें भी इन " असंख्य " मजारों का चित्र नहीं भेजा, जो आजकल सबसे पहले खींचा जाता है.
जो व्यक्ति अफवाह बाज़ हिंदुत्व वादी संगठनों की कार्य पद्धति न समझता हो, वह दंग रह
जायेगा कि गढ़वाल के पहाड़ो में, जहां मुस्लिम आबादी एक फीसदी भी नहीं होगी, ये मज़ार और क़ब्र की बाढ़ कहां से आ गई ? क्या सारे भारत के मुसलमान उत्तराखण्ड को देव भूमि स्वीकार कर अपने मुर्दे यहाँ गाड़ने ला रहे हैं?
अथवा ये किसी जिन्नात के मज़ार हैं?
Whether Kerala Story, Kashmir Files or Gandhi, films 'based on' or 'inspired by' historical events are always, repeat always propaganda. If the film-makers were so keen on delving into these subjects they should have made balanced documentaries,
not fictional films based on real life events.
Composition of history is always subjective, involving, as it does, a stringing-together of events and giving them an interpretation. The events that are included or excluded as well as the final interpretation represent the
historian's bias. Which is why the Indian and Pakistani take on Muslim rule in the sub continent are totally at variance. Both are propaganda.
Lers not discuss Kashmir Files and Kerala Story as they r recent and contentious. Let's take Gandhi, a film most swear by.
हम इतने बेवकूफ नही…..
एक दिन एक मित्र दो नारियल खरीद कर घर जा रहा था। एक बड़ा नारियल घर मे चटनी बनाने के लिए और एक छोटा नारियल ऊपरवाले पर चढ़ाने के लिए।
आपने भी देखा होगा धर्म स्थलों के बाहर कभी अच्छे और बड़े नारियल नही मिलते। यही हाल देसी घी का है। खाने के लिए अलग और
ऊपरवाले का दिया जलाने के लिए अलग।
मुझे याद नही बचपन मे कभी मां ने दिवाली पर दिए जलाने के लिए अलग तेल मंगाया हो। खाने वाले सरसों तेल से ही दिए जलाए जाते थे। मुझे कुछ साल पहले ही पता लगा कि दिए जलाने के लिए अलग तेल होता है।
6 साल पहले मुम्बई की मशहूर हाजी अली दरगाह पर गया।
लोगों ने बताया कि यहां चादर चढ़ाने का रिवाज है। इससे सवाब मिलता है। यहां 70 रुपये में चादर मिल जाती है। मैंने सोचा 70 रुपये में ढंग का तौलिया नही मिलता और यहां चादर मिल रही है। सवाब जब इतने सस्ते में मिल रहा हो तो कौन नही लूटना चाहेगा।