सुप्रीम ठोक की स्थापना के अगले ही साल हो गया था। फांसी की पर टांगा गया था हिंदुस्तान का पहला व्हिसिलब्लोवर- राजा नंदकुमार,
और उसका अपराध- राजा की रिश्वतखोरी को उजागर करना।
रेगुलेटिंग एक्ट के निर्देशों के बाद वारेन हेस्टिंग्स अब बंगाल का गवर्नर जनरल था, और उसके हाथ मे एक नई प्रशासनिक व्यवस्था को बिठाने का जिम्मा था।
मगर वह निरंकुश बादशाह न बने, एक्ट में इसकी भी व्यवस्था थी। वाइसराय की एक काउंसिल होनी थी, जिसमे 5 लोग थे।
स्वयं वाइसराय चेयरमैन, और चार दूसरे अफसर।
और उनमें से तीन अक्सर हेस्टिंग्ज से असहमत रहते। इसका असर यह था कि कमेटी में झगड़े और कटुता का वातावरण था। इनमे से एक मेम्बर को हेस्टिंग्ज के करप्शन का पता लगा।
राजा नंदकुमार एक जमींदार थे। हेस्टिंग्ज ने उसके लड़के को किसी उच्च पद पर नियुक्त करने के लिए नंदकुमार से एक लाख की रिश्वत ली थी।
राजा नंदकुमार ने यह भी बताया कि मुन्नी बेगम से ढाई लाख की रिश्वत ली गयी है, कि उसे अल्पवयस्क नवाब की संरक्षिका नियुक्त कर दिया जाये।
दरअसल बालक नवाब की वार्षिक पेंशन 17 लाख तय हुई थी।
ये तो हेस्टिंग्ज को घेरने का बढ़िया मौका था। नंदकुमार से एक लिखित शिकायत प्राप्त की गई, और जांच के लिए काउंसिल ने बैठक बुलाई। अब चेयरमैन हेस्टिंग्ज ने इनकार कर दिया। अपने ही करप्शन की जांच की बैठक भला क्यों बुलाते।
अब कमेटी ने स्वतः ही बैठक करके हेस्टिंग्ज पर आरोप साबित मान लिया। उसे साढ़े तीन लाख कम्पनी के खजाने में जमा करने का आदेश भी पारित हो गया।
मगर टेक्निकल पेंच था। जिस कमेटी की बैठक उसके चेयरमैन ने ऑफिशियल बुलाई ही नही, उसका निर्णय मान्य कैसे हो??
विवाद बढा। सुप्रीम कोठे की स्थापना हो चुकी थी। बीच बचाव में यह तय हुआ कि नंदकुमार वहां अपनी शिकायत दर्ज करें। बड़े अफसरों के दबाव औऱ शह में राजा नंदकुमार में यही किया।
उन्हें अंदाज नही था कि चीप जस्टिस, हेस्टिंग्ज के लंगोटिया यार थे। उधर हेस्टिंग्ज ने दूसरी चाल चली।
नंदकुमार को गिरफ्तार कर लिया गया। आरोप- फोर्जरी और षड्यंत्र करना..
दरअसल एक पेपर पैदा हुआ। जिसके हिसाब से राजा नंदकुमार ने किसी महाजन से कभी कोई कर्ज लिया था। और दूसरा पेपर, जो उस कर्ज को पटाने की फर्जी रसीद थी।
कहने का मतलब कि नंदकुमार में कर्ज लेकर, पटाने की फर्जी रसीद बनाकर, उसके बूते कर्ज पटाने से इनकार कर रहे हैं।
अब सवाल ये, कि घटना तो कलकत्ता कोर्ट के क्षेत्राधिकार के बाहर हुई थी। यहां मामला दर्ज कैसे हो।।
तो PIL दाखिल हुई।
याने इस मामले से कलकत्ता शहर में शांति भंग का खतरा है। ऐसा एक कलकत्ता वासी ने अर्जी दी। अर्जी फट से मान ली गयी। नंदकुमार गिरफ्तार हुए। कोर्ट देर रात तक मुक़दमा सुनती रही।
और नंदकुमार को दोषी पाया गया। फांसी की सजा दे दी।
अब सोचिये कि फोर्जरी की सजा फांसी क्यो, तो भई ऐसा एक इंग्लिश कानून था, 1829 से, फोर्जरी के अपराध में मौत की सजा थी। इस कानून का ज्यूरिडिक्शन कलकत्ता नही था। लेकिन सैयां भये चीप जस्टिस तो डर काहे का। 1775 में नंदकुमार को लटका दिया गया।
मामला आया गया हो गया। मगर जब चुप रहेगी ज़बान ए खंजर, लहू पुकारेगा आस्तीनों का। हेस्टिंग्ज 1885 तक गवर्नर रहा। इस वर्ष पिट का इंडिया एक्ट आया। इसके विरोध में उसने इस्तीफा दे दिया।
औऱ एक तरह से सरकार से दुश्मनी मोल ले ली। उसके कर्मो के चर्चे, पहले ही लन्दन में हो रहे थे।
मशहूर ब्रिटिश एमपी, एडमंड बर्क ने पार्लियामेंट में उस पर महाभियोग लगाया। नंदकुमार केस को उसमे प्राइम एग्जाम्पल लिया गया।
एक्सटॉर्शन, रिश्वत, पद का दुरूपयोग, खजाने से पैसे की अफरातफरी जैसे 20 अपराध, भरी संसद में उस पर पढ़े गए। सात साल तक, 148 कार्यदिवस बैठके हुई।
ग्रेट वारेन हेस्टिंग्स की टोपी उछलती रही।
हेस्टिंग्ज अंततः छूट गए।मगर प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी। फाइन से बचने के लिए खुद को दिवालिया घोषित किया।आज भी इतिहास के छात्रों से पूछा जाता है कि भारत का वो अकेला गवर्नर जनरल कौन था, जिस पर ब्रिटिश पार्लियामेंट ने महाभियोग चलाया था।
कौन था जिसने भारत के ज्यूडिशियल सिस्टम पर हत्या का पहला दाग लगाया। कौन था जिसने भारत के आने वाले तानाशाहों को, अपनी पोल खोलने वालों को फंसाने, बर्बाद करने, मार डालने की कानूनी राह दिखाई।
‘मैं सोचता हूं कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा. भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर पीएम केयर फंड खोलकर रुपये देंगे. मेरे नौ बच्चे हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने
किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया.’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों को चूतिया बनाना जानते थे, कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी.
हम तो कहेंगे, दामू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था. हां, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाज़ों के नियम और नीति का पालन करता. इसलिए जहां उसकी मण्डली के और लोग गांव के सरगना
भरी सभा मे कह दिया कि यूक्रेन मसले पर भारत सरकार की नीति को समर्थन करते हैं। राजनेता के बतौर किसी नेशनल फिगर की जो जिम्मेदारी होती है, उसका निबाह होता देखना सुखद है।
खास तौर पर जब हमारा सुप्रीम लीडर खुद, विदेशियों के सामने
भारतीयों का मजाक बनाता है। जी हां, "घर मे शादी है- पैसे नही है" ये डॉयलॉग जापान में था।
"अबकी बार ट्रम्प सरकार" USA में बोलते दिखे, तो "एक पाव गाली खाने से चमकते चेहरे" का डायलॉग लन्दन में बोला गया।
"भारत मे पैदा होने पर शर्म आती थी" से लेकर "पहले की सरकारो ने कुछ नही किया"
तक.. अनेक उदाहरण मिलेंगे, जो विदेशी धरती से भारत, भारतीयों के लिए कहे उद्गार है। सुप्रीम लीडर को लगता है कि वे विपक्ष के धुर्रे उड़ा रहे हैं। मगर वे भारत के शीर्ष पद की गरिमा उड़ा रहे थे।
ऐसे में, G7 में जेलिन्सकी से अनावश्यक मिलना, रशियन तेल को यूरोप में बेचने के लिए अपने
जब शाहजहां के कार्यकाल में मुग़ल गद्दी को कब्जाने के लिए उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई हुई तो औरंगजेब के पक्ष में 21 हिंदू कुलीन (nobles)थे और दारा शिकोह के पक्ष में 24 हिंदू कुलीन थे। इससे पता चलता है कि उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब को अच्छे खासे हिंदू कुलीनों का
समर्थन था।
औरंगजेब ने सत्ता हासिल करने के बाद राजा रघुनाथ को वित्त मंत्री नियुक्त किया। राजा रघुनाथ शाहजहां के कार्यकाल में भी वित्त मंत्री थे। राजा रघुनाथ हालांकि कुछ साल ही औरंगजेब के साथ रहे और उनकी मौत हो गई, लेकिन औरंगजेब रघुनाथ का अंत तक कायल रहा।
रघुनाथ के काम से औरंगजेब इतना खुश था कि उसे राजा की उपाधि दी और उसका मनसब का रैंक बढ़ा कर 2500 किया। फ्रेंच यात्री बर्नियर ने औरंगजेब के दरबार में राजा रघुनाथ के रूतबे का उल्लेख किया है।
1679 से 1707 के बीच औरंगजेब के कार्यकाल में, मुगल प्रशासन में हिंदू अधिकारियों की संख्या
झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी इमरती प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी. रह-रहकर उसके मुंह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे. जाड़ों की रात थी,
प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गांव अन्धकार में लय हो गया था.
दामू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं. सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ.
नंदू चिढ़कर बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूं?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से एंजॉय किया,
उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पांव पटकना नहीं देखा जाता.’
नीचों का कुनबा था और सारे देश में बदनाम. दामू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता. नंदू इतना काम-चोर था कि आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता. इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी.
सबेरे नंदू ने कोठरी में जाकर देखा, तो इमरती ठण्डी हो गयी थी. उसके मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं,मानो उसकी मृत देह मक्खियों से पूछ रही हो कि क्या राहुल गांधी आए थे।
पथराई हुई आंखें ऊपर टंगी हुई थीं. सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्चा मर गया था.
नंदू भागा हुआ दामू के पास आया. फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे. पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे.
मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था. कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी. घर में तो पैसा
इस तरह ग़ायब था, जैसे देहजीवा के शरीर से कपड़े?
बाप-बेटे रोते हुए गांव के ज़मींदार के पास गये. वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे. कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे. चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए. पूछा-क्या है बे दामुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं