जो समाज अपनी बहन-बेटियों के साथ हुई नृशंसता की चर्चा पीड़िताओं की संख्या देखकर करता हो, ऐसे समाज को तेज़ाब में डूब मरना चाहिए। 32,000 हों 3,200 या 3, अगर एक हिन्दू लड़की के साथ भी इस तरह का अमानवीय कृत्य हुआ है तो फिल्म बनेगी। ये जो आँकड़ों.. #TheKeralaStory
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..के खेल में फँसाकर इस कुकृत्य को कालीन के नीचे सरकाने का प्रयास हो रहा है, उसे किसी स्तर पर सफल नहीं होने दिया जाएगा।
इसपर मैं पहले दिन से लिखना चाह रहा था। आखिर क्यों #TheKeralaStoryMovie को लेकर पीड़िताओं की संख्या पर बहस हो रही है? क्या केवल इतना जानना..
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..पर्याप्त नहीं कि कुछ लड़कियों/बच्चियों के साथ इस तरह का जघन्य घिनोना कृत्य किया गया? 32 हज़ार हों या 32, इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या यह समस्त हिन्दू महिलाओं के लिए एक सीख, एक उदाहरण नहीं बनना चाहिए कि उन्हें अपने आस पास कितना और किनसे सचेत रहने की आवश्यकता है?
2012 के..
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..दिल्ली दुष्कर्म मामले में निर्भया एकमात्र पीड़िता थी, तो क्या इससे उस शर्मनाक घटना की नृशंसता कम हो जाती है? क्या उन सभी छः दरिंदों की सज़ा कम हो जानी चाहिए थी? क्या देश के हर व्यक्ति को निर्भया की पीड़ा और इस मामले की जघन्यता का बोध नहीं होना चाहिए? क्या इस..
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..मामले के विषय में पढ़, सुन या देख कर एक समाज के रूप में हम सब के सिर शर्म से नहीं झुक जाने चाहिए?
क्या उस मामले पर भी वेब सीरीज़ नहीं बननी चाहिए थी, या नहीं बनी?
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उसी प्रकार नम्बी नारायणन हों या सरबजीत सिंह, इन सभी पीड़ितों के मामले में हम एक समाज या एक राष्ट्र के स्तर पर कहीं न कहीं हारे हैं। इसी कारण इनकी कहानियाँ समाज और आने वाली पीढ़ियों तक को पता लगनी आवश्यक हैं और ऐसी तमाम कहानियों पर फिल्म, डॉक्यूमेंट्री, सीरीज़ बननी चाहिए।
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अब आते हैं इन 2 मुद्दों पर कि क्या #TheKeralaStoryMovie में आँकड़ा बढ़ाया गया और क्या फिल्म एक विशेष मज़हब को निशाना बनाती है?
उससे पहले याद करिए वर्ष 2019 में आई फिल्म आर्टिकल-15 को। यह फिल्म वर्ष 2014 में हुई बदायूँ रेप की निर्मम घटना पर आधारित थी और बननी बहुत..
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..महत्वपूर्ण भी थी, बनी भी। परन्तु उसमें लगाया गया राजनीति और एजेंडा का तड़का। सब जानते हैं की वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में किस पार्टी की सरकार थी, और ये रहे बदायूँ रेप मामले के आरोपितों के नाम।
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अब जिन लोगों ने वह फिल्म देखी है वे जानते होंगे कि कैसे फिल्म पूर्णतः जातिगत भेदभाव पर आधारित थी पर मुख्य आरोपितों के नाम उपनाम दूर दूर तक फिल्म में नहीं थे, जानबूझकर नए नाम उपनाम गढ़े गए। 'महंत जी' नाम का पात्र फिल्म में क्यों और किसपर निशाना साधने को डाला गया यह समझने..
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..के लिए भी किसी को विद्वान होने की आवश्यकता नहीं। तत्कालीन सरकार और पार्टी की विचारधारा को कितना और कैसे दिखाया गया यह भी फिल्म देखने वाले जानते होंगे।
उसी तरह सीट के आपसी विवाद में की गई हत्या में गौमांस एंगल डालकर साम्प्रदायिक बनाए गए जुनैद मामले को सेक्रेड गेम्स नामक..
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..बॉलीवुडिया कचरे और पाताललोक नामक प्रोपोगेंडा सीरीज़ में इस प्रकार दर्शाया गया था कि मानो देश का बहुसंख्यक समुदाय रक्तपिपासु है और देश में दंगा-फसाद करने को आतुर बैठा है।
यह केवल एक उदाहरण है, ऐसे न जाने कितने लेख-ट्वीट-थ्रेड लिखे जा चुके हैं जिनमें यह साफ़ हो गया है कि..
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..आर्टिस्टिक फ्रीडम के नाम पर बॉलीवुड दशकों से केवल वैचारिक विष्ठा और हिन्दूघृणा परोसता आ रहा है। परन्तु इन्हें समस्या तब हो जाती है जब कश्मीरी हिन्दुओं की कहानी बताती एक फिल्म आती है। इनका मौखिक बवासीर तब फटता है और ये तब प्रोपोगेंडा-प्रोपोगेंडा चिंघाड़ते हैं जब केरल..
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..की लड़कियों की पीड़ा परदे पर दिखाई जाती है।
मेरा मानना है कि ये लोग कश्मीर फाइल्स और केरल स्टोरी जैसी फिल्में बनाने वालों से न तो किसी प्रकार के स्पष्टीकरण माँगने की औकात रखते हैं और न ही ये किसी भी ऐसी फिल्म पर ‘प्रोपोगेंडा’ शब्द का प्रयोग करने के भी योग्य हैं।
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अंत में बस यह जान लीजिए कि अहमदाबाद, बैंगलोर से लेकर जर्मनी तक के किराए के टट्टू भले ही मरते दम तक अपनी देह के किसी भी अंग का ज़ोर लगाते रहें, परन्तु जैसे केरल की उन 32,000 लड़कियों से लेकर कश्मीर के 5 लाख हिन्दुओं की कहानियाँ विश्व के सामने आई हैं, उसी..
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..प्रकार आगे भी सैकड़ों हज़ारों सुदीप्तो-विवेक-विपुल जन्म लेंगे जो भविष्य में तमिल नाडु-बंगाल-दिल्ली-मणिपुर, एक एक राज्य के एक एक पीड़ित की एक एक कहानी दिखाएँगे और जनता देखेगी।
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यह स्कूल-कॉलेज की अल्लहड़ आयु में चलायमान मस्तिष्कों में तथाकथित 'कूल एथीस्ट्सटों' द्वारा ठूँसा गया कुतर्क है। 'तुम्हारे राम ने क्या किया? तुम्हारा कृष्ण गोपियों से रासलीला करता है।'
कुतर्कों से कभी तर्क नहीं करना चाहिए, इनपर बिना डिफेंसिव हुए इतना वैचारिक आक्रमण हो कि..
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..ये स्वयं लज्जित होकर भाग जाएँ और पुनः किसी को इस तरह की बकवास में फँसाने से पूर्व दस बार सोचें।
यह एक बड़ा Grey Area है जिसे ये वामपंथी/इस्लामी अपने फायदे के अनुसार प्रयोग करते हैं। वो अलग बात है कि किसी इस्लामिक देश में Communism/Atheism की कोई जगह नहीं और किसी भी..
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..वामपंथी देश में इस्लाम का क्या हाल होता है यह दुनिया जानती है।
हर किसी ने अपने शुरुआती कॉलेज के दिनों या 17-18 की आयु में वामपंथ से परिचय के समय इस तरह की बातें खूब सुनीं होंगी कि भगवान की अवधारणा क्यों है? भगवान है तो दुनिया में इतनी समस्याएँ..
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अच्छी बात है कि सिंगल स्क्रीन्स मिली हैं। अभी BMS देखा, यह साफ़ है कि लोग टिकिट खरीद रहे हैं, देखने जा रहे हैं। यह फिल्म बड़े मल्टीप्लेक्स के साथ-साथ सिंगल स्क्रीन्स में चलनी अधिक महत्वपूर्ण है। 100-120 रुपए की टिकिट लेकर फिल्म देखने वाले आम लोगों तक कहानी.. #TheKerelaStory 1/9
..पहुँचनी चाहिए। निर्माता विपुल डिस्ट्रीब्यूशन के खेल को अच्छे से समझते हैं ऐसा मेरा अनुमान है। मैं काफी समय से बोलता/लिखता आ रहा हूँ कि सारा खेल डिस्ट्रीब्यूशन का ही है।
RW के पास पटकथाओं की कमी कभी नहीं होगी, जिन क्षेत्रों में पैर जमाने की आवश्यकता है वे हैं प्रोडक्शन..
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..हाउस और डिस्ट्रीब्यूशन। कश्मीर फाइल्स ने सिद्ध कर दिया कि हिन्दू अपनी पर आ जाए तो निर्माताओं को मालामाल कर सकता है।यह बहुत सकारात्मक चीज़ है।इससे निर्माताओं का साहस और विश्वास दोनों बढ़े हैं।
निर्माता भावुक नहीं हो सकता,ना ही होना चाहिए। उसका उद्देश्य पैसा कमाना है, अब यह..
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कल जब ये समाचार देखा,तभी सोचा था इसपर विस्तार से लिखना पड़ेगा। सबसे महत्वपूर्ण चीज़ यहाँ आपने लिख ही दी कि ये बकैती बच्चे की नहीं बल्कि माँ-बाप की है। अब प्रश्न यह है कि ये हो क्यों रहा है? केवल सोशल मीडिया पर थोड़ी सी सस्ती लोकप्रियता के लिए?
नहीं, समस्या इससे कहीं..
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..गंभीर है।
समझ नहीं आ रहा कहाँ से प्रारम्भ करूँ? इसीलिए वहीं से करता हूँ जिस क्षेत्र में मैं अपनी मज़बूत पकड़ मानता हूँ: सिनेमा(पॉप कल्चर)। मेरे विचार में सिनेमा ने इस समस्या की उत्पत्ति एवं इसे बढ़ावा देने में सबसे बड़ा योगदान दिया है। कई लोगों का मानना है कि..
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..ये समस्या केवल सोशल मीडिया/सस्ता इंटरनेट/टिक-टोक/रील के कारण आई है। मैं टेक्नोलॉजी का इस समस्या में केवल 10-20% योगदान मानता हूँ। इस चीज़ में सोशल मीडिया या इन एप्स ने केवल एक catalyst(स्रोत) का कार्य किया है। इसने लोगों को मूर्ख बनाया नहीं, अपितु उनके अंदर की दबी..
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NO
You've surrounded yourself with peopleजिनकी औकात तुमसे नीचे थी।तुम्हारा पति इसलिए नहीं दूर हटता क्योंकि वह फेमिनिस्ट या कोई अन्य'ist'है,वो कार्पेट इसलिए छोड़ता है क्योंकि उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि तुम उसकी पत्नी हो।देखा जाए तो वह अधिक insecure है।It's not about gender.. 1/6
..it's about gap in your professional level/औकात। तुम ऐसा करनेवाली एकमात्र मनुष्य नहीं हो जिसने अपने स्तर(कौशल के मामले में)से नीचे व्यक्ति को जीवनसाथी चुना। यह गलत भी नहीं है, समस्या यह है कि आप तुम इस चीज़ को भुना रही हो।
प्रेम स्तर देखकर नहीं किया जाता पर जब आप लोगों को..
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..मूर्ख समझकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि आपका पति आपको सामान्य से अधिक महत्व आपके स्तर के कारण नहीं बल्कि इसलिए दे रहा है क्योंकि वह freedom-feminism आदि का समर्थक है तो साफ़ होता है कि आपने धूर्तता की है प्रेम नहीं।एक पटल पर बैठकर यह कहने से ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने..
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You either die a hero or you live long enough to see yourself become the villain.
हर मैच समान पिच पर न खेला जाता है और न खेला जाना चाहिए। पठान के साथ यही भूल की गई। यहाँ भी बहुत से कुतर्क प्रस्तुत किए गए हैं, जिनपर कुछ लिखना चाहता हूँ। संभव है बहुत से लोग सहमत न हों
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आगे पढ़ने से पहले दो बातें जान लें कि मैंने भोला(अभी तक) नहीं देखी है,बहुत जल्द देखने वाला हूँ। दूसरी कि मुझे मांस का स्वाद तक नहीं पता है परन्तु मैं मांस ग्रहण करने का पूर्ण समर्थक हूँ।
1>नवरात्रि के समय मांस भक्षण न करना हिन्दुओं का अपना चुनाव होता है, मेरे ज्ञान अनुसार..
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ऐसा कहीं लिखा नहीं है।
वैसे तो हम जिस सभ्यता से आते हैं वहाँ क्या खाना ‘चाहिए’ क्या ‘नहीं’ इस पर कोई कठोर नियमावली नहीं है। ये पूर्णतः भूगोल और आपके पंथ पर निर्भर करता है। (गौमांस एकदम अलग विषय है, हो सका तो इसपर अलग से थ्रेड या वीडियो अवश्य बनाऊँगा।)
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सलमान रुश्दी की जगह सलमान खान का चित्र, संजय गाँधी की जगह राजीव गाँधी का। ऐसे उदाहरण लगभग हर दिन बड़ी-बड़ी मीडिया संस्थाओं में दिख जाते हैं। इनमें 10% ही confusion या जल्दबाज़ी में हुई गलतियाँ होती हैं, अधिकतर ये जानकारी के अभाव इत्यादि से हुई गलतियाँ हैं। कारण..⬇️
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मैं इसे जानकारी का अभाव इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे कई कथित मीडिया स्कूल, जर्नलिज्म स्कूलों की डिग्री वाले लोगों के साथ मेरा निजी अनुभव रहा है, जिन्हें अपने ही क्षेत्र की मूलभूत जानकारियाँ तक नहीं हैं और हिंदी/अंग्रेजी पत्रकारिता में डिग्रियाँ लिए बैठे हैं।
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भारत के मानचित्र पर उंगली रखकर 20 राज्य नहीं बता सकते, उत्तरपूर्व के सब राज्यों के नाम तक नहीं जानते, 10 भारतीय भाषाएँ नहीं बता सकते, PDP और TDP का अंतर नहीं पता, मल्लू और अल्लू में अंतर नहीं पता परन्तु केवल इसलिए सम्मान के अधिकारी हैं क्योंकि..
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