#स्वतंत्र
लॉर्ड कैनिंग.. 1857 के दौरान देश का शासक।
बेचारा आदमी, जो अपने कार्यकाल में लार्ड डलहौजी का फैलाया रायता समेटता ही रह गया।
सावरकर पर आई मूवी का जबरन प्रोमो यू ट्यूब पर देखना पड़ता है। स्किप करने के पहले इस मे एक डायलॉग सुना, तो ठिठक गया-
"गाँधीजी बुरे आदमी नही थे। लेकिन वे अपनी अहिंसा की नीति की जिद नही करते, तो देश 35 साल पहले आजाद हो जाता.. "
अबे?? आजादी के 35 साल पहले, गांधी भारत मे ही नही थे।
अफ्रीका की जेल में थे।
खैर। बात कैनिंग की। जॉइन किए 6-8 माह ही हुए थे कि देश मे रिवोल्ट फूट गया।
अंग्रेजो की सिट्टी पिट्टी गुम थी। देश भर में एक लाख से कम अंग्रेज थे, और चारो ओर करोड़ो होस्टाइल पब्लिक थी।
जैसे तैसे रिवोल्ट से निपटे। शांति कायम हुई, कम्पनी को हटाकर रानी ने सीधा शासन कायम किया। कसम खाकर बोली कि अब और राज्य अनेक्स नही किये जायेंगे।
सारे रजवाड़ो को अनुच्छेद 370 दिया। एक दो अनेक्स किये राज्य भी वापस लौटा दिये। जब सब कुछ शांत हो गया तो कैनिंग ने रानी को चिट्ठी लिखी- हैड इट नॉट बीन फ़ॉर सिंधियाज, वी वुड हैव सेंट पैकिंग टू लंदन..
यह कोई फर्जी स्क्रिप्ट राइटर नही,
भारत का वाइसराय लिख रहा था।
हिंदी में इसका मतलब है- अगर युजुअल मराठा अवसरवाद के सिद्धहस्त, महासभा- संघी संगठनों को खड़ा करने वाला नेपथ्य का खिलाड़ी, सिंधिया राजवंश..
..अपने अतुलित खजाने और फ़ौज के साथ ब्रिटिश पाले में नही खेलता तो अंग्रेजो को बैग पैक कर , 90 साल पहले ही लन्दन भागना पड़ता।
बहरहाल, सोच रहा हूँ भारत के वाइसराय पर एक सीरीज लिखी जाये।
जलीलों की जिल्लत के बहुत से खजाने मिलेंगे।
❤️
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अर्थ मतलब पैसा, रोकड़ा, नगदी। इसके बिना संगठन सूना हो जाता है, जैसे नोटबन्दी के बाद विपक्ष कमजोर हो जाता है, (और सत्तापक्ष लबालब..)
इसलिए चाणक्य की किताब, जो लोक प्रशासन पर है, उसका नाम अर्थशास्त्र है। प्रशासक यदि मूर्ख, आदतन भिखारी और
अनपढ़ न हो, तो जानता है सरकार चलाने को पैसा टैक्स से आएगा।
और तब आयेगा, जब जनता कमाएगी, खुश और संतुष्ट रहेगी। उसे न्याय और सरकार से सहयोग मिलेगा। अब अंग्रेज तो मूर्ख थे नही, अनपढ़ भिखारी भी न थे।
इसलिए 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट आया।
दरअसल ब्रिटिश पार्लियामेंट, ईस्ट इंडिया कम्पनी के निवेशकों के दुख से दुखी थी। कम्पनी लॉस में जा रही थी, और क्लाईव जैसे कर्मचारी, अपनी दौलत का नंगा प्रदर्शन कर रहे थे। पार्लियामेंट ने दखल दिया। अब बंगाल में कम्पनी को, सरकारी कायदों के तहत चलना था। एक अच्छा प्रशासन देना था।
कभी चोरी करता, कभी मगर पकड़ता.... गांव वालों ने उस आवारा पर निकम्मे का लेबल लगा दिया था। वो घर से जेवर चुराकर भाग गया।
चाय की कैंटीन के भांडे धोने से शुरू कारकीर्दी देहजीविनियों की दलाली करते, टपोरीगिरी करते, मवालीगिरी करते आगे बढ़ती रही।
आत्मनिर्भरता का जुनून गजब का था। कभी सीधे तो कभी उल्टे लेटकर भी पैसे के मामले में आत्मनिर्भर बन गया।
कुछ समय बाद अच्छा खासा माल बटोरकर गांववालों को चकित करने गांव पहुंच गया। बाप ने कमाए पैसे के बारे में पूछा तो किसी बिनपंजीकृत संस्था की शाखा ज्वाइन करने का बता दिया।
बाप को शक हुआ.... भला बिना रजिस्ट्रेशन की शाखा ज्वाइन करने से इतना पैसा थोड़े ना कमाया जाता है! बाप ने गान पर एक लात मारकर घर से निकल जाने को कहा। वो बोला.....
"जाता हूं, चला जाता हूं। मुंह से करो बात, धंधे पर क्यों मारते हो लात?"
Rajiv Nayan Bahuguna
यो मद भक्तस्य मे प्रियह
मुझ जैसा व्यक्ति, जो न अख़बार पढ़ता है, न टीवी देखता है, न सिनेमा. और वास्तविक जीवन में जिसका फ्रेंड सर्किल भी बहुत कम है, अंध भक्तों को चिढ़ा कर उनकी बौखलाहट से ही अपनी दिलचस्पी कर सकता है.
अंध भक्त को खिजाना किसी अंधे को चिकुटी काट कर भाग जाने जैसा है, जो काम हम बचपन में खूब करते थे.
अंधे की तरह एक अंध भक्त भी गालियां बकने, अपना सर नोंचने, बद हवास दौड़ कर चोट खाने और अँधेरे में पत्थर फेंकने के सिवा कुछ नहीं कर सकता.
इन दिनों चार तरह के अंध भक्त मार्किट अथवा प्रचलन में हैं :-
- विश्व गुरू के अंध भक्त.
ये ये सम्प्रदायिकता और अंध भक्ति के कोढ से गल चुके हैं.
कोढ़ी की तरह इन्हे भी मंहगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और देश की तबाही का कोई दर्द नहीं होता.
कल से एक सवाल सोशल मीडिया पर तैर रहा है कि जनरल बोगीज़ भारतीय ट्रेनों के आगे या पीछे ही क्यूँ लगाई जाती हैं, बीच में क्यूँ नहीं?
ये सच में एक गंभीर सवाल है। हमको कुछ बातें मालूम थीं और कुछ गूगल रिसर्च करने पर पता चली हैं। नीचे बता रहे-
* ये एक ब्रिटिशकालीन प्रथा है जिसको अब भी ढोया जा रहा। पहले इंजन कोयले पर चलती थी जिससे धुआं और धूल पीछे की तरफ आता था। चूंकि तब फर्स्ट और सेकेंड क्लास में सिर्फ अंग्रेज़ चढ़ते थे और जनरल में नेटिव लोग इसीलिए ये धुआं और धूल नेटिवों के लिए ही रिज़र्व रखा गया।
इसी परम्परा को आज़ादी के बाद भी जारी रखा गया।पहले कोयला फिर डीजल इंजिन का धुआं जनरल डब्बों के लोगों के लिए ही रिज़र्व रहा। एक तर्क ये भी दिया गया कि इंजिन से निकलने वाली गर्मी जनरल वाले यात्रियों को ठंड में आराम देगी।
इतिहास जिसे कर्नाटक वॉर के नाम से जानता है, वह फ्रेंच और ब्रिटिश व्यापारियों के सिक्योरिटी गार्ड्स के बीच लड़ा जा रहा था।
वो यहां इसलिए लड़ रहे थे, क्योकि उधर यूरोप में उनके राजा आपस मे लड़ रहे थे। 1740 से 1764 के बीच ये लड़ाइयां भारत मे रुक रुक कर चलती रही।
अभी तक इस लड़ाई का फ्रेंच का पलड़ा भारी था। डूप्ले एक योद्धा था, पॉलिटिशियन था। लोकल किंग्स की फ़ौजें अपने युद्धों के लिए उधार लेता, बदले में उनके लिए यूरोपीय ट्रेनिंग और हथियार उपलब्ध कराता।
फिलहाल अर्काट के चन्दा साहिब के समर्थन से ब्रिटिश ट्रेड का कंपटीशन खत्म कर रहा था।
अब ब्रिटिश को भी लोकल्स से मदद लेने की जरूरत थी। त्रिचनापल्ली को चन्दा साहिब ने घेर रखा था। उसकी मदद के लिए फ्रेंच आर्टिलरी थी।
औऱ किले के भीतर क्लाईव था। वो 200 आदमी लेकर त्रिचनापल्ली की मदद के लिए आया था।