पैटर्न समझिये :
तारीख : 8 नवम्बर 2016
फैसला : नोटबंदी
प्लानिंग : शून्य। किसी मंत्री को छोड़िये RBI अधिकारीयों को भी जानकारी नहीं थी इस लिए वो ATM मशीनों में छोटे नये नोट निकालने का बंदोबस्त नहीं कर पाए।
नियत: भाजपा नेता की बेटी की एयरपोर्ट पर 2000 के नये नोटों की पैकेट वाली फोटो वाइरल हुईं (मतलब कुछ को पहले से खबर थी)।
भाजपा को फायदा : जय शाह की कम्पनी ने करोड़ों बनाये। रिलायंस जिओ में पैसा खपा और वो बढ़ गया। बाबा रामदेव के ट्रस्ट में अकूत चंदा आया जिन्होंने
भाजपा के लिए प्रचार किया। भाजपा का 700 करोड़ का हेडक्वाटर औरर लगभग हर जिले में आलीशान कार्यालय बन गया। भाजपा दुनियां की अमीर पार्टी बन गयी।
अर्थव्यवस्था : खुदरा व्यापार गिरा, रियल एस्टेट्स सेक्टर डूब गया, कई कम्पनियाँ कंगाल हो गयी, सूरत का कपड़ा उद्योग, बर्तन उद्योग,
चूड़ी -क्रॉकरी उद्योग एकदम डूब गए। कई कारोबारी देश छोड़ गए, देश का NPA 5 गुना बढ़ गया। 50 लाख नौकरियां गयीं। वर्ल्ड बैंक ने अर्थवयवस्था को सालों पीछे धकेलने का अनुमान दिया।
मीडिया वर्जन : मीडिया पूरे पैनिक के दौरान बताता रहा कि नये नोट में नेनो चिप लगा है।
आतंकवाद, काले धन, टेरर फंडिंग कम होने के फ़र्ज़ी लॉजिक जो बाद में पता चला कि सब कोरा झूठ थे। जनता को सिर्फ गुमराह किया गया।
तारीख : 25 मार्च 2020
फैसला : देशव्यापी लॉकडाउन
प्लानिंग : शून्य। देश के किसी राज्य के मुख्यमंत्री को छोड़िये ICMR या रेजिडेंट
डॉक्टर्स की एसोसिएशन, PPE किट या मास्क सेनिटाइजर बनाने वाली कंपनियों के संगठन से भी सलाह नहीं ली गयी कि हमारे पास कितने रिसोर्स हैँ। मजदूर संघो, रिक्शा संघ, टेक्सी यूनियन इत्यादि से प्रवासी मजदूर-कामगारों की जानकारी नहीं ली गयी।
नियत : लॉकडाउन से ठीक 1 हफ्ते पहले देश में 102 प्राइवेट फ्लाइट से अमीर लोग भारत आये। अमीरों की एयरपोर्ट पे ठीक से टेस्टिंग किये बिना आइसोलेशन की बजाय घर भेजा। मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के लिए लॉकडाउन को संसद बंदी के बाद लागू किया।
भाजपा को फायदा : नियम बदल के PMCare बना जिसमें हज़ारों करोड़ का चंदा आ गया जिसकी जाँच जो कैग भी नहीं कर सकता जिसकी जानकारी सिर्फ प्रधानमंत्री -वित्त व रक्षा मंत्री को होंगी। तो अगले चुनाव का बंदोबस्त हो गया ?
अर्थवयवस्था: टूरिस्ट इंडस्ट्री ख़त्म हो गयी, फ़ूड रिटेल ख़त्म, सिनेमा इंडस्ट्री बुरी तरह प्रभावित, मॉल्स -खुदरा व्यापार चौपट, रियल एस्टेस चौपट, देश की सप्लाई-चेन सिस्टम ध्वस्त हो गया, प्राइवेट हॉस्पिटल्स -लैब्स भी बर्बाद।
मजदूर पैदल घर गए जिसमें से कई मर गए, कई अभी भी रास्ते में हैँ, लोगो की जमा पूंजी खर्च होने के बाद Buying power ख़त्म होने से आगे भी अर्थवयवस्था गिरेगी। बेरोजगारी 30% जाने का अनुमान। हर क्षेत्र में लाखो नौकरियां जा चुकी और ये आने वाले महीनों में भी चलेगा।
मीडिया वर्जन : गौ मूत्र पार्टी, आवाज से इलाज, आयुर्वेद से इलाज दिखाया गया।शुरुआत के 18 दिन मीडिया दिल्ली मरकज और तबलीगी जमात को कोरोना का दोषी ठहरा रहा था। कोरोना बॉम्बर से लेकर कोरोना जिहाद पर शो कर दिए। अब मौलाना साद की खबर झूठी निकली। मीडिया बचें समय में पाकिस्तान की बदहाली,
नार्थ कोरिया के किम जोंग उन, और चीन की ख़बरें दिखाता है। अमेरिका, रूस और चीन में युद्ध करवाता है जो सब फ़र्ज़ी है।
जिस क्षेत्र का निर्णय उस क्षेत्र के विशेषज्ञों की राय के बिना लिया जाता है तो परिणाम उल्टे ही आने हैँ। और जब मीडिया कोई ऐसी खबर दिखाए जिसका आपके जीवन से सीधा असर
ना हो तो समझ लेना कि वो कोई ऐसी खबर छिपा रहा है जिसका सीधा असर आपकी जिंदगी पे है। एक आदमी की महान बनने और टीवी पे एकदम घोषणा करने की चाह में देश बहुत कुछ खो रहा है। लिखिए, बोलिये, लोगो को समझाइये.. #कालचक्र
LakshmiPratap Singh
2020TDTY
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अलार्मिंग
हत्यारा विकास !
वैली रांन ते सौ काम्म 🥹
सोचा चंडीगढ़ तक का सफऱ किया जाये, उठे और निकल पड़े लेकिन घर से चंद किमी चलते ही टोल प्लाजा पर स्वागत बैरियर ऐसे लगा था जैसे आजकल द्वार पर दूल्हे को रोकने के लिए सालियां रीबन बाँध देती है ।
नई नियमावली के अनुसार पहले जिन्हे टोल पर छुट थी वो समाप्त हो गई थी और सूची बहुत सिमित कर दी गई थी । क्योंकि हम तो अपनी गाडी से आते जाते नहीं तो फास्ट टैग भी नहीं था जिसके कारण डोगुना लगान देना पड़ा ।
कुल मिलाकर दिल्ली से चंडीगढ़ तक की यात्रा में लगभग 1500 तावान भरना पड़ा .
ये टोल टैक्स क्यों देना पड़ता है ? वसूली कम्पनियां इसका क्या हिसाब देती है ? जो टोल पहले दिल्ली से चंडीगढ़ तक केवल एक जगह थी वो छह जगह कैसे हो गई ? NH - 1 पर हम लगातार दिल्ली - वाघा जाते थे तो 40 और 60 रुपये टोल वसूला जाता था ( इस हिसाब से दो से तीन हजार हो सकता है )
व्यंग्य / एक महाभारत कथा और
महासमर में कौरवों का विनाश हो चुका था। कुरुक्षेत्र क्षत-विक्षत शवों से पटा था। विजय के पश्चात भी पांडुपुत्र अपने स्वजनों-परिजनों की मृत्यु के कारण अवसाद में डूबे हुए थे। पांडवों को सांत्वना देने के पश्चात कृष्ण सम्राट धृतराष्ट्र से मिलने जा पहुंचे।
पुत्र-वियोग में शोकाकुल धृतराष्ट्र उन्हें देखते ही आर्तनाद करने लगे। कृष्ण कुछ देर शांत होकर उन्हें देखते रहे। सम्राट का रुदन थमा तो कृष्ण ने उनका हाथ हाथ में लेकर कहा - 'इस महाविनाश का अनुमान तो आपको युद्ध के आरम्भ से ही था। मैंने ही नहीं, महामंत्री विदुर ने भी
आपको युद्ध के दुष्परिणामों की चेतावनी दी थी। अब इस विलाप का क्या अर्थ, कुरुनंदन ?'
धृष्टराष्ट्र ने कोई उत्तर देने की जगह उनसे सीधा प्रश्न कर डाला - 'माधव, युद्ध में मारे गए मेरे पुत्रों को क्या मुक्ति मिलेगी ?'
झींटीया: की कहानी का अंतिम भाग
बंधुओ, मैनें कहा था ना कि हममें से बहुतों नें ये कहानी अपने बड़ों से सुनी हुई है और कुछ नें तो इसका अगला भाग बता भी दिया
तो फिर चलिए, जिन्हें पता है, वे अपनी स्मृतियाँ ताजी कर लें और जिन्हें नहीं पता वे जान लें कि
एक मारवाड़ी बनिए के बच्चे को कैसे कहानियों के माध्यम से बचपन में ही समझदार बना दिया जाता है.
झींटीया नें 'नानी के मनें जाय आण दे, दही रोटियों खाय आण दे, मोटो ताजो होय आण दे, फेर तू मनें खा लीजे' ..... का झांसा देकर सभी जानवरों से स्वयं को बचाता हुआ नानी के घर पहुँच गया.
वहाँ सभी नें उसे खूब प्यार-दुलार दिया और एक महीने में दही-रोटी खा कर खूब मोटा ताजा हो गया.
लेकिन अब उसे घर की याद आनी लगी और नानी से वापस जाने की इच्छा बताई, लेकिन साथ ही आते समय जानवरों से हुई बात भी बताई और चिंता भी व्यक्त की.
एकज़िट पोल जाय भाड़ में ।
नतीजा तो पहले ही आ गया , उसने पहले अस्त्र फेंके , फिर शस्त्र फेंके , फिर कपड़े के बाहर जा कर चिल्लाने लगा - “इस युद्ध में हम कहीं नहीं थे , यह जंग तो उसकी थी ।” इशारा किया एक वर्गाकार काया की ओर ।
पदयात्री “रुका , उसकी दशा देखा , मुस्कुराया - मित्र ! युद्ध में नैतिकता से बड़ा कोई हथियार नहीं होता , वह तो तुम्हारे पास है ही नहीं । इतिहास पलट कर देखो ,तुमसे पहले इसी मुक़ाम पर पश्चिम का एक महान साम्रज्यवादी शासक भी तख़्त नशीं था , उसे भी ग़ुरूर था , अपने लूट की पूँजी पर ,
वो भी व्यापार कर्ता था , लालची ग़द्दारों का , जुनून था- सूरज नहीं डूबता था उसके साम्राज्य में । जुल्म और ज़्यादती जब बहुत बढ़ गई , एक फ़क़ीर उठा , अकेला तनहा , बांस के डंडे के सहारे चल पड़ा पगडण्डियों पर , गाँव गाँव , शहर शहर , जन जन तक ।
एक बेहतरीन समीक्षा....👏👏
इस फ़िल्म के बारे में सोच रहा हूँ। और हॉल से बाहर निकलते लोगों में जो नफ़रत और घृणा देख रहा हूँ, जो भद्दे जुमले सुन रहा हूँ, तो
पुरुषोत्तम अग्रवाल जी के उपन्यास "नाकोहस" की वो एक लाइन बार-बार मुझे कुरेद रही है ... "मन में बैठा दिये गए डर का जोड़ ग़ुस्से के किसी ख़ास पल के साथ बैठ जाए,
फिर मन में बैठे डर को हमले का रूप लेने में देर कितनी लगनी है?"
"#पता"
एक ही शहर के नवविवाहित दंपति ये...
नई नई शादी...
नए नए सुहाने दिन...
सब मस्त चल रहा था...
कि एक रोज;
पत्नी : मेरी सखी है एक...पूजा! शाम चाय पे बुलाया है हम दोनों को!
विवाह के बाद नवदंपति को चाय-नाश्ते को बुलाने की रीत थी गांवभर. पति महाशय तैयार हो गए...
"हाँ हाँ...क्यों नहीं?"
तदनुसार, शाम को अपना स्कूटर निकाला येड़े ने अन सीधे पहुँच गए उक्त पूजा के घर. चाय-नाश्ता, गप्पें-शप्पें हुयीं दोनों जोड़ों की और अपने घर आनेका रिटर्न इनविटेशन देके घर को लौटे दोनों...
नवे पति को अजीब सा कुछ फील हो रहा था...
पति के कंधे पर हाथ रखके बैठनेवाली नई नवेली पत्नी, आज ऐसे न बैठी थी. सारे रास्ते गुमसुम सी, बिना एक शब्द बोले बैठी रही वह. अपनी नवविवाहिता का ऐसा व्यवहार, अजीब लग रहा था पति को!
आशंकाओं से ग्रसित मन, नाना प्रकार की दुष्कल्पनाएँ करने लगता है!