गर्भस्थ शिशु चैतन्य दीक्षा...

इतिहास का महत्वपूर्ण पृष्ठ! अर्जुन का राजभवन है, भगवान श्रीकृष्ण पधारे हुए हैं, स्वागत के लिए सुभद्रा उपस्थित है, हाथों में जल पात्र लिए वासुदेव श्रीकृष्ण का पद प्रक्षालन करने के लिए। पूर्ण श्रद्धा एवं आदर से सुभद्रा भगवान श्रीकृष्ण को भोजन (1/36) Image
कराती है, और सेवा सुश्रुषा करती है। भगवान श्रीकृष्ण उसके निर्मल हृदय से प्रसन्न होकर कहते हैं, “सुभद्रा! तुम एक अत्यन्त तेजस्वी बालक की माता होने का गौरव प्राप्त करोगी। तुम्हारे गर्भ से जन्म लेने वाला बालक इतिहास में अपना नाम अंकित कर कुलगौरव को बढ़ाएगा।”

ऐसा कहकर भगवान (2/36)
श्रीकृष्ण ने अपना वरद हस्त सुभद्रा के सिर पर रख कर उसे आशीर्वाद दिया और प्रस्थान कर गए। समय बीता, बालक ने जन्म लिया, जन्म से ही वह शस्त्र विद्या एवं वेदादि ऋचाओं में पारंगत था, उसे कुछ भी सीखने में थोड़ा ही समय लगता था। उसके कौशल से सभी मुग्ध थे। काल का चक्र घूमा और (3/36)
महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हो गया गया, एक तरफ पाण्डव और दूसरी ओर दुर्योधन, दुःशासनादि सौ कौरव, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह सदृश अनेक महारथी। काफी प्रयास और सैन्य बल होने के बावजूद भी कौरवों के पक्ष के योद्धा काल कवलित हो रहे थे, जबकि इधर पांचों पाण्डव सकुशल थे।
(4/36)
एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि अर्जुन उपस्थित नहीं थे, यह बात कौरवों को पता चली। वे तो ऐसे ही संयोग की तलाश में थे, तत्काल उन्होंने 'चक्रव्यूह' की रचना की, यह सेना की एक ऐसी संरचना थी, जिसे भेद कर आगे जाने और विजय प्राप्त करने की विद्या अर्जुन के अलावा अन्य किसी को ज्ञात न थी। (5/36)
उधर पाण्डवों के खेमे में खलबली मची हुई थी, क्योंकि युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव इनमें से कोई भी उस भयंकर चक्रव्यूह को भेदने में समर्थ नहीं था, अन्दर प्रविष्ट होते ही पराजय निश्चित थी। पाण्डव हतप्रभ थें, तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, 'युधिष्ठिर! आज युद्ध के लिए अभिमन्यु जाएगा।'
(6/36)
युधिष्ठिर बोले, 'प्रभु! आप यह कैसा आदेश दे रहे हैं? अभिमन्यु तो अभी बालक ही है, वह कैसे अश्वत्थामा, दुर्योधन, दुःशासन जैसे योद्धाओं के चक्रव्यूह को भेद सकेगा?'

कृष्ण पुनः बोले, 'युधिष्ठिर देर न करो! अभिमन्यु को बुलाओ, उसे बालक न समझो, वह चक्रव्यूह भेदन की क्रिया जानता (7/36)
है।'

अभिमन्यु ने पहुंचते ही भगवान कृष्ण को एवं युधिष्ठिर को दण्डवत प्रणाम किया। युधिष्ठिर बोले, 'पुत्र, भगवान कृष्ण का आदेश है, कि आज तुम्हें युद्ध के लिए जाना होगा, परन्तु क्या तुम चक्रव्यूह भेदन की क्रिया जानते हो?'

अभिमन्यु बोला, “तात! आप निश्चिन्त रहें, मैं अकेला (8/36)
ही युद्ध के लिए पर्याप्त हूं। जब मैं गर्भ में था, तो एक रात्रि को पिताजी (अर्जुन) मां को चक्रव्यूह की संरचना के बारे में विस्तार से बता रहे थे, चक्रव्यूह के सात द्वार होते हैं, एक के बाद एक कर के वे सभी द्वारों को भेदने की युक्ति समझा रहे थे। तब मैं गर्भ में से सारी बातें (9/36)
स्पष्ट सुन रहा था, वे बातें मुझे अभी भी स्मरण हैं। सातवें द्वार के भेदन के बाद मां को नींद आ गई थी, जिससे आगे की बात मैं सुन न सका था।”

युद्ध प्रारम्भ हुआ, और कौरवों का चक्रव्यूह ध्वस्त होने लगा, अभिमन्यु एक के बाद एक द्वार भेदता ही जा रहा था, उसके इस अद्भुत रण कौशल व (10/36)
ज्ञान से कौरवों के हौसले पस्त हो चुके थे। सातों द्वार उसने ध्वस्त कर दिये परन्तु अभिमन्यु को चक्रव्यूह से वापस निकलने की विधि ज्ञात नहीं थी, वह उसे गर्भ में सुन न सका था, जिसकी वजह से उसे वीर गति प्राप्त हुई, परन्तु तब तक संध्या हो चुकी थी और उस दिन के युद्ध का समापन हो (11/36)
चुका था। कौरवों की भारी क्षति हुई थी, मात्र एक अभिमन्यु के कारण।

मात्र एक दिन के उस रणकौशल से आज अभिमन्यु का नाम इतिहास में अमर हो चुका है। और उसकी इस विजय के पीछे थी गर्भस्थ शिशु चेतना की वह क्रिया, जो श्रीकृष्ण ने एक दिन सुभद्रा का आतिथ्य स्वीकार कर उसके सिर पर हाथ फेर (12/36)
कर की थी। उसकी सफलता के पीछे वह दीक्षा थी, जो श्रीकृष्ण ने सुभद्रा को आशीर्वाद स्वरूप प्रदान की थी। इस 'गर्भस्थ शिशु चैतन्य दीक्षा' द्वारा ही गर्भ में पल रहे अभिमन्यु में वह धारणा शक्ति आ पाई थी, चैतन्यता आ-पाई थी, जिससे वह गर्भ में रहकर मां के माध्यम से ज्ञान प्राप्त (13/36)
करता रहा था।

गर्भ में ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया...

शुकदेव का उदाहरण भी हमारे सामने है, वह मां के गर्भ में पूरे इक्कीस महीने रहा और अपनी मां से ज्ञान समझता, मां जो कुछ कहती वह अपनी मां को सुनता।

गर्भ में से ही उसने पूछा, “क्या मैं पूर्ण परिपक्व और ज्ञानवान बन गया (14/36)
हूं?”

उसके पिता वेदव्यास ने कहा, “तुम पूर्ण सक्षम हो, मैंने जो कुछ तुम्हें ज्ञान देना चाहा वह तुम्हें दिया है।”

तब वह गर्भ से बाहर आया और जन्म लेने के बाद तुरन्त जंगल की ओर रवाना हो गया, पूर्ण ज्ञान और चेतना के साथ, पूर्णता के साथ। वह ज्ञान जो गर्भ से बाहर आने के हजार (15/36)
वर्षों के बाद भी नहीं प्राप्त हो सकता था, उसे उसने गर्भवास में ही प्राप्त कर लिया। गर्भ के बालक की चैतन्यता मां का गर्भ अपने आप में पूर्ण ब्रह्माण्ड है, और मां का गर्भ संसार का सबसे सुकोमल, सक्षम और सुरक्षित स्थान है। जब तक वह शिशु मृत्यु लोक में जन्म नहीं ले लेता तब (16/36)
तक वह ब्रह्माण्ड से जुड़ा होता है, क्योंकि उसमें निवास कर रही आत्मा ब्रह्माण्ड के ही किसी कोने से आई होती है। हो सकता है वह देव लोक से आया बालक हो, हो सकता है वह पितृ लोक से आया बालक हो, हो सकता है कि वह किसी और लोक से आया हुआ बालक हो, जिस लोक से भी वह बालक आया हुआ है, उस (17/36)
लोक से उसका सीधा सम्पर्क और साहचर्य रहता है। यह सम्पर्क में रहने की क्रिया इसलिए होती है, कि उसका सारा शरीर ब्रह्माण्डमय होता है। वह केवल कानों से ही नहीं सुन पाता, वह केवल दो नेत्रों से ही नहीं देख पाता, अपितु उसके सारे शरीर के हजारों-हजारों रोम छिद्र अपने आप में कान (18/36)
होते हैं, और प्रत्येक छिद्र अपने आप में परिपक्व स्वरूप होता है, इसलिए गर्भ का शिशु अपने आप में ज्यादा समर्थ होता है, किसी भी ज्ञान को ग्रहण करने में ज्यादा सक्षम होता है, वह किसी भी क्षेत्र में आसानी से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

बाहरी जीवन में जो ज्ञान प्राप्त करने (19/36)
में बीस वर्ष लगते हैं, वह ज्ञान गर्भ में पल रहा शिशु मात्र बीस दिन में ही धारण कर सकता है। और फिर उसमें विस्मृति की क्रिया नहीं होती अर्थात जो एक बार सुन लिया, समझ लिया वह शिशु के मानस पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है।

मां के संस्कारों व दोषों का गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव.. (20/36)
गर्भ का बालक तो ब्रह्मस्वरूप और आत्मस्वरूप होते हुए शुद्ध बुद्ध चैतन्य अवस्था में रहता है, उसका ब्रह्माण्ड से तादात्म्य होता है, परन्तु जिस गर्भ में वह पल रहा होता है, उसमें भी कई प्रकार के संस्कारगत दोष व्याप्त होते हैं, जिनका सम्बन्ध शिशु की जननी से होता है। गर्भ धारण (21/36)
करने वाली स्त्री के विकार, पूर्व जन्म दोष, इह जन्म दोष, छल, प्रपंच, असत्य आचरण, क्रोध, ईर्ष्या आदि वृत्तियों का प्रभाव शरीर के अंगों पर भी पड़ता है, जिससे गर्भाशय भी अछूता नहीं रहता। इन्हीं विकारों व संस्कार जनित दोषों के कारण शिशु को वह वातावरण मिल नहीं पाता जिससे वह (22/36)
चैतन्यता को बनाए रख सके। गर्भ दोष के कारण उसकी चेतना जाग्रत और प्रभावी होने के विपरीत सुप्त हो जाती है। परिणाम यह होता है, कि उसका (आत्मा के स्तर पर) मां से सम्पर्क कट जाता है। वह बाहर की आवाजें सुन नहीं पाता, गर्भ के बाहर के संसार को नहीं देख पाता, और यदि देख भी पाता है, (23/36)
सुन भी पाता है, तो वह उन ध्वनियों को, दृश्यों को अधिक समय तक धारण नहीं कर पाता, विस्मृत कर देता है। अर्थात जन्म लेने पर उसे कुछ याद नहीं रहता। गर्भ को चैतन्य किया जा सकता है । पूर्ण पुरुष को पैदा करने के लिए यह आवश्यक है, कि मां के गर्भ को चैतन्यता प्रदान की जाए। जब (24/36)
शिशु गर्भ में होता है, तभी मंत्र क्रिया के माध्यम से 'पुंसवन क्रिया' सम्पन्न की जाती है। पुंसवन संस्कार शास्त्र का एक विधान है, और सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है। पुंसवन का तात्पर्य है कि गर्भ को एक ताकत दी जाए, एक क्षमता दी जाए, और इतनी चैतन्यता प्रदान की जाए, कि (25/36)
जन्म लेने वाले बालक के समस्त नेत्र और कर्ण जाग्रत हो सकें। पुंसवन क्रिया के साथ ही बालक को चेतना भी प्रदान की जाती है। यह संस्कार माता, पिता नहीं दे सकते, यह तो गुरु ही प्रदान कर सकते हैं। गर्भस्थ बालक को यह चेतना गुरु के आशीर्वाद से ही प्राप्त हो सकती है या फिर गुरु (26/36)
प्रदत्त दीक्षा द्वारा ही ऐसा सम्भव है। 'गर्भस्थ बालक 'चैतन्य दीक्षा' को गुरु दीक्षा प्राप्त कोई भी माता अपने शिशु के लिए प्राप्त कर सकती है। इस दीक्षा के फलस्वरूप माता के संस्कार जनित दोषों का प्रभाव गर्भ में पल रहे शिशु पर नहीं पड़ता और वह शिशु अपनी चैतन्यता को बनाए हुए (27/36)
गर्भ में ही बहुत कुछ ज्ञान व सुसंस्कार अर्जित कर लेता है।

गर्भस्थ चेतना प्राप्त शिशु व अन्य शिशुओं में अंतर...

इसके बाद होने वाली सन्तानें कोई सामान्य नर या नारी नहीं अपितु अत्यन्त मेधायुक्त विलक्षण शिशु होते हैं, जो कालान्तर में सुयश को प्राप्त होते हैं। गर्भ में ही (28/36)
सद्गुरु प्रदत्त मंत्र शक्ति व आशीर्वाद से शिशु की कुण्डलिनी जाग्रत अवस्था में रहती है, जिससे वह जन्म लेने के बाद ही अन्य शिशुओं से अलग दिखने लगता है। उसकी आदतें, प्रवृत्तियां अन्य बालकों से हटकर होती हैं। वह जल्दी ही किसी भी बात को समझ लेता है, उसकी बुद्धि कुशाग्र होती (29/36)
है, तथा आत्मविश्वास भी ऐसे बालकों में अद्भुत रूप से होता है। विद्यालय में ऐसे बालक कीर्ति एवं ख्याति प्राप्त करते हैं। पुरुषार्थ की इनमें कमी नहीं होती है, ये बालक बड़े होकर स्वयं तथा अपने कुल का नाम ऊंचा करते हैं।

वास्तव में 'गर्भस्थ शिशु चैतन्य दीक्षा' तो हर मां को (30/36)
प्राप्त करनी ही चाहिए, क्योंकि बालक के जीवन निर्माण के लिए जो प्रयास माता पिता को करना पड़ता है, उस कठोर परिश्रम की अपेक्षा गर्भावस्था में प्रदान की गई यह चेतना अधिक श्रेयस्कर एवं प्रभावी होती है। शिशु के जीवन निर्माण के लिए माता पिता की ओर से किया गया यह दूरगामी एवं (31/36)
दूरदर्शितापूर्ण प्रयास है।

इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद जब तक शिशु गर्भ में रहे, तब तक माता को शुद्ध आचार विचार का पालन करना चाहिए। उसके आचार विचारों, एवं आस पास के वातावरण का शिशु पर पूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि वातावरण संगीतमय हो, तो बालक की जन्म से ही संगीत में रुचि (32/36)
होती है, यदि पिता गणित या विज्ञान में रुचि रखते हों, उस प्रकार की चर्चाएं करते हों, तो बालक पर उसका भी प्रभाव पड़ता है।

यदि घर में सात्विक, शिष्ट वातावरण होता है, साधनामय वातावरण होता है, तो बालक पर भी वातावरण की रश्मियों का प्रभाव पड़ता है। माता को चाहिए कि वह सुन्दर (33/36)
और श्रेष्ठ साहित्य का पठन करे। यदि माता-पिता निरन्तर यह चिन्तन भी करते हैं, कि हमारा शिशु एक सफल चिकित्सक बने, तो भी उस चिन्तन को गर्भस्थ शिशु ग्रहण करता है, और जन्म से ही उसके मानस में यह बात अंकित हो जाती है कि उसे एक उच्च कोटि का 'चिकित्सक बनना ही है। वह स्वयं ही (34/36)
उसके लिए प्रयासरत होकर सफलता को प्राप्त करता है। जीवन निर्माण का यह श्रेष्ठतम पक्ष है।

दीक्षा प्रयोग...

दीक्षा के उपरान्त एक सामान्य नारियल लेकर उस पर मौलि लपेट कर अपने सामने रख कर निम्न मंत्र का किसी दिन १ घण्टे मंत्र जप करें, गर्भस्थ शिशु चेतना मंत्र...
(35/36)
॥ ॐ गं ह्रीं गर्भस्थ शिशु चैतन्यं ऐं गं ॐ नमः ॥

मंत्र जप के उपरान्त पति या पत्नी (जो भी प्रयोग कर रहा हो) को चाहिए कि वह नारियल का अपनी नाभि, हृदय, कण्ठ, ललाट एवं सहस्रार से उपरोक्त मंत्र बोलते हुए स्पर्श कराए। बाद में नारियल को जल में विसर्जित कर दें।

#साभार
(36/36)
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