आरएसएस ने फैसला किया है कि कोरोना, महंगा हवाई जहाज खरीदने और सेंट्रल विस्टा के कारण मोदी की खराब हुई छवि को चमकाने के लिए वह जल्द ही मोर्चा संभालेगा।
संघ यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की खराब हुई छवि को लेकर भी चिंतित है। आरएसएस के पास इस बात की पुख्ता सूचना है कि योगी बाबा
से एक तरफ तो वे पिछड़ी जातियां नाराज हैं, जो भाजपा की कोर वोट बैंक रही हैं, तो दूसरी तरफ वे ब्राह्मण देवता भी गुस्सा हैं, जो भाजपा की पालकी ढोने को अपनी शान समझते हैं।
सो, आरएसएस ने ठान लिया है कि वह योगी और मोदी के चेहरे की कालिख को साफ करेगा, फिर उनका चमकता हुआ चेहरा जनता को
दिखाया जाएगा कि देखो, कैसा चमक रहा है।
उसने यह मान भी लिया है कि काले चेहरों में उसके द्वारा जो चमक पैदा की जाएगी, नकली चमक, उसे जनता भी असली चमक मान लेगी। यह सोच इस बात की प्रमाण है कि आरएसएस हम भारत के लोगों को निहायत की मूर्ख मानता है।
बहरहाल, यहां-वहां भटकने का प्रार्थी का कोई इरादा नहीं है, आज बात सिर्फ आरएसएस की मजबूरियों की, कि आखिर वह भाजपा को हर हाल में सत्ता में क्यों रखना चाहता है?
पहले आरएसएस की मजबूरी को इन दो उदाहरणों से समझें…।
1-उद्धव ठाकरे ने घोषणा कर दी कि महाराष्ट्र में सरकार का नेतृत्व तो शिवसेना ही करेगी, भाजपा को साथ आना हो तो आए, न आना हो तो न आए। तब मोहन भागवत मातोश्री गए, उद्धव ठाकरे ने उनसे दो घंटे तक इंतजार कराया, फिर तीन मिनट के लिए मिले और अपना स्टैंड साफ कर दिया कि सरकार का
नेतृत्व तो शिवसेना ही करेगी।
इससे पहले कभी कोई संघ प्रमुख मातोश्री नहीं गया था। बाल ठाकरे नागपुर को ठेंगे पर रखते थे, नागपुर मातोश्री को।
2- आरएसएस का कोई प्रमुख कभी बाल ठाकरे से तक नहीं मिला, लेकिन बंगाल चुनाव के लिए मिथुन चक्रवर्ती को भाजपा में शामिल कराने के लिए
भागवत मुंबई गए, मिथुन के घर गए और बाद में मिथुन चक्रवर्ती भाजपा में भी शामिल हुए।
ये दो उदाहरण बताते हैं कि अब संघ सत्ता में भाजपा को रखने के लिए बेचैन होने लगा है, तो क्यों?
प्रार्थी की समझ में इसके निम्नलिखित कारण आए हैं।
1-सत्ता होती है, तो संघ कार्य में गति आ जाती है। यानी, शाखाओं की संख्या बढ़ जाती है। शाखाओं में जाने वालों की संख्या बढ़ जाती है।
हालांकि ये संख्या बढ़ती इसलिए है कि हाफ से फुल हुए पेंट को पहनकर शाखा में जाने से अगर विधायक पर दवाब बनता है, मंत्री से कोई काम निकल जाता है,
किसी बेरोजगार को नौकरी मिल जाती है, व्यापारी को लोन मिल जाता है, सरकारी योजनाओं का फायदा मिलता है, तो चतुर आदमियों के लिए शाखा में जाना कोई घाटे का सौदा नहीं है। उनके लिए भी ये घाटे का सौदा नहीं है, जो पुलिस-प्रशासन की दलाली करना चाहते हैं।
2-जब सरकार होती है, तो जमीन के जिस टुकड़े की तरफ उंगली उठा दो, वह चाहे कितना भी महंगा हो, मिल जाता है, फिर उसमें चाहे अपना या अपने किसी संगठन का कार्यालय खोल दो, वह जगह किसी को किराए पर देकर कमाई करो, चाहे मकान बना लो, चाहे मंदिर बनाकर दो-चार स्वयंसेवकों के लिए कमाई का
पुख्ता इंतजाम कर दो।
3-जब सरकार होती है, तो आरएसएस के स्कूलों, कॉलेजों, कोचिंग में ज्यादा एडमिशन होने लगते हैं। लोगों को लगता है कि यहां पढ़ाएंगे, तो पाल्य को नौकरी मिल जाएगी, क्योंकि इनकी सरकार है।
4-जब सरकार होती है, तो स्वयंसेवक डंके की चोट पर दंगे कर सकते हैं और कानून में हिम्मत नहीं कि उनका बाल भी बांका कर दे, बल्कि कानून पीड़ित को उठाकर ही जेल में पटक देता है।
अब आरएसएस के सामने एक मजबूरी और पैदा हो गई है।
मोदी ने देश को गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, के भाड़ में झोंक दिया है, जिससे आरएसएस की छवि खराब हुई है, न कि मोदी या भाजपा की, क्योंकि मोदी की अपनी कोई छवि नहीं है, वे मीडिया द्वारा स्थापित ब्रांड हैं, जबकि भाजपा आरएसएस की दासी है।
सो, जो भी हो रहा है, उससे आरएसएस की छवि ध्वस्त हो गई है। अगर बीजेपी सत्ता से हटी तो आरएसएस का किला भरभराकर गिर जाएगा।
उर्वशी चार वर्ष तक पुरुरवा के साथ पत्नी की तरह रहकर एक दिन अंतर्धान हो गयी।
अब वह पुरुरवा से अधिक अपने मेमनों से प्यार करती थी। पुरुरवा उसके वियोग में पागल हो गया जंगल जंगल भटकने लगा। एक दिन रेगिस्तान में भटकते हुये एक पोखर में अपनी सखियों के साथ स्नान करती उर्वशी दिख गयी।
यह संवाद इसी पोखर के सन्निकट हुआ।
हे निष्ठुर, उर्वशी
क्या बातचीत के जरिये कोई रास्ता नहीं निकल सकता जिससे अपना जीवन पूर्व की तरह सुखमय हो जाये पुरुरवा ने उर्वशी से पूछा
निरर्थक बातचीत से क्या हासिल
मैं अब तुम्हारे लिये वायु की तरह दुर्लभ हूँ उर्वशी ने कहा
तुम्हारे बिना मैं बेकार हो गया
भुजाओं से बाण तक नहीं उठता
सब कुछ धूमिल है
भूल गया हूँ सिंह गर्जना
घर चलो, उर्वशी
हे, पुरुरवा
तुमने मुझे तीन बन्धनों में कसा है
मैं शरीर पर शासन करती थी
तुम्हारे जाने के बाद सब निस्तेज हो गया है
दूसरी अप्सराएं भी अब शोर मचाती नहीं आतीं
लाहौर के आकाश में तिरंगा धीरे धीरे ऊपर गया, और फिर खुलकर लहराने लगा। उपस्थित जनसमूह जोश में करतल ध्वनि कर रहा था। 1929 की सर्दियों की उस शाम, रावी के तट पर मौजूद हजारों आंखों में आजादी का सपना भर दिया गया था।
वहीं भीड़ में एक और नेहरू मौजूद था।
एक बूढ़ा नेहरू, जो कुछ दूर झंडा फहराते नेहरू का पिता था। और इस वक्त गर्व से दैदीप्यमान था। मोतीलाल का ये वह क्षण था, जिसे हर पिता अपने बच्चे के लिए चाहता तो है, मगर हासिल किस्मत वालों को होता है।
मोतीलाल किस्मत के धनी नही थे। अपने पिता की शक्ल नही देखी थी। बड़े भाई से सुना भर था, की गंगाधर नेहरू दिल्ली के शहर कोतवाल थे। 1857 के ग़दर में सब कुछ खोकर आगरे चले गए। वहीं प्राण त्याग दिए।
ये मेरी पोस्ट 26. मई.2019 की हैं मेरी ओल्ड आई.डी. लिखा था और मै आज भी कायम हूं ....इसपर....
EVM की जीत से जीतने वालों सुन लो...
कर्नाटक ? वाह हिटलरी सोच का जबाब नहीं।
अपार बहुमत मुझे न झांसा दे पाएगा और न धौंस। कभी कभी पूरा देश ही सन्निपात ग्रस्त हो जाता है।
1946 से 48 के बीच भी ऐसा ही हुआ था।
यीशु को सलीब पर टांग देते वक्त भी पूरा देश एकमत था। सुकरात को ज़हर दिये जाने के भी पक्ष में अपार जनमत था।था कि नहीं?
1948 में गांधी जब सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपना अंतिम उपवास कर रहे थे,तब भी भारी बहुमत की यह चाह थी कि गांधी को मर जाने दो।
यदि इस देश की 120 करोड़ में से एक सौ उन्नीस करोड़ निन्यानबे लाख निन्यानबे हज़ार नौ सौ निन्यानबे जनता भी सांप्रदायिक होकर आत्मघात करने पर आमादा हो जाए, तब भी मैं सत्य का धर्म नहीं छोडूंगा।
मैं पाकिस्तान जैसे धर्मांध राष्ट्र-राज्य की स्थिति में नहीं रहना चाहता।
अगला भारत रत्न माफीबीर को , कोई रोक सके तो रोक। एक बार अटल ने देना चाहा , एक दलित राष्ट्रपति ने संविधान का मान रखा । क्या एक आदिवासी राष्ट्रपति इसको रोक पायेंगी ? उसी दिन तय हो जायेगा कि लोकतंत्र की सांस चल रही है कि स्वर्गवासी हो गयी। धीरे धीरे स्टेप वाइज चाल चला जा रहा है..
1. डाक टिकट जारी करवाना, वो भी श्रीमती को ब्लैकमेल करके।
2.अटल के राज में सावरकर का फोटो संसद मे लगवाना और भारत रत्न देवा था, फोटो तो लगवा दिये क्यूंकि किसी ने विरोध नहीं किया, आखिर बहुमत तो हिंदुओं का ही है न। लेकिन भारत रत्न पर विरोध हुआ, राष्ट्रपति के पास चिट्ठियों की बौछार
हो गयी. परिणाम असफल रहे लेकिन निराश नहीं। अब बारी आयी है 2024 में रहेंगे कि नही , अपना सावरकर एजेंडा पूरा करने की । संसद भवन उद्घाटन से शुरुवात है, फिर भारत रत्न .......
देखना है कि ऐक बहुत
"सेंगोल": व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की कहानी और सच.
14 अगस्त 1947 की रात..नेहरुजी के साथ कम से कम 300 सांसद थे..ये सब"संविधान सभा" के सदस्य थे.
इनमें सरदार पटेल,डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, राजगोपालाचारी जी, मदनमोहन मालवीय जी, श्यामाप्रसाद मुखर्जी,महम्मद ख़ालिक़ उल ज़मान जैसे लोग थे.
दुनियाभर के जर्नलिस्ट उस दिन सुब्ह से पूरी रात नेहरुजी के साथ थे..एक एक सेकेंड की घटना की VDO रिकॉर्डिंग हुई जो आज भी उपलब्ध है..बस सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण की कोई रिकॉर्डिंग/फ़ोटो नहीं है..
किसी ने "सत्ता हस्तांतरण" के लिए तथाकथित "सेंगोल" की बात नहीं लिखी..और कोई नहीं तो राजगोपालाचारी, सरदार पटेल या श्यामाप्रसाद तो लिखते? सब छुपा गए?
14 अगस्त 1947 को नेहरुजी को हज़ारों की ता'दाद में तोहफ़े मिले थे..सेंगोल भी इन तोहफ़ात में से एक था..