लंदन में सुभाष को खबर हो गयी थी कि वे सर्वसहमति से कांग्रेस के अगले अध्यक्ष होंगे। निवर्तमान अध्यक्ष जवाहरलाल दो कार्यकाल गुजार चुके थे। इस बार अधिवेशन हरिपुरा में होना था।
सुभाष कांग्रेस के 51 वे अध्यक्ष थे। साहब की सवारी आयी। 51 बैलगाड़ियां, 51 स्वागत द्वार, और 51 सजी धजी बालिकाओ द्वारा स्वागत हुआ। किसी कांग्रेस अध्यक्ष का यह पहला राज्याभिषेक था।
भारतीय राजनीति का यह संक्रमण काल था।
कांग्रेस 11 में से 9 राज्यों में सरकार बना चुकी थी। याने विपक्ष की राजनीति याने "हाय हाय, विरोध, असहयोग" से आगे अब गवर्नेंस के इशूज से उलझ रही थी।
सत्ता, जिम्मेदारी होती है, इसके तौर तरीके भी अलग होते हैं। कांग्रेस सरकारें, अपने मेनिफेस्टो के अनुसार चलने की
कोशिश में थी, लेकिन दिक्कते भी थी।
असल मे 1935 के अधिनियम के बाद चुनी हुई राज्य सरकारे आ तो गयी, सरकारों की ताकत गवर्नर के हाथ थी।आजकल की दिल्ली समझ लीजिए, जिसमे सीएम के सीमित अधिकार होते हैं। तो हरिपुरा में एक प्रश्न, राज्य सरकारों में,
अंग्रेज गवर्नरों के लगातार दखलंदाजी का था। सुभाष सीधे भिड़ना चाहते थे।
ओल्ड गार्ड ( सरदार, अबुल कलाम आजाद, और तमाम टीम) जरा समझदारी के पक्ष में थे।
दूसरा प्रश्न था, रजवाड़ो के प्रशाषित इलाकों में कांग्रेस की भूमिका का। यहां कांग्रेस का ओल्ड गार्ड,
कोई मूवमेंट खड़ा करने से बचना चाह रहा था। जहां कंट्रोल न हो, कई रजवाड़े कांग्रेस से सिम्पेथेटिक हो, वहां क्यो अभी दुश्मन बनाये जायें। लेकिन सुभाष चाहते थे, कांग्रेस लड़े।
तीसरा प्रश्न कठिन था, सबसे बड़ा। जो कांग्रेस की तासीर पूरी तरह कम्युनिज्म की तरफ ले जाने का सवाल था।
कांग्रेस में एक समाजवादी धड़ा था। पूर्व में जवाहरलाल ने इस गुट को खूब तवज्जो दी थी। ये सब क्रांतिकारी जीव थे। तमाम ट्रेड यूनियनों, किसान सभाओ को कांग्रेस के बैनर तले लाना चाहते थे।
ओल्ड गार्ड को इनपर विश्वास नही था। इस पर भी धीमे चलना चाहते थे।
सरदार ने बड़ी आक्रामक स्पीच दी- "हमने आपको ( कांग्रेस सोशलिस्ट दल) को 2 साल ( जवाहर के कार्यकाल) झेला है। आगे नही झेलेंगे। आप कितने ही रिजोल्यूशन लाओ, हम निपटने को तैयार है."
तलवारें यहीं से खिंच गयी थी।
सरदार की सुभाष से एक अदावत पहले से थी।
उनके बड़े भाई विट्ठल की डैथ, यूरोप में हुई। अंतिम समय मे सुभाष साथ थे। विट्ठल ने अपनी सारी प्रोपर्टी सुभाष के संगठन के नाम वसीयत कर दी।
सरदार का परिवार कोर्ट गया। वसीयत फर्जी साबित की। प्रॉपर्टी सरदार के परिवार को मिली। सुभाष-सरदार ले बीच कोई मोहब्बत बची नही थी।
जवाहर के बाद सुभाष को अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव आया, गांधी ने सहमति दी। तो सरदार चुप रहे। लेकिन जब मुद्दों पर बारी आई, चुप रहने को तैयार न थे।
यह मुखरता, मुद्दों पर थी..
या निजी अदावत से उपजी थी..
कौन बता सकता है ??
बहरहाल साल भर सुभाष ने ओल्ड गार्ड को धकियाये रखा।
उनका स्वभाव बहुत कंसल्टेशन वाला तो था नही। जवाहर को उन्होंने साथ रखा। कांग्रेस सोशलिस्ट दल भी उनके साथ था। यूनियनों और किसानों के मामले में वह अपने मन की करते रहे।
त्रिपुरी में अधिवेशन का वक्त आ चुका था। आम सहमति से उनके चुने जाने की संभावना न थी,
उन्होंने दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए ताल ठोक दी। यह कांग्रेस की परंपरा नही थी। बहुत सी भौहें तन गयी। अखबार भी चटखारे लेने लगे।
ओल्ड गार्ड ने पट्टाभिसितरामया को कैंडिडेट कर दिया।
इस बार गांधी ने भी उनको समर्थन दिया। कोई 1500 वोट सुभाष को मिले, तेरह सौ सीतारमैया को।
गांधी ने लिखा- यह सीता रमैय्या की नही मेरी हार है। ( यह आपने पढ़ा है) लेकिन मेरी शुभकामनाएं है। सुभाष अपनी टीम में सबको साथ लेकर चलें। ( यह आपने नही पढ़ा है)
अगले करीब 4 माह में साबित हो गया कि सुभाष सबको साथ लेकर नही चलने वाले। वे अपने उग्र एजेंडे पर आगे बढ़ रहे हैं।
कांग्रेस की हर इकाई में धड़ेबाजी शुरू हो गयी।
इस बीच कलकत्ता बैठक में कांग्रेस कार्यसमिति के 15 में से बारह सदस्यों ने इस्तीफे की मांग कर दी। छूटे हुए 3 तीन सदस्यों में एक सुभाष खुद थे,
दूसरे जवाहर, तीसरा सुभाष के भाई शरत..
यह एक क्राइसिस था। सुभाष गांधी से मिलने वर्धा आये।
तीन घण्टे बैठने के बाद भी गांधी उनके विचारों से सहमत न हुए। नतीजा- सुभाष ने इस्तीफा दे दिया।
वे चाहते थे कि जवाहर भी इस्तीफा दें।
जवाहर, सुभाष से आईडियोलीजिकली और पोलिटीकली करीब थे, लेकिन गांधी को छोड़ना उनके वश में नही था। मोतीलाल के बाद, गांधी ही उनके पिता थे।
सुभाष का कांग्रेस छोड़ना, भारत के भविष्य पर गहरा असर डालता है। बंगाल में कांग्रेस पूरी टूट गयी।
जिस श्यामा को कभी उन्होंने सभाएं न करने दी थी, उसके बॉस सावरकर से मिलने पहुँचे। हालांकि वे इस मुलाकात के बाद सावरकर के प्रति अच्छे विचार व्यक्त तो नही करते,
मगर बंगाल में अगले ही चुनाव में कांग्रेस विपक्ष में आ जाती है।
महासभा और मुस्लिम लीग की सरकार बनती है। 6 साल बाद भारत का यह भूभाग, सरकार प्रायोजित दंगो से गुजरकर, पाकिस्तान बनता है।
लीग और महासभा की युति ने सिंध, खैबर में भी सरकार बनाई।
पंजाब में सिखों की यूनियनिस्ट पार्टी ने भी कांग्रेस की जगह लीग को पसंद किया। यह सारा भूभाग पकिस्तान बनता है।
लेकिन वे दंगे, जो पाकिस्तान बनने की जड़ थे, वो बंगाल सरकार की सरपरस्ती में हुए। इस वक्त सुभाष फासिस्ट ताकतों से हाथ मिलाने का जुआ हार चुके थे।
उनकी मौत की खबरें आई, और जिंदा होने की अफवाहें भी।
सोचता हूँ कि अगर जिंदा सुभाष कहीं गुप्तवास में रहकर भारत का बंटवारा देख रहे होते, तो क्या अपने कुछ फैसलों पर अफसोस भी करते?
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जापान में डॉ. वाडा 70 साल से अधिक उम्र के लोगों को 'बुजुर्ग लोगों' के बजाय "भाग्यशाली लोग" कहने की वकालत करते हैं।।
डॉ. वाडा ने 70 साल के लोगों के "भाग्यशाली व्यक्ति" बनने के रहस्य को "36 वाक्यों" में इस प्रकार समझाया:
01. चलते रहो।
02. जब आप चिड़चिड़ा महसूस करें, तो गहरी सांस लें। 03. योग प्राणायाम व्यायाम करें, ताकि शरीर में अकड़न महसूस न हो। 04. गर्मियों में एयर कंडीशनर चालू होने पर अधिक पानी पिएं। 05. आप जितना चबाएंगे, आप का शरीर और मस्तिष्क उतना ही ऊर्जावान होगा।
06. याददाश्त उम्र के कारण नहीं, बल्कि लंबे समय तक मस्तिष्क का उपयोग न करने के कारण कम होती है। 07. ज्यादा दवाइयां लेने की जरूरत नहीं है। 08. रक्त चाप और रक्त शर्करा के स्तर को जान बूझ कर कम करने की आवश्यकता नहीं है। 09. केवल वही काम करें, जिससे आप प्यार करते हैं।
"The Telegraph" ने मणिपुर में नरसंहार की असलियत का ख़ुलासा किया है
1. मणिपुर में "एथनिक क्लींजिंग" चल रही है 2. मेइती मणिपुर के 10% हिस्से में रहतें हैं 3. कुकी, नागा 90% हिस्से में रहतें हैं
मणिपुर में 44 आदिवासी ज़ाती रहती है 4. मणिपुर में धारा 371 लागू है
5. ग़ैर आदिवासी ज़मीन नहीं ख़रीद सकते 6. मेइती को ST बनाया गया 7. ताकि ग़ैर आदिवासी/बाहरी ज़मीन ख़रीदे 8. लगभग 250 चर्च तबाह किए गए हैं 9. मंदिरों के तबाह होने की भी ख़बर है 10. पूरा सामाजिक तानाबाना ख़त्म है
- शुरू' में मेइती ने आदिवासियों को मारा
- अब आदिवासी इन्तिक़ाम ले रहें हैं
- आदिवासियों को आतंकी बताया जा रहा है
- आदिवासियों को "ड्रग कारोबारी" बोला गया
- मणिपुर में लगभग हर गांव श्मशान बन गया
- लाशें पड़ी है पर संस्कार नहीं हो रहा है
- सरकार अब भी जंगलों में फौज भेज रही है
- जंगल आदिवासियों का घर है
कुछ बूढ़ों को जब मैं देखता हूँ तो मुझे उन पर श्रद्धा नही तरस आता है। तरस इसलिए की इस चला चली की बेला में, जब पैर कब्र में लटके हों, तब भी इंसान कुछ खोने को तैयार नही, सच के साथ खड़े होंने का हौसला नही। सारा जीवन जो कुकर्म किये। अंत समय मे थोड़ा सत्कर्म कर अपनी
आत्मा पर पड़े बोझ को थोड़ा कम करने का साहस भी नही। बहुत कमजोर होते हैं ऐसे बूढ़े।
इनमें सबसे पहला नाम रथ यात्रा निकालने वाले का है। पूरे देश को दंगों की आग में झोंक देने वाले को कभी इसके लिए प्रायश्चित करते नही देखा। कभी इन्हें इस बात का अफसोस नही हुआ।
देश हित से ऊपर इन्होंने पार्टी हित को रखा। किसी समय पार्टी में प्रथम स्थान पर रहने वाले का जो हश्र हुआ, उसके विरोध में कभी मुंह खोल विरोध करते नही देखा। प्रधान जी के सामने हाथ जोड़े इनकी तस्वीर में ये बहुत दयनीय लगते हैं। ये बात पार्टी के समर्पित कैडर के रूप में तो इन्हें
पंजाब 'सिंध' गुजरात मराठा ......हिंद से गायब सिंध !
राष्ट्रगान में आए सभी भाषाई प्रांत भारत में हैं बस सिन्ध को छोड़कर। अनेक सिंधियों को इस बात का अफ़सोस है कि भारत की आज़ादी ने सिंधियों की पहचान छीन ली । सिंधी भाषा देश की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में से एक है
परन्तु देश के ज्यादातर लोग सिंधियों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते क्योंकि सिंधी संस्कृति का संरक्षण कोई राज्य सरकार नहीं कर रही है ।
सिंध प्रांत पाकिस्तान में है और सिंधी भुट्टो परिवार के दो सदस्य - पिता ज़ुल्फ़िकार अली और बेटी बेनज़ीर - पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी रहे
( अन्त दोनों का दु:खद ही रहा ) परन्तु सत्ता की भागीदारी में सिंधी समुदाय हाशिये पर ही रहा और समय - समय पर सिंध के पाकिस्तान से पृथक होने की आवाज़ें भी उठती रही हैं । प्रांत की राजधानी कराची में पाकिस्तान के धनी वर्ग ने बड़ी - बड़ी जमीनें खरीदकर सिंधियों का प्रभुत्व कम कर दिया ।
एक कहानी मेरे साथ नहीं घटित हुई लेकिन एक अभिन्न मित्र के साथ हुई थी- उसकी ज़ुबानी सुनिए।
दस साल पहले एक बड़ी it कम्पनी से तहत मित्र अमेरिका के tier ३ शहर आया और एक अपार्टमेंट में दो और बैचलर लड़कों के साथ रहने लगा।कम्पनी के ज़्यादातर लड़के उसी
कम्यूनिटी- मुहल्ले में रहते थे। रोज़ शाम काम के बाद महफ़िल जमती और जाम से जाम टकराते. उनका उसी कम्पनी में एक मैनेजर था मिस्टर वर्मा - जो कई सालों से अमेरिका में थे और ग्रीनकार्ड धारी थे - घर था सेटल्ड आदमी। बीवी थोड़ी कर्कश थी- लड़कों ने बीवी का नाम रख दिया था धाँय धाँय।
वर्मा जी भी रोज़ महफ़िल पहुँच जाते और दो जाम से गला तर करने के बाद रुखसत हो जाते। लड़का पार्टी को आपत्ति ना थी- वर्मा जी आख़िर ऑफ़िस में थोड़ा काम भी आते थे। वर्मा जी धाँय धाँय से बहुत डरते थे- इतना ख़ौफ़ था कि खुद के घर में ना पीते और ना नोन veg खाते।