इस सवाल का जवाब कई बड़े लोगों ने अपने-अपने तरीके से दिया।
आज ही के दिन 27 मई 1964 को पं. नेहरू का देहावसान हुआ था। नेहरू सिर्फ एक महान नेता ही नहीं , एक महान चिंतक , विचारक और युग द्रष्टा थे। गांधी नेहरू न रोज पैदा होते न रोज मरते है। विचार और सोच का कोई वंशज नही होता है।
विचार का स्कूल आफ थाट होता है। आजादी के बाद गांधी का स्कूल आफ थाट ,आफ डिमोक्रेसी और सेकुलरिज्म था ,जो स्वतंत्रता, समता , न्याय और और बंधुत्व पर आधारित राज्य बनाना चाहता था , उस स्कूल के नायक नेहरू थे । दूसरी तरफ संघ का स्कूल आफ थाट आफ फ़ासिज्म है जो आज भाग्य भरोसे
दिल्ली के सत्ता पर पहुंच गया है जिसके परम विचार पुरूष गुरू गोलवलकर रहे, जिनके प्रेरणा श्रोत हिटलर और मुसोलिनि हैं। नेहरू एक व्यक्ति नही विचार हैं , विचार कभी मरता नहीं।
नेहरू ने जब देश का बागडोर संभाला उस समय.देश की स्थिति बहुत अच्छी नही थी। देश अंदर से खोखला था।
पं नेहरू के योग्य नेतृत्व मे देश आगे बढने लगा। लेकिन पं नेहरू की चिंता थी की उनके बाद उनकी सोच को कौन आगे ले जायेगा। नेहरू देश को सोशलिज्म के रास्ते पर ले जाना चाहते थे , पटेल के देहावसान के बाद कांग्रेस पार्टी पर नेहरू का एकछत्र प्रभाव हो गया था ।
यद्यपि 1957 के पहले ही कांग्रेस ने अपने आवडी सेशन मे ही सोशलिज्म की तरफ अपना कदम पं नेहरू की अगवाई मे बढा चुका था। लेकिन नागपुर के जनवरी 1959 के प्लेनरी सेशन मे सोशलिस्ट प्रोग्राम लागू करने का निर्णय लिया गया जिसमें लैंड सीलिंग और कोआपरेटिव खेती को एडाप्ट करने का
प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव ने कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं जैसे- सी आर , एन जी रंगा, के एम मुंशी और चौधरी चरन सिंह इत्यादि को नाराज कर दिया।
सीआर ने सार्वजनिक रूप से, पं. नेहरू से जनवरी 26.1959 में हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित अपने एक लेख के माध्यम से पूछा कि
"क्या भूमि को कभी भी सहकारी खेती के तहत कहीं भी रखा गया है - कहीं भी उन देशों को छोड़कर जहां निजी निजी संपत्ति अनुपस्थित है और कम्युनिस्ट शासन के तहत जबरन श्रम की कमान संभाली जाती है।"
24 फरवरी .1959 को कांग्रेस संसदीय दल से बात करते हुए पं. नेहरू ने पार्टी के भीतर से
अपनी समाजवादी नीतियों के इस विरोध पर समान रूप से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। "अब तक उस आदर्श का विरोध करने वालों में से अधिकांश ने सोचा था कि कांग्रेस केवल सिद्धांत रूप में समाजवाद की बात कर रही थी। नतीजतन वे अवादी प्रस्ताव की निंदा में मुखर नहीं थे,
लेकिन नागपुर प्रस्ताव के पारित होने के बाद, उन्होंने महसूस किया है कि कांग्रेस का मतलब व्यापार है। ये हित अब उनके विरोध में और अधिक मुखर हो गए हैं।"
उसी विषय पर लौटते हुए नेहरू ने 14 मार्च, 1959 को कांग्रेस संसदीय दल को बताया। कि सहकारी खेती पर नागपुर के प्रस्ताव में विश्वास
नहीं रखने वालों का कांग्रेस संगठन छोड़ने के लिए स्वागत है। उन्होंने कहा, "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता", उन्होंने कहा, "अगर इस मुद्दे पर कांग्रेस टूट जाती है, अगर कुछ लोग संगठन छोड़ना चाहते हैं। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,यह तो हमें पता चल जाएगा कि हम कहां हैं।"
पं नेहरू ने श्रीमती इंदिरा को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाकर राईट विंग कांग्रेसियो को कहा कि जिसको कांग्रेस मे रहना है रहे या चला जाय। इस तरह सी आर और एन जी रंगा ने 1959 मे अलग पार्टी स्वतंत्र पार्टी बनाया। इसके पिछे पं नेहरू के दोस्त एम आर मसानी का का दिमाग था।
पं नेहरू को किसी प्रकार का चैलेंज नही था ।इस सवाल पर सी पी आई का पूर्ण समर्थन था पं नेहरू को।
उसी समय दो तीन घटनाएं घटी। पहला चीन जिसके साथ पं नेहरू ने 1954 मे पंचशील सिद्धांत का समझौता किया था , ने तिब्बत को अपने राज्य मे मिला लिया और पं नेहरू ने उसे मान्यता दिया था।
और कहा था कि चीन ने नेहरू और चाऊ इन लाई बार्ता मे मैकमहोन लाईन को भारत चीन का बार्डर मान लिया है जबकि चीन ने ऐसे किसी बात से इनकार कर दिया। ऐसा कोई लिखित समझौता न होने के कारण पं नेहरू को शर्मिंदा होना पड़ा। दलाई लामा को भागकर भारत आकर शरण लेना पड़ा।
चीन ने आक्रमण कर दिया। पं नेहरू को इसका बहुत बड़ा झटका लगा। दूसरे श्रीमती गांधी ने केरला की कम्युनिस्ट सरकार को भंग करके राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इससे पं नेहरू को देश के अंदर और बाहर कठिन स्थिति का सामना करना पड़ा। फिर भी पं नेहरू 1962 का लोकसभा चुनाव जीते।
जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और कुछ छोटी मोटी पार्टियों ने मिलकर नेहरू सरकार के रक्षा मंत्री कृष्न मेनन के खिलाफ आवाज उठायी। पं नेहरू उनको हटाना नही चाहते थे ।लेकिन इसमे जब उनके पार्टी के लोग भी भी बोलने लगे जिसमे फिरोज गांधी जैसे लोग भी थे । 1963 मे उप चुनाव 3 जगहो पर
और तीनों कांग्रेस हार गयी। जिसमे जनसंघ ने नेहरू के खिलाफ आचार्य कृपलानी , राम मनोहर लोहिया और मीनू मसानी का समर्थन किया और तीनो जीत गये । तब जाकर लाल बहादुर शास्त्री जी ने पं नेहरू से कहा कि पंडित जी " जब छोटी आहुति नहीं दी जाती है तो बड़ी आहुति देनी पड़ जाती है। "
तब जाकर पं नेहरू ने मेनन को हटाकर यशवंराव चौहान को रक्षा मंत्री बनाया। जो नकारा साबित हुये।
1963 दिसम्बर मे चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। पं नेहरू को इसका बहुत बड़ा धक्का लगा और वे इसी के बाद से टूट सा गये थे। कांग्रेस के अंदर से महाबीर त्यागी और फिरोज गांधी ने कृष्न मेनन
को रक्षा मंत्री से हटाने की मांग कर दी। और कहते हैं कि डा राधा कृष्णन ने सरकार को भंग करने की भी बात सोचे थे । पं नेहरू को न चाहते हुए भी वी.के. मेनन को भारी मन से हटाना पड़ा। फिर मद्रास के सी यम और कांग्रेस के बड़े नेता कामराज ने पं नेहरू के सामने एक प्लान रखा ।
जिसमें सभी मंत्रियों का इस्तिफा लेना था और सरकार तथा संगठन मे बड़ा फेरबदल करना था।पं नेहरू ने सबसे पहले अपना इस्तिफा रखा तो कामराज ने कहा कि पंडित जी आप कांग्रेस ही नहीं देश के ज्वैल्स हैं।आप इस्तिफा नहीं देंगे सभी से इस्तिफा ले लिया गया।उसे ही हम कामराज प्लान के नाम से जानते हैं
और 27 मई 1964 को पंडित नेहरू कि इंतकाल हो गया और भारत का सूर्य सदा के लिये अस्त हो गया। उनकी मौत पर उस समय के जनसंघ के बड़े नेता प्रोफेसर बलराज मधोक ने कहा था कि ,
" लोकतंत्र की दृष्टि से पं. नेहरू का सबसे महान योगदान जिसके लिए उनकी स्मृति को हर लोकतंत्र में संजोया जाएगा,
वह यह था कि उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थानों को पूरा सम्मान दिया और लोकतंत्र की संरचना को जीवित रखा जबकि वह उन्हें नष्ट करने की स्थिति में थे, यदि वे ऐसा चाहते तो । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पं. नेहरू ने संसद और विपक्ष के प्रति अपने व्यक्तिगत आचरण में एक लोकतंत्रवादी के रूप
में जीने और व्यवहार करने की कोशिश की। इस तरह उन्होंने देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों को सम्मान दिया।"
संसद की शोक सभा मे अटल बिहारी बाजपेयी का ऐतिहासिक भाषण:
महोदय,
एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई।
सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।
मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता आज शोकमग्ना है – उसका सबसे
लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नमना है – उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है – उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन जन की आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के सम्बंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडितजी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वह शांति के पुजारी, किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे; वे अहिंसा के उपासक थे, किन्तु स्वाधीनता और सम्मान
की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे।
वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी
नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।
मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम
कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे।
किसी दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे।
महोदय, जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है। सम्पूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी। जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है।
हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं। हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है। नेता चला गया, अनुयायी रह गए।
सूर्य अस्त हो गया, तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूँढना है। यह एक महान परीक्षा का काल है। यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अन्तर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो
हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे।
संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा। वह व्यक्तित्व, वह ज़िंदादिली, विरोधी को भी साथ ले कर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट
भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रामाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
29/5/1964
राज्य सभा
अटल बिहारी बाजपेयी ।
और मोदी- शाह नेहरू को मिटाने चले है....
drbn singh
- Master in Moder History from JNU,Delhi
- Master of Philosophy from JNU,Delhi
- Doctorate of Philosophy from JNU,Delhi.
पागल थे तुम जो IIT से B.Tech,M.Tech करने के बाद Europe के सबसे सम्पन्न देश Denmark से 10,650 USD(अमेरिका डॉलर) प्रति माह यानी तकरीबन 8,00,000 INR (भारतीय रुपए) प्रति माह की
एक तो वो, दिहाड़ी मजदूर, दो रुपये वाले। इनका काम बस इतना होता है कि आपकी पोस्ट पर आना और हग कर चले जाना। इनका काम बस हगना ही होता है, और कुछ नहीं।
एक बार हगे, दो रुपये पक्के। फिर ये आगे बढ़ कर किसी और एकाउंट में हगने चले जाते हैं।
आप सोचो कि इनसे बहस कर लो, गाली दे दो, पर तब तक तो ये आगे बढ़ लेते हैं। इनको सीधे इग्नोर मारना होता है, और बिल्कुल ही चिढ़ मचे तो ब्लॉक। दूसरा कोई रास्ता नहीं।
दूसरे टाइप के ट्रोल ज़्यादा मज़ेदार होते हैं। ये आई टी सेल नहीं, बल्कि व्हाट्सअप की पैदाइश होते हैं।
फ्री सेवा वाले। राष्ट्र और धर्म रक्षा का पूरा भार इन्हीं के कंधों पर है, ऐसा इन्हें लगता है। और मज़ा ये कि ये अपने आपको ट्रोल बिल्कुल नहीं मानते हैं। बल्कि कोई दूसरा इन्हें ट्रोल कहे तो इन्हें बड़ी मिर्ची लग जाती है। पर साथ साथ इन्हें
260 एकड़ जमीन को कवर करती एक बाउंड्री , उस बाउंड्री के अंदर व्यापार के लिए मालगोदाम, व्यापारियों के लिए मकान बनाए गए। उसी बाउंड्री के अंदर एक लगभग 120 फुट लंबी, दो मंजिला इमारत थी जिसके दो हिस्से थे। यह दो मंजिला इमारत भी उसी बाउंड्री के अंदर ही स्थित थी। उस पूरी 260 एकड़
जमीन का नाम था फोर्ट विलियम। तथा 120 फुट लंबी, दो मंजिला जो इमारत थी , उस इमारत का नाम था "फोर्ट विलियम कॉलेज"। सन् 1785 के आसपास बनाई गई थी वह इमारत।
उस इमारत में ब्रिटेन से, पूरे यूरोप से कुछ विद्वान आने लगे, "Royal Asiatic Society of Orientalists" मजबूत हो रही थी।
उनमें से एक विद्वान का नाम था John Gilchrist.
John Gilchrist चार साल तक घूमा , बनारस तक गया। उसके जासूस मेरठ, लाहौर, मुल्तान,अलवर, जोधपुर, भोपाल, अहमदाबाद, इंदौर, जबलपुर तक घूम आए।
आज हम बहुत सी बातों को चाहे ना समझें, लेकिन John Gilchrist उन दिनों बहुत कुछ प्लान कर रहा था।
पुराने जमाने की बात। एक था राजा।वैसा ही था अमूमन जैसे राजा होते हैं।भगवान का अवतार। तानाशाह,कान का कच्चा ,आवेगी ,लोकप्रिय और व्यवहार कुशल। हमारी कहानी के राजा का एक जिगरी दोस्त भी था। नगर सेठ था वो। खानदानी दोस्ती थी सो एक दूसरे के घर आना जाना,संग साथ उठना बैठना,खाना पीना भी था।
राजा का दोस्त होने की वजह से बनिए की धाक भी थी और व्यापार खूब फल फूल भी रहा था। पर सब दिन एक से नही रहते। एक दफा बनिये की कुंडली मे भी शनि की साढ़ेसाती आई और वो संकट मे पड़ा।
हुआ ये कि एक दिन सेठ टहलते हुए राजा के महल पहुंचा। रास्ते मे राजा के जमादार ने दुआ सलाम की उसने
और दो बोतल शराब की फ़रमाइश की। अब सेठ ठहरा राजा का दोस्त। हेठी लगी उसे यह बात। सो उसने चार बाते सुनाई जमादार को। और आगे बढ़ गया।
जमादार ने दिल पर ले ली ये बात। अगले दिन सुबह ,जब राजा टॉयलेट मे था तो उसके पास झाडू लगाते हुए उसने तेज आवाज मे बयान जारी किया। अरे ये राजा तो बुद्धू।