"निशा बिटिया, जल्दी कर, देर हो रही है।आज दूर जाना है बिटिया, वहां आज ज्यादा कमाई की आस है।"
"हां बापू, आ रही हूं।रस्सी, डंडा, मटकी, रिंग, पहिया सब उठा लिया है ना माई !!"
"हां गुड़िया रानी, उठा लिया है।"
"आज तो बहुत दूर आ गए है हम,
पर बापू यहां तो बड़ी बड़ी मंजिले
बनी है, लोग दिख नही रहे कौन देखेगा हमारा खेल?"
अरे बिटिया, तू शुरू तो कर लोग आ ही जाते है।"
"ठीक है बापू"
"आइए आइए आइए देखिए... तो लड़की तू क्या करेगी?"
"मैं रस्सी में चढ़ूँगी।"
"पक्का चढ़ेगी?"
"हां चढ़ूंगी।"
"चढ़ के क्या करेगी?"
"चलूंगी ।"
"अच्छा बेटा इस रस्सी पे चल
पाएगी?"
"हां हां चलूंगी।"
"तो दिखा अपना दम और चलो छम छमा छम"
रस्सी पर चलते चलते पहिया पैर में आ गयाऔर इसे देखने लोगों का हुजूम भी आ गया।सिर पर चार चार मटकियां रखके डंडे के सहारे वो ऐसी चाल चल रही थी कि सब देखकर हैरान हो रहें थे।उनको देखकर 6 साल की निशा
मन ही मन इतरा रही थी और सोच रही थी इनके लिए ये सब इतना आश्चर्य क्यों है। जबकि उसने तो होश संभालते ही इसी पर चलना सीखा है।फिर वहां खड़े बच्चो को इतने सुंदर कपड़े पहने देख उसे भी आश्चर्य हो रहा था।और उसे समझ आ रहा था जो हमारे पास नही होता दूसरो के पास होता है तो आश्चर्य होना
स्वाभाविक है।सबने जोर से तालियां बजाईं और निशा होश में आई।
और वहां मिले पैसे बापू को देते बोली, " अब तो नई कॉपी और पेन आ जाएंगे ना।"
बापू ने सिर पर हाथ रखते कहा, "हां बेटा अब तू परीक्षा की तैयारी कर।अब परीक्षा तक तू घर में ही रहना और अच्छे से पढ़ना।"
निशा खुशी खुशी सब सामान समेटने लगी।
जय शिव शम्भू
ऐसे पता नही कितने बच्चे हैं, जो पढ़ने की ललक लेकर जीते हैं, पर साधन नही मिलते। अगर हो सके तो अपने आसपास के किसी ऐसे बच्चे के सपनों को थोड़ा सहारा दे सको, तो जरूर देना।
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कहने को तो मेरा और ताई जी का सास बहू वाला रिश्ता था, पर दुल्हन कहते हुए जैसे वो मुझसे लाड़ करती मै उनकी कायल हो जाती |शुरू शुरू मे तायाजी से डर लगता, बड़े पक्के थे जात बिरादरी के, मन मे संशय था, पंजाबी लड़की कैसे इन यूपी वालो का दिल जीतेगी |पर सबने इतना प्यार दिया
की लगता ही नहीं था, वो बहू है इस घर की |बेटियों जैसे रखते थे |नहीं तो पहले वो हमेशा नितिन से कहती "हम पंजाबी के पत्थर का घाव भी इतना गहरा नहीं होता जितना तुम यूपी वाले फूल मार कर कर देते हो |उसका कहने का अर्थ यही होता तुम लोग प्यार प्यार से ताने दे कर सब कसर पूरी कर लेते हो |
लेकिन उसके सब पूर्वाग्रह दूर हो गए थे |
ससुराल लखनऊ मे था, नितिन घर के बड़े बेटे, जब भी ससुराल जाना होता थोड़ी दूर पर तायाजी का घर था |तायाजी का बेटा भी दिल्ली मे सेटल हो गया था, बेटी कानपुर ब्याही थी |दोनों पति पत्नी हंस के जोड़े की तरह लगते, कई बार उनका प्यार देख कर मै कह देती
सामने वाले घर से सास की डांटने की तेज और बहू की रोने आवाज आ रही थी । मैं समझ गई कि फिर बहू को किसी गलती पर डांट पड़ रही है ।आज भी बहू को भूखा रहना पड़ सकता है।
सास सुसुर सर्विस में थे । माॅ, बेटे को अपने साथ खाना खिला दूकान भेज दिया करती थी और
बहू का खाना निकाल कर घर का सारा काम बता दिया करती थी।
दोपहर के समय बहू चाय पीने इच्छा से मेरे यहां आने लगी और एक दिन भूखे रहने पर रोते हुए अपने दर्द को बताया। मैंने तुरन्त भोजन कराया। उसके इस प्रकार सब बताने पर अक्सर चाय के समय मैं उसे चाय नाश्ता करा दिया करती थी ।
मैं डरती भी थी कि उसके घर वाले को मालूम होने पर बहू से और बुरा व्यवहार व हमारे पड़ोसी सम्बन्ध खराब न हो जाये पर उसकी दयनीय अवस्था मुझे देखी न जाती थी इसलिए एक प्रकार से उसके घर वालों की चोरी छुपे उसे खिला दिया करती थी।
आज की आती आवाज से मेरा पूरा ध्यान
रात आधे सफर पर थी! सबलोग गहरी नींद में! चैत का महीना..पत्ते भी ठहरे थे..न हवा न बिजली!
बड़ा सा ओसारा जान था पूरे घर की। रात हुई नहीं कि सबके बिस्तर लग जाते। घर के छोटे बच्चे जिधर जगह मिलती ,उधर ही लुढ़क जाते।
भले हवा न चलती पर चांद की छांव तो मि
लती थी।
सतरह जनों का भरा- पूरा
परिवार! ऊपर भी दो कमरे और रसोई थी। कोई आ जाता तो वहीं कमरे दिए जाते रहने के लिए।
चोरी -चकारी का डर न था तब! किसकी हिम्मत जो इतने जनों के बीच चोरी कर लेता।
पर उस रात.. हड़हड़ ... भड़भड़ से सबकी नींद यकायक खुलने लगी!
कुछ अधमुंदी आंखों से घुप्प अंधेरे में देखने की कोशिश कर रहे थे..
आवाजों से लगा, कोई पिट रहा था!
घपाघप जैसे कुछ चुभ रहा हो ..बीच - बीच में किसी स्त्री के चिंघारने की आवाज आती तो किसी पुरुष के बिलबिलाने की!
बाबूजी ने पास रखी टार्च जलाई! भौंचक रह गए!
सामने सीढ़ियों के पास बडकी पतोहु सींक वाले झाड़ू से किसी को भरपेट कूट रही थी। ऐसी
बेटी लघुकथा
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दिव्य विदा होकर चली गई,सुषमा को अभी भी विश्वास नही हो रहा था। दिन भर मानो घर मे रौनक ही दिव्या से ही थी ।
कभी लड़ना, कभी बाहें गले मे डाल कर लटक जाना, कभी बाजार साथ, उनकी बेस्ट फ्रेंड थी दिव्या----
पूरा घर सांय सांय कर रहा था। यूं तो घर मे
बेटा मोहित, बहू शिल्पा, नन्हा पोता सब थे, पर दिव्या-----😢
फिर से उनकी आंखें भरने लगी थीं।करवट बदल कर लेटी ही थीं, की एक तेज आवाज सुनाई दी, ओफ्फो मम्मी! कितनी देर सोती रहेंगी? मुझे कॉलेज निकलने में देर हो रही है।
इतनी तेज आवाज!!! शिल्पा तो नही हो सकती। दिव्या!!!
वो हड़बड़ा कर उठीं---
संभाल कर!, अरे ये क्या उनके सामने शिल्पा थी।
अचानक उनके मुँह से निकला, कैसे बोल रही हो शिल्पा? क्या बिल्कुल ही भूल गई कि किससे बात कर रही हो? थोड़ा तमीज----
पर शिल्पा ने बीच मे ही बात काट कर कहा,
किससे कर रही हूँ पता है---, मम्मी से---
सुअर की औलाद
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नेताजी ने उस बड़ी बनने वाली टाउनशिप में प्लाट लेकर शानदार कोठी बनवाई थी, तीन मंजिला, भव्य, आलीशान----और हर बड़ी टाउनशिप की तरह, यहां भी बस ही गई थी कामगारों और मजदूरों की बस्ती, एक काफी बड़े एरिया में---
रिक्शेवाले, खोमचेवाले, लोहे के कारीगर, बढई,
अपराधी हर किस्म के लोग, कीचड़, और कच्चे रास्तों के बीच बने, अधपक्के--,दारिद्र्य को दिखाते, उस आलीशान टाउनशिप में एक बदनुमा दाग सी बस्ती।
नेताजी जब अपने गुर्गों के साथ, छत पर घूमने पहुंचे,तो पीछे की गंदी बस्ती का दृश्य देख उबल ही पड़े--,दुर्गंध से बजबजाती नालियों में, सुअर मुँह
मार रहे थे, और चारो ओर फैल थे गंदी बस्ती के मलिन से लोग---'सुअर की औलादें', यहां भी गंदगी फैलाने आ गए---क्रोधावेश में उनका मुँह लाल था।
आज आक्रोशित, उस बस्ती के लोग अपनी दुर्दशा सुनाने , नेताजी के बंगले पर हाजिर थे। गार्ड के रोकने पर भी जबरदस्ती भीड़ अंदर थी।
आज एक बहुत पुरानी बात याद आ गई अपने जेठ की, जो उन्होंने किन्ही हल्के फुल्के क्षणों में कही थी और हम सभी हंस दिए थे।
मेरे पति के पास इंफोर्मेशन्स ज्यादा हैं और मेरे पास नॉलेज, बात आई गई हो गई। पर बाद में मैंने
अनेक अवसरों पर महसूस किया कि शायद उनकी बात सत्य थी। दुनिया का कोई ऐसा विषय , कोई ऐसा टॉपिक न था जिसकी जानकारी उनके पास न होती। बात करने से पहले सोचना पड़ता था कहीं मैं मूर्ख न सिद्ध हो जाऊं।
सुबह से ही जब मैं अपने काम मे लगी होती, उनके पास कोई न कोई होता , जिस को वो
किसी न किसी विषय पर बता रहे होते वो विषय राजनीति से लेकर विश्व का कोई भी विषय हो सकता था, साड़ी के प्रिंट भी मधुबनी है या कितने ग्राम की सिल्क की साड़ी है।
अब आज की दुनिया देखती हूँ तो लगता है पतिदेव जैसे व्यक्तियों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है।
इतने ज्ञानी, इतनी तरह