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गोत्र परिचय
ब्राम्हण का एकादश परिचय ....

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1 गोत्र .....

गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है।
हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।
विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥
सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां
यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥
विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है।
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है।
सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है।

इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।
गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है।
गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए।
ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।।
2 -प्रवर .....

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें ।
अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें।
इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे l

प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।
प्रवर का एक और भी अर्थ है। ..

यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे।
अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है।
इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक।
यही परम्परा चली आती हैं। ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :
त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
पंचातिवृणीते॥ 8॥
3 -वेद .....

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने सभी के लाभ के लिए किया है , इनको सुनकर याद किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन,
अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं।
प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।
आसान शब्दो मे गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है।
वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए।
इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।
4 .उपवेद ....

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध ब्राम्हण को  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  ।
वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है।

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Apr 28
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