- तुमने ही शेयर मार्केट में अड़ानी के शेयर गिराये है ।
- भाई मुझे तो मौलवी साहब ने बोला था कि शेयर का काम सही नहीं है , मैंने कभी शेयर ना ख़रीदे ना बेचे ।
- तो तुम बैंक के डूबने पर ख़ुश हो रहे हो ।
- हम बैंक में पैसे नहीं रखते , ब्याज हराम है ।
हमारा बैंक के डूबने या तैरने से क्या मतलब ??
- तुम करते क्या हो ??
- मीट की दुकान थी , देशी वीं डीजल की सरकार में बंद हो गयी ।
- फिर घर कैसे चलता है ??
- दुकान बंद होने पर बड़ा बेटा दुबई चला गया , उसने वहाँ जुगाड़ करके एक मीट की दुकान खोल ली ।
- बड़े बेटे की कमाई से खर्च पूरा हो जाता है ??
- अभी पिछले महीने छोटा वाला भी दुबई चला गया , उसके लिए भी बड़ा भाई दुकान देख रहा है ।
- तुम भी कुछ करते हो ??
- घर के बाहर कुर्सी पर बैठकर हँसता रहता हूँ ।
- मतलब ख़ुश हो तुम ??
- बहुत खुश । लेकिन तुम कौन हो ??
- मैं एक #पत्रकार हूँ ।
- ना भाई हम ख़ुश ना हैं । बहुत परेशान है , इस सरकार के आने से हमारे ऊपर मुसीबत का पहाड़ टूट गया , हमारी दुकान बंद हो गयी , मैं बेरोज़गार हो गया , घर में खाने के लाले है ।
- अभी तो तुम कह रहे थे कि तुम खुश हो ??
- मुझे पता नहीं था ना कि तुम पत्रकार हो ।
- मतलब ??
- बेटे ने बोला है कि कोई पत्रकार पूछे तो ख़ुद को परेशान ही बताना है वर्ना वो अपनी नाकामी से खीजकर और ज़्यादा ज़हर उगलेंगे । 😜🤣
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अर्थ मतलब पैसा, रोकड़ा, नगदी। इसके बिना संगठन सूना हो जाता है, जैसे नोटबन्दी के बाद विपक्ष कमजोर हो जाता है, (और सत्तापक्ष लबालब..)
इसलिए चाणक्य की किताब, जो लोक प्रशासन पर है, उसका नाम अर्थशास्त्र है। प्रशासक यदि मूर्ख, आदतन भिखारी और
अनपढ़ न हो, तो जानता है सरकार चलाने को पैसा टैक्स से आएगा।
और तब आयेगा, जब जनता कमाएगी, खुश और संतुष्ट रहेगी। उसे न्याय और सरकार से सहयोग मिलेगा। अब अंग्रेज तो मूर्ख थे नही, अनपढ़ भिखारी भी न थे।
इसलिए 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट आया।
दरअसल ब्रिटिश पार्लियामेंट, ईस्ट इंडिया कम्पनी के निवेशकों के दुख से दुखी थी। कम्पनी लॉस में जा रही थी, और क्लाईव जैसे कर्मचारी, अपनी दौलत का नंगा प्रदर्शन कर रहे थे। पार्लियामेंट ने दखल दिया। अब बंगाल में कम्पनी को, सरकारी कायदों के तहत चलना था। एक अच्छा प्रशासन देना था।
कभी चोरी करता, कभी मगर पकड़ता.... गांव वालों ने उस आवारा पर निकम्मे का लेबल लगा दिया था। वो घर से जेवर चुराकर भाग गया।
चाय की कैंटीन के भांडे धोने से शुरू कारकीर्दी देहजीविनियों की दलाली करते, टपोरीगिरी करते, मवालीगिरी करते आगे बढ़ती रही।
आत्मनिर्भरता का जुनून गजब का था। कभी सीधे तो कभी उल्टे लेटकर भी पैसे के मामले में आत्मनिर्भर बन गया।
कुछ समय बाद अच्छा खासा माल बटोरकर गांववालों को चकित करने गांव पहुंच गया। बाप ने कमाए पैसे के बारे में पूछा तो किसी बिनपंजीकृत संस्था की शाखा ज्वाइन करने का बता दिया।
बाप को शक हुआ.... भला बिना रजिस्ट्रेशन की शाखा ज्वाइन करने से इतना पैसा थोड़े ना कमाया जाता है! बाप ने गान पर एक लात मारकर घर से निकल जाने को कहा। वो बोला.....
"जाता हूं, चला जाता हूं। मुंह से करो बात, धंधे पर क्यों मारते हो लात?"
Rajiv Nayan Bahuguna
यो मद भक्तस्य मे प्रियह
मुझ जैसा व्यक्ति, जो न अख़बार पढ़ता है, न टीवी देखता है, न सिनेमा. और वास्तविक जीवन में जिसका फ्रेंड सर्किल भी बहुत कम है, अंध भक्तों को चिढ़ा कर उनकी बौखलाहट से ही अपनी दिलचस्पी कर सकता है.
अंध भक्त को खिजाना किसी अंधे को चिकुटी काट कर भाग जाने जैसा है, जो काम हम बचपन में खूब करते थे.
अंधे की तरह एक अंध भक्त भी गालियां बकने, अपना सर नोंचने, बद हवास दौड़ कर चोट खाने और अँधेरे में पत्थर फेंकने के सिवा कुछ नहीं कर सकता.
इन दिनों चार तरह के अंध भक्त मार्किट अथवा प्रचलन में हैं :-
- विश्व गुरू के अंध भक्त.
ये ये सम्प्रदायिकता और अंध भक्ति के कोढ से गल चुके हैं.
कोढ़ी की तरह इन्हे भी मंहगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और देश की तबाही का कोई दर्द नहीं होता.
कल से एक सवाल सोशल मीडिया पर तैर रहा है कि जनरल बोगीज़ भारतीय ट्रेनों के आगे या पीछे ही क्यूँ लगाई जाती हैं, बीच में क्यूँ नहीं?
ये सच में एक गंभीर सवाल है। हमको कुछ बातें मालूम थीं और कुछ गूगल रिसर्च करने पर पता चली हैं। नीचे बता रहे-
* ये एक ब्रिटिशकालीन प्रथा है जिसको अब भी ढोया जा रहा। पहले इंजन कोयले पर चलती थी जिससे धुआं और धूल पीछे की तरफ आता था। चूंकि तब फर्स्ट और सेकेंड क्लास में सिर्फ अंग्रेज़ चढ़ते थे और जनरल में नेटिव लोग इसीलिए ये धुआं और धूल नेटिवों के लिए ही रिज़र्व रखा गया।
इसी परम्परा को आज़ादी के बाद भी जारी रखा गया।पहले कोयला फिर डीजल इंजिन का धुआं जनरल डब्बों के लोगों के लिए ही रिज़र्व रहा। एक तर्क ये भी दिया गया कि इंजिन से निकलने वाली गर्मी जनरल वाले यात्रियों को ठंड में आराम देगी।