डायरेक्शन किसका? ओम रावत का! स्टोरी किसकी? ओम रावत की! स्क्रीनप्ले किसका? ओम रावत की! तो जली किसकी? ओम रावत की? नहीं। जल गयी शुकुल जी की। क्यों? क्योंकि शुकुल जी अपनी सामर्थ्य से अधिक उछल कूद कर रहे थे। बुजुर्गों ने फरमाया है कि पच्चीस ग्राम की नाक पर डेढ़ सेर की नथनी (1/11)
नहीं पहननी चाहिये।
अब तनिक हिसाब देख लीजिये। फ़िल्म के लिए प्रभाष को मिले 150 करोड़! वे कहीं नहीं दिख रहे। सैफ को मिले 12 करोड़, वे कहीं नहीं दिख रहे। कीर्ति सेनन को मिले 3 करोड़, वे कहीं नहीं दिख रहीं। खुद ओम रावत जो निर्देशक के साथ निर्माता भी हैं, वे भी कहीं नहीं दिख (2/11)
रहे। जबकि फ़िल्म फ्लॉप होने पर भी उनके हाथ में सौ दो सौ करोड़ आने हैं। तो दिख कौन रहा है? दिख रहे हैं मुन्तशिर!
अब तनिक सोचिये, मियां मुन्तशिर को कितने मिले होंगे? हमें जितनी जानकारी है उस हिसाब से किसी गीतकार को एक करोड़ से अधिक तो नहीं ही मिलते हैं। मनोज तनिक चर्चित हैं (3/11)
तो उनका दो करोड़ मान लेते हैं। मतलब कुल बजट का आधा प्रतिशत से भी कम... तो साढ़े निन्यानवे मजे कर रहे हैं और आधा प्रतिशत वाला उछल उछल कर उड़ते तीर लपक रहा है। हैं मजेदार बात?
घटिया ड्रेस बनाया किया ड्रेस डिजायनर ने, जिसका कोई नाम भी नहीं जानता और गाली मिल रही मनोज को! (4/11)
बकवास मेकप किया किसी और ने और गाली खा रहे मनोज! पात्रों के लिए बकवास चयन रहा भूषण कुमार के टी सीरीज का, पर गाली खा रहे मनोज... मजेदार है न?
सिनेमा में डायलॉग राइटर की औकात जाननी है तो स्वयं से पूछिये, पिछली पाँच बड़ी फिल्मों में किसके डायलॉग राइटर का नाम जानते हैं आप? (5/11)
लाल सिंह चड्डा, पठान, केजीएफ, आर आर आर, पुष्पा... किसी का याद है? नहीं होगा... दरअसल मनोज मुन्तशिर ठीक ठाक बोल लेते हैं, शो वगैरह करने लगे हैं, तो थोड़ी सी ख्याति मिल गयी। ख्याति जितनी बढ़ती है उतना ही लोभ बढ़ता है। इसी लोभ के चक्कर में,और ख्याति प्राप्त करने के लोभ में (6/11)
मनोज बाबू कैमरे के आगे उछलने लगे। जो काम पीआर टीम को करना था, वह भी मनोज कर रहे हैं। जो निर्देशक निर्माता को करना था, वह भी मनोज कर रहे हैं। लीप रहे हैं और बदले में खा रहे गाली...
तो इससे हम यह सीखते हैं कि सबसे बेहतर होता है चुपचाप अपना काम करना। यदि क्रेडिट लेने के (7/11)
चक्कर में पड़ेंगे तो गाली खाने के अवसर पर सबके हिस्से की गालियां भी अकेले ही खानी होंगी। और इसमें किसी अन्य को दोषी नहीं बताया जा सकता, यह दोष केवल हमारे लोभ का है।
मनुष्य से गलतियां होती हैं। कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि उससे जीवन में कभी भूल नहीं हुई। सबसे (8/11)
होती है, सबसे होगी... तो इससे निपटने का सबसे बेहतर तरीका है कि तुरंत गलती स्वीकार कर लें और क्षमा मांग लें। लेकिन यदि व्यक्ति के अंदर अहंकार हो तो वह अपनी भूल स्वीकार नहीं करता, वह उसी पर अड़ा रहता है और एक गलती को ढकने के लिए अनेक गलतियां करता है। फिर? फिर समय की भी (9/11)
अपनी सत्ता है दोस्त! समय आगे बढ़ता है और गाड़ देता है अहंकार की छाती में सत्य का भगवा ध्वज!
तो मुन्तशिर भाई! एक बात सीख लीजिये। राष्ट्रवादियों के यहाँ एक परम्परा है। आप हजार बार सही करेंगे तो ताली बजेगी, पट यदि एक बार भी गलती किये जनता सत्यानाश कर देगी। तो अब एक सेर (10/11)
सुनिये!
राष्ट्रवाद के रस्ते पर हर कदम सोच कर रखना है,
यह वामपंथ का खेल नहीं कि गाली दी और जीत गए।
अम्बेडकर के बारे में फैलाये गये मिथक और उनकी सच्चाई?
1 मिथक: अंबेडकर बहुत मेधावी थे।
सच्चाई: अंबेडकर ने अपनी सारी शैक्षणिक डिग्रीयाँ तीसरी श्रेणी में पास की।
2 मिथक: अंबेडकर बहुत गरीब थे!
सच्चाई: जिस जमानें में लोग फोटो नहीं खींचा पाते थे उस जमानें में अंबेडकर की (1/13)
बचपन की बहुत सी फोटो है, वह भी कोट पैंट और टाई में!
3 मिथक: अंबेडकर ने शूद्रों को पढ़ने का अधिकार दिया!
सच्चाई: अंबेडकर के पिता जी खुद उस ज़माने में आर्मी में सूबेदार मेजर थे! इसके अलावा संविधान बनाने वाली संविधान सभा में 26SC और 33ST के सदस्य शामिल थे!
(2/13)
4 मिथक: अंबेडकर को पढ़नें नहीं दिया गया।
सच्चाई: उस जमानें में अंबेडकर को गुजरात बडोदरा के क्षत्रिय राजा सियाजी गायकवाड़ नें स्कॉलरशिप दी और विदेश पढ़ने तक भेजा और ब्राह्मण गुरु जी ने अपना नाम अंबेडकर दिया।
5 मिथक: अंबेडकर नें नारियों को पढ़ने का अधिकार दिया!
(3/13)
वाराणसी की गलियों में एक दिगम्बर योगी घूमता रहता है। गृहस्थ लोग उसके नग्न वेश पर आपत्ति करते हैं फिर भी पुलिस उसे पकड़ती नहीं। वाराणसी पुलिस की इस तरह की तीव्र आलोचनाएं हो रही थीं। आखिर वारंट निकालकर उस नंगे घूमने वाले साधू को जेल में (1/23)
बंद करने का आदेश दिया गया।
पुलिस के आठ दस जवानों ने पता लगाया, मालूम हुआ वह योगी इस समय मणिकर्णिका घाट पर बैठा हुआ है। जेष्ठ की चिलचिलाती दोपहरी जब कि घर से बाहर निकलना भी कठिन होता है एक योगी को मणिकर्णिका घाट के एक जलते तवे की भाँति गर्म पत्थर पर बैठे देख पुलिस पहले तो (2/23)
सकपकायी पर आखिर पकड़ना तो था ही वे आगे बढ़े। योगी पुलिस वालों को देखकर ऐसे मुस्करा रहा था मानों वह उनकी सारी चाल समझ रहा हो। साथ ही वह कुछ इस प्रकार निश्चिन्त बैठे हुये थे मानों वह वाराणसी के ब्रह्मा हों किसी से भी उन्हें भय न हो। मामूली कानूनी अधिकार पाकर पुलिस का दरोगा (3/23)
झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है। रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ, वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था, जिसने उसी गुलाम (1/23)
भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी।
अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी। ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन (2/23)
को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली।
1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा। महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया। उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं (3/23)
यह रथ-यात्रा की यह प्रथा सत्ययुग से चली आ रही है। रथ यात्रा का प्रसङ्ग स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, पुरुषोत्तम माहात्म्य, जगन्नाथजीकी डायरी और श्रीसनातन गोस्वामी द्वारा रचित श्रीबृहद्भागवतामृत तथा हमारे अन्य गोस्वामियों के ग्रन्थों में (1/6)
वर्णित हुआ है।
इस रथ यात्रा का उद्देश्य यह है कि वे लोग जो सम्पूर्ण वर्ष भर में मन्दिर में प्रवेश नहीं पा सकते हैं उन्हें भगवान् के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो। यह तो रथ यात्रा का बाह्य कारण है किन्तु इसके गूढ़ रहस्य को श्रीचैतन्य महाप्रभु ने प्रकटित किया है।
(2/6)
श्रीजगन्नाथ मन्दिर द्वार का सदृश है और गुण्डिचा मन्दिर वृन्दावन का प्रतीक है। श्रीकृष्ण जन्म से लेकर ग्यारह वर्ष तक व्रज में रहे और वहाँ उन्होंने अपनी मधुरातिमधुर लीलाओं के द्वारा व्रजवासियों को आनन्द प्रदान किया। इसके पश्चात् वे अक्रूरजी के साथ मथुरा चले गये और वहाँ (3/6)
को रट रट कर कुछ अतिवादी हिंदू मोदी को पानी पी पीकर कोसते रहते थे। अब जब मिनिस्ट्री ने इसके बारे में भारतीयों की राय जानने के लिए ईमेल करने को कहा तो इन भाई साहिब को इसके बारे में कुछ पता ही नहीं था। अभी हाल ही में मेरी (1/5)
मोदी की प्रशंसा में लिखी गई किसी पोस्ट पर कमेंट बॉक्स में इन्होंने लिखा था कि मोदी जी यूनिफॉर्म सिविल कोड क्यों नहीं ला रहे? इसको लाने में इतनी देर क्यों कर रहे हैं? अब जब सरकार आम जनता को अपनी राय देने के लिए कह रही है तो इन साहिब को पता ही नहीं कि सरकार इस तरह का कोई (2/5)
प्रयास भी कर रही है। मैंने उनसे पूछा कि क्या आपने अपनी राय ईमेल कर दी तो बोले अरे यार मुझे तो पता ही नहीं था। मुझे किसी ने बताया थोड़ी ना था मुझे कैसे पता चलता कि ईमेल करनी है और फिर मुझको तो ईमेल करनी भी नहीं आती।
मैंने कहा अपने बच्चों को कह दो। तो बोले अरे यार वह (3/5)