अर्थ मतलब पैसा, रोकड़ा, नगदी। इसके बिना संगठन सूना हो जाता है, जैसे नोटबन्दी के बाद विपक्ष कमजोर हो जाता है, (और सत्तापक्ष लबालब..)
इसलिए चाणक्य की किताब, जो लोक प्रशासन पर है, उसका नाम अर्थशास्त्र है। प्रशासक यदि मूर्ख, आदतन भिखारी और
अनपढ़ न हो, तो जानता है सरकार चलाने को पैसा टैक्स से आएगा।
और तब आयेगा, जब जनता कमाएगी, खुश और संतुष्ट रहेगी। उसे न्याय और सरकार से सहयोग मिलेगा। अब अंग्रेज तो मूर्ख थे नही, अनपढ़ भिखारी भी न थे।
इसलिए 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट आया।
दरअसल ब्रिटिश पार्लियामेंट, ईस्ट इंडिया कम्पनी के निवेशकों के दुख से दुखी थी। कम्पनी लॉस में जा रही थी, और क्लाईव जैसे कर्मचारी, अपनी दौलत का नंगा प्रदर्शन कर रहे थे। पार्लियामेंट ने दखल दिया। अब बंगाल में कम्पनी को, सरकारी कायदों के तहत चलना था। एक अच्छा प्रशासन देना था।
इसके लिए एक पूरा सिस्टम बनाना था। कोई गवर्नर होना चाहिए, जो क़ानूम वगेरह डिफाइन करे। वो पार्लियामेंट को जवाबदेह हो। उसकी लोकल काउंसिल हो, जो उसकी मदद करे ( नियंत्रण रखें)
शासन में लोकल कस्टम औऱ कायदों का सम्मान हो। कोर्ट कचहरी फेयर न्याय दें, उद्विग्न के पास अपील के लिए
ऊपरी अदालत हो। टैक्स सरकार के पास पूरा आये, बीच में कोई खा न जाये। ऊपर से नीचे, सबके काम, जिम्मेदारी और दायरे तय हों।
वारेन हेस्टिंग्ज कर्नाटक में क्लर्क था। फिर बंगाल पोस्टिंग मिली। वहां क्लाईव ने उसे मीरजाफर के पास रेजिडेंट बना दिया। इसके बाद वह बंगाल गवर्नर की
काउंसिल में मेम्बर रहा। यहां झगड़ा विवाद हुआ, तो रिजाइन करके इंग्लैंड चला गया।
मगर फिर जब रोटी रोजी के लाले पड़े तो फिर से नौकरी एप्लाई किया। अनुभवी था, उसे मद्रास में लेफ्टिनेंट गवर्नर बना दिया गया। 1772 में प्रमोशन हुआ, और अब वो बंगाल का गवर्नर बना।
रेगुलेटिंग एक्ट ने इस पोजीशन को गवर्नर जनरल में कन्वर्ट कर दिया था। अब उसके कंधों पर गंजा सिर, औऱ बड़ी बड़ी जिम्मेदारी थी।
पहले तो उसने द्वेध शासन खत्म किया। नवाब के बेटे को पेंशन दे दी। राजकाज अपने हाथ लिया।
- उसने सड़को से टोल-नाके (चौकी प्रथा) हटवाए।
यहां जमींदारों के गुंडे प्राइवेट वसूली करते थे। माल पर चुंगी घटाई, जिससे कम्पलायंस बढा, सरकार की कमाई बढ़ गयी।
- लगान वसूली के लिए कलेक्टर का पद सृजन किया। दो तीन जिलों पर एक राजस्व मंडल बना, जिस पर कमिश्नर बैठता। लगान सीधे सरकारी खाते में जमा होता।
लगान वसूली के लिए ठेकेदार नियुक्त किये। ( हालांकि आगे कार्नवालिस इसे पलटने वाला था)
- राजकोष मुर्शिदाबाद से उठाकर कलकत्ते लाया। टकसाल बनाई, और सिक्के ढालने शुरू किए। करेंसी रेगुलेशन की शुरुआत हुई। कलकत्ते में बैंक बना। कर्ज देने का पहला इंस्टिट्यूशनल मैकेनिज्म खड़ा हुआ।
- जिला स्तर पर दीवानी और फौजदारी अदालतें बनाई। कलकत्ते में एक सुप्रीम कोर्ट बनाई, जहां निचली अदालतों के फैसले, अपील और रिव्यू हो सकें। कलकत्ता एक तरह से राजधानी हो गयी। जो 1911 तक भारत की राजधानी रहने वाली थी।
- डाक टिकट जारी हुआ। याने आम आदमी भी सरकार को पैसा देकर,
उसकी डाक सर्विस से चिठ्ठी पत्री, या व्यापारिक कोरिस्पोंडेंस कर सकता था।
- हैंडीक्राफ्ट आर्टिसन को एडवांस देकर प्राइज फिक्स करने को इल्लीगल किया गया। इससे दस्तकार अपना माल, किसी को भी बेचने को स्वतंत्र हुए। (UPSC वाले ददनी प्रथा के अंत के रूप में रट सकते है)
- दस्तक प्रथा बन्द की। बेसिकली यह यूरोपीय व्यापारियों के लिए फर्रुखसियर द्वारा जारी टैक्स छूट थी। अंग्रेज जब व्यापारी थे, तो इसमे फायदा था। जब राजा बन गए, तो टैक्स का नुकसान समझ आया,चटपट बन्द किया।
कई देशों में देखा गया है कि बनिया पार्टी वाले, विपक्ष में व्यापारी के सहूलियत
की खूब वकालत करते है। सत्ता में आकर, उसी पर टैक्स दोगुना कर देते है। पोजिशन के साथ विचार बदलने की स्थिति का, दस्तक उदाहरण है।
-- कम्पनी के अफसरों के लिए बिना लाइसेंस निजी व्यापार करना प्रतिबंधित किया। और लाइसेंस जारी ही नही करता था। याने - न खाऊंगा, न खाने दूंगा।
( वेल, लेट से पता चला कि कईओ को भी जारी किया,हिहिहि)
- नमक अफीम तम्बाकू सुपारी पर केवल सरकार ही व्यापार कर सकती थी। याने ये प्रोडक्ट नेशनलाइज हो गए। इनके लिए, इलाककावार ठेके दिए जाते। सरकारी टेंडर प्रथा शुरू हुई।
ज्यादा लिखना ठीक नही। कोई UPSC वाला गलती खोजकर पीछे पड़ जायेगा।
मेरा उद्देश्य एक पुराना किस्सा सुनाना भर है।वैसे भी हम भक्तों से निपट सकते हैं,UPSC बारम्बार फेल हो रहे विद्यार्थी से नही।(उसकी जानकारी, पास वालों से गहरी होती है)
इधर मेरी रुचि नंदकुमार के किस्से औऱ हेस्टिंग्ज के इम्पीचमेंट पर जल्द पहुँचने की है। इसके पहले यह बताना अच्छा होगा,
कि वारेन हेस्टिंग्ज ओवरऑल एक कल्पनाशील प्रशासक था।
उसने कई प्रयोग किये, और उसके प्रशासनिक सुधारों से बंगाल में हालात बेहतर हुए।
पुनश्च- हेस्टिंग्ज को बनारस की संधि और शाहआलम से कुछ इलाके छीन लेने के लिए भी याद किया जाता है।
दरअसल, मराठे अपनी खोई ताकत पाने की कोशिश में उठापटक मचा रहे थे। मुगल बादशाह, शाहआल रोहिला अफगानों के संरक्षण में था। महादजी सिंधिया ने 1771 में दिल्ली जीती, और अपने शाहआलम को अपने संरक्षण में गद्दी पर बिठाया।
मराठों से सम्बन्ध की सजा देते हुए, हेस्टिंग्ज ने उसके मानिकपुर वगैरह इलाके दबा लिए और राजा बनारस को बेच दिया। इसके बाद दिल्ली पर प्रभुत्व के लिए मराठा और अंग्रेजो के बीच लम्बा संघर्ष शुरू हुआ, और 1803 की पडपडग़ंज की लड़ाई तक चला।
हिकी के बंगाल गजट, और जोन्स की एशियाटिक सोसायटी के लिए भी, हेस्टिंग्ज को याद किया जाता है। @RebornManish
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कभी चोरी करता, कभी मगर पकड़ता.... गांव वालों ने उस आवारा पर निकम्मे का लेबल लगा दिया था। वो घर से जेवर चुराकर भाग गया।
चाय की कैंटीन के भांडे धोने से शुरू कारकीर्दी देहजीविनियों की दलाली करते, टपोरीगिरी करते, मवालीगिरी करते आगे बढ़ती रही।
आत्मनिर्भरता का जुनून गजब का था। कभी सीधे तो कभी उल्टे लेटकर भी पैसे के मामले में आत्मनिर्भर बन गया।
कुछ समय बाद अच्छा खासा माल बटोरकर गांववालों को चकित करने गांव पहुंच गया। बाप ने कमाए पैसे के बारे में पूछा तो किसी बिनपंजीकृत संस्था की शाखा ज्वाइन करने का बता दिया।
बाप को शक हुआ.... भला बिना रजिस्ट्रेशन की शाखा ज्वाइन करने से इतना पैसा थोड़े ना कमाया जाता है! बाप ने गान पर एक लात मारकर घर से निकल जाने को कहा। वो बोला.....
"जाता हूं, चला जाता हूं। मुंह से करो बात, धंधे पर क्यों मारते हो लात?"
Rajiv Nayan Bahuguna
यो मद भक्तस्य मे प्रियह
मुझ जैसा व्यक्ति, जो न अख़बार पढ़ता है, न टीवी देखता है, न सिनेमा. और वास्तविक जीवन में जिसका फ्रेंड सर्किल भी बहुत कम है, अंध भक्तों को चिढ़ा कर उनकी बौखलाहट से ही अपनी दिलचस्पी कर सकता है.
अंध भक्त को खिजाना किसी अंधे को चिकुटी काट कर भाग जाने जैसा है, जो काम हम बचपन में खूब करते थे.
अंधे की तरह एक अंध भक्त भी गालियां बकने, अपना सर नोंचने, बद हवास दौड़ कर चोट खाने और अँधेरे में पत्थर फेंकने के सिवा कुछ नहीं कर सकता.
इन दिनों चार तरह के अंध भक्त मार्किट अथवा प्रचलन में हैं :-
- विश्व गुरू के अंध भक्त.
ये ये सम्प्रदायिकता और अंध भक्ति के कोढ से गल चुके हैं.
कोढ़ी की तरह इन्हे भी मंहगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और देश की तबाही का कोई दर्द नहीं होता.
कल से एक सवाल सोशल मीडिया पर तैर रहा है कि जनरल बोगीज़ भारतीय ट्रेनों के आगे या पीछे ही क्यूँ लगाई जाती हैं, बीच में क्यूँ नहीं?
ये सच में एक गंभीर सवाल है। हमको कुछ बातें मालूम थीं और कुछ गूगल रिसर्च करने पर पता चली हैं। नीचे बता रहे-
* ये एक ब्रिटिशकालीन प्रथा है जिसको अब भी ढोया जा रहा। पहले इंजन कोयले पर चलती थी जिससे धुआं और धूल पीछे की तरफ आता था। चूंकि तब फर्स्ट और सेकेंड क्लास में सिर्फ अंग्रेज़ चढ़ते थे और जनरल में नेटिव लोग इसीलिए ये धुआं और धूल नेटिवों के लिए ही रिज़र्व रखा गया।
इसी परम्परा को आज़ादी के बाद भी जारी रखा गया।पहले कोयला फिर डीजल इंजिन का धुआं जनरल डब्बों के लोगों के लिए ही रिज़र्व रहा। एक तर्क ये भी दिया गया कि इंजिन से निकलने वाली गर्मी जनरल वाले यात्रियों को ठंड में आराम देगी।
इतिहास जिसे कर्नाटक वॉर के नाम से जानता है, वह फ्रेंच और ब्रिटिश व्यापारियों के सिक्योरिटी गार्ड्स के बीच लड़ा जा रहा था।
वो यहां इसलिए लड़ रहे थे, क्योकि उधर यूरोप में उनके राजा आपस मे लड़ रहे थे। 1740 से 1764 के बीच ये लड़ाइयां भारत मे रुक रुक कर चलती रही।
अभी तक इस लड़ाई का फ्रेंच का पलड़ा भारी था। डूप्ले एक योद्धा था, पॉलिटिशियन था। लोकल किंग्स की फ़ौजें अपने युद्धों के लिए उधार लेता, बदले में उनके लिए यूरोपीय ट्रेनिंग और हथियार उपलब्ध कराता।
फिलहाल अर्काट के चन्दा साहिब के समर्थन से ब्रिटिश ट्रेड का कंपटीशन खत्म कर रहा था।
अब ब्रिटिश को भी लोकल्स से मदद लेने की जरूरत थी। त्रिचनापल्ली को चन्दा साहिब ने घेर रखा था। उसकी मदद के लिए फ्रेंच आर्टिलरी थी।
औऱ किले के भीतर क्लाईव था। वो 200 आदमी लेकर त्रिचनापल्ली की मदद के लिए आया था।