#आम की एक अच्छी बात मुझे यह लगती है कि इसका #सीज़न लंबा चलता है. सबसे पहले #दक्षिण_भारत के आम आने शुरु हो जाते हैं. जब उनकी संख्या कम होने लगती है, तो #उत्तर_भारत के आना शुरु हो जाते हैं. इस तरह कम-से-कम #तीन_चार_महीनों का बंदोबस्त तो हो ही जाता है.
इसके विपरीत कुछ #फल ऐसे हैं, जो #चेहरा दिखाकर #ग़ायब हो जाते हैं. जैसे #जामुन और #लीची. मुश्किल से महीने-भर दिखते हैं. जैसे डरते हों कि किसी की नज़र न लग जाय. कभी-कभी मुझे ये फल #शर्मीले या #अहंकारी लगते हैं. कभी ऐसा भी लगता है कि इनमें आत्म- विश्वास थोड़ा कम है.
आम बहुत आत्म- विश्वासी किस्म का फल है. वह जानता है कि लोग तीन चार महीनों में उससे बोर नहीं होंगे, बल्कि उसके जाने से दुःखी ही होंगे.
आम की एक बात मुझे अच्छी नहीं लगती. यह बहुत दुविधा में डालता है.कच्चा खाएं या पका हुआ. चटनी खाएं या आम-पना. काटकर खाएं या चूसकर. फल खाएं या रस पीएं.
आमपापड़ खाएं या आम?
सबसे बड़ी दिक्कत तो तब होती है, जब #तोतापरी, #फजली, #ज़र्दालु, #सिंदूरी, #लंगड़ा, #चौसा, #दशहरी, #गुलाबखास- सारे एक साथ आ जाते हैं. तब लगता है कि जिसने इतनी तरह के आम बनाए, उसे पेट भी तो थोड़ा बड़ा बनाना चाहिए था. पेट भी सोचता होगा कि आम इतने सारे
और वह सिर्फ़ एक- बहुत नाइंसाफ़ी है.
वैसे बता दुं साहब दक्षिण वाला #काटकर खाते हैं उत्तर वाला #चुसकर क्योंकि दक्षिण वाले का साइज बड़ा होता है जो मुंह में नहीं आता 🤣😜
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‘मैं सोचता हूं कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा. भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर पीएम केयर फंड खोलकर रुपये देंगे. मेरे नौ बच्चे हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने
किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया.’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों को चूतिया बनाना जानते थे, कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी.
हम तो कहेंगे, दामू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था. हां, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाज़ों के नियम और नीति का पालन करता. इसलिए जहां उसकी मण्डली के और लोग गांव के सरगना
भरी सभा मे कह दिया कि यूक्रेन मसले पर भारत सरकार की नीति को समर्थन करते हैं। राजनेता के बतौर किसी नेशनल फिगर की जो जिम्मेदारी होती है, उसका निबाह होता देखना सुखद है।
खास तौर पर जब हमारा सुप्रीम लीडर खुद, विदेशियों के सामने
भारतीयों का मजाक बनाता है। जी हां, "घर मे शादी है- पैसे नही है" ये डॉयलॉग जापान में था।
"अबकी बार ट्रम्प सरकार" USA में बोलते दिखे, तो "एक पाव गाली खाने से चमकते चेहरे" का डायलॉग लन्दन में बोला गया।
"भारत मे पैदा होने पर शर्म आती थी" से लेकर "पहले की सरकारो ने कुछ नही किया"
तक.. अनेक उदाहरण मिलेंगे, जो विदेशी धरती से भारत, भारतीयों के लिए कहे उद्गार है। सुप्रीम लीडर को लगता है कि वे विपक्ष के धुर्रे उड़ा रहे हैं। मगर वे भारत के शीर्ष पद की गरिमा उड़ा रहे थे।
ऐसे में, G7 में जेलिन्सकी से अनावश्यक मिलना, रशियन तेल को यूरोप में बेचने के लिए अपने
जब शाहजहां के कार्यकाल में मुग़ल गद्दी को कब्जाने के लिए उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई हुई तो औरंगजेब के पक्ष में 21 हिंदू कुलीन (nobles)थे और दारा शिकोह के पक्ष में 24 हिंदू कुलीन थे। इससे पता चलता है कि उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब को अच्छे खासे हिंदू कुलीनों का
समर्थन था।
औरंगजेब ने सत्ता हासिल करने के बाद राजा रघुनाथ को वित्त मंत्री नियुक्त किया। राजा रघुनाथ शाहजहां के कार्यकाल में भी वित्त मंत्री थे। राजा रघुनाथ हालांकि कुछ साल ही औरंगजेब के साथ रहे और उनकी मौत हो गई, लेकिन औरंगजेब रघुनाथ का अंत तक कायल रहा।
रघुनाथ के काम से औरंगजेब इतना खुश था कि उसे राजा की उपाधि दी और उसका मनसब का रैंक बढ़ा कर 2500 किया। फ्रेंच यात्री बर्नियर ने औरंगजेब के दरबार में राजा रघुनाथ के रूतबे का उल्लेख किया है।
1679 से 1707 के बीच औरंगजेब के कार्यकाल में, मुगल प्रशासन में हिंदू अधिकारियों की संख्या
झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी इमरती प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी. रह-रहकर उसके मुंह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे. जाड़ों की रात थी,
प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गांव अन्धकार में लय हो गया था.
दामू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं. सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ.
नंदू चिढ़कर बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूं?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से एंजॉय किया,
उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पांव पटकना नहीं देखा जाता.’
नीचों का कुनबा था और सारे देश में बदनाम. दामू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता. नंदू इतना काम-चोर था कि आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता. इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी.
सबेरे नंदू ने कोठरी में जाकर देखा, तो इमरती ठण्डी हो गयी थी. उसके मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं,मानो उसकी मृत देह मक्खियों से पूछ रही हो कि क्या राहुल गांधी आए थे।
पथराई हुई आंखें ऊपर टंगी हुई थीं. सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्चा मर गया था.
नंदू भागा हुआ दामू के पास आया. फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे. पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे.
मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था. कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी. घर में तो पैसा
इस तरह ग़ायब था, जैसे देहजीवा के शरीर से कपड़े?
बाप-बेटे रोते हुए गांव के ज़मींदार के पास गये. वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे. कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे. चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए. पूछा-क्या है बे दामुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं