हिंदी में देशज और जुझारू रंग भरकर जाने वालीं कथाकार ‘हशमत’ कृष्णा सोबती की आज 99वीं वर्षगाँठ है। इसके साथ शुरू होता है उनका जन्मशती वर्ष। कृष्णा सोबती किसी राजनीतिक विचारधारा की अनुयायी नहीं थीं। लेखक संघों की खेमेबाज़ी से भी नहीं जुड़ीं। अपनी विचारधारा को "मानवीय" बताती थीं। 🧵1
इसके बावजूद राजनीतिक स्तर पर वे बहुत जागरूक थीं। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता से गहरे आहत होती थीं। हर गतिविधि पर प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं। प्रतिरोध उनका मंत्र था। कांग्रेस ने पद्मभूषण देना चाहा, लेने से इनकार कर दिया। भाजपा शासन के दौरान अवार्ड वापसी में आगे रहीं। उनके जुझारू 🧵2
तेवर के कई प्रसंग हैं। मेरे आग्रह पर 'जनसत्ता’ के लिए लिखा। देश की दुर्दशा पर राष्ट्रपति के नाम लिखी उनकी सार्वजनिक पाती ख़ासी चर्चित हुई थी। मोदी जब सत्ता में आए, कृष्णाजी ने तुरंत लेख लिख भेजा: "देश जो अयोध्या है और फैजाबाद भी"। उन्होंने लिखा — "किसी भी छोटी-बड़ी राजनैतिक 🧵3
पार्टी द्वारा धार्मिक-सांप्रदायिक संकीर्णता का प्रचार करना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध अपराध माना जाना चाहिए। .. हमारा देश सदियों से समावेश और सामंजस्य का पर्याय रहा है। .. धार्मिक पक्षधरता के साये में राष्ट्र के एकत्त्व से छेड़छाड़ करना गंभीर मसला है। .. भारत देश 🧵4
किसी राजनैतिक विचारधारा के मंसूबों के नीचे न किसी एक धर्म का है न किसी जाति का। वह अयोध्या है तो फैजाबाद भी है। यहां सांची है तो सिकंदराबाद भी है। बनारस है और मुगलसराय भी। रामपुर है और डलहौजी भी। गुरुकुल कांगड़ी है, देवबंद भी।सदियों-सदियों से ये भारतीय संज्ञाएं इस महादेश की 🧵5
शिराओं में बहती हैं — वे इतिहास के पन्नों में स्थित हैं। ऐसे में हिंदुत्व का गौरवगान इन्हें भला क्योंकर बदल पाएगा?" ढलती और अशक्त अवस्था के बावजूद कृष्णाजी का यह जज़्बा उस वक़्त और मुखर रूप में सामने आया जब 2015 में कांस्टीट्यूशन क्लब में हमने "प्रतिरोध" आयोजन किया। चाहते थे 🧵6
कृष्णाजी भी उसमें आएँ। सेहत ठीक न होते हुए भी वे वीलचेयर पर बैठ माँवलंकर हॉल चली आईं। "बाबरी से दादरी" तक के हवाले देते हुए मंच से सांप्रदायिक राजनीति को उन्होंने तेजस्वी स्वर में ललकारा। वे पुरजोश, मगर ठहर-ठहर कर, पढ़ रही थीं। थोड़ी ही देर में ऐसा तारतम्य बना कि लोग मानो उनके🧵7
हर वाक्य को साँस रोककर सुनने लगे। तालियों पर तालियाँ बजने लगीं। सबके सामने प्रेरणा की एक जीती-जागती हुंकार मौजूद थी। जब कृष्णाजी का संबोधन पूरा हुआ तो सारा हॉल अपने पैरों पर खड़ा था।
साहित्यसर्जक के नाते कृष्णाजी की असल पहचान इसमें थी कि उन्होंने बँटवारे की टूट से पहले वाले 🧵8
पंजाब के ग्रामीण जीवन को शिद्दत से रूपायित किया। किसान और अन्य तबके। उनकी बोली की गंध और अनवरत संघर्ष। जीने की मुश्किलों के बीच उभरता जीवट। और एक आसन्न क़हर की काली छाया।
दूसरी पहचान: औरत की आज़ादी की पुकार, उसके हक़-हुक़ूक की तरफ़दारी, आक्रांत करने वाली समांतर बिरादरी से 🧵9
अपनी शर्तों पर जूझने, अपने संकल्पों में आप खड़ी होने वाली स्त्री का अटूट साथ। उसका साहसिक चित्रण।
दोनों पहचानों में कृष्णाजी ज़मीन की ही रचनाकार थीं।🧵10 Last
#KrishnaSobti #SobtiShati
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दिल्ली पत्रकारों का एक सम्मान समारोह चर्चा में है। इतनी लम्बी सूची है पुरस्कारों की कि गिनते हुए थक जाएँ। मेरे मित्र हरिवंश और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कितने धैर्य से उन्हें बाँटा होगा।
बैस्ट हिंदी ऐंकर का सम्मान जानते हैं किसे मिला है? अमीश देवगन को। /1
नकलची ऐंकर। सांप्रदायिक तेवर। हमारे टीवी मीडिया में सर्वश्रेष्ठ?
आजकल यही धंधा है। देने वाले बहुत हो गए। लेने वालों को ढूंढ़ते हैं। जिन्हें मिल गया, सोशल मीडिया के ज़माने में वही उनका प्रचार कर देते हैं। निहाल हो जाते हैं। मुझे मिल गया, मुझे भी मिल गया। आत्ममुग्ध समवेत। /2
पत्रकार मित्र @Profdilipmandal का कहना है कि दिल्ली में ऐसे 17,000 अवार्ड हर साल बँटते हैं। हमारे राजस्थान में भी इनकी गति बढ़ती जा रही है। जिधर देखो मुझे भी मिला, मुझे भी। जो दे उसी से ले आते हैं। फिर ढँढोरा पीटते हैं। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू। /3
AP ने अपने पत्रकारों के लिए तैयार नई निर्देशिका में कहा है कि विकलांग व्यक्ति को कैसे संबोधित करें, इस मामले में उसका मत भी जानने की कोशिश करें। हमारे यहाँ सबको विकलांग लिखते थे; अब, प्रधानमंत्री के कहने पर, सरकार ही नहीं पत्रकार भी दिव्यांग लिखने लगे! /1 cjr.org/language_corne…
"विकलांग" शब्द में आपत्तिजनक क्या था? जबकि "दिव्यांग" प्रयोग किसी विकलांग व्यक्ति का मज़ाक़ उड़ाने से कम नहीं। पिछले साल ही UN की एक समिति (CRPD) ने "दिव्यांगजन" शब्द को विवादास्पद क़रार दिया था; इस शब्द को समिति ने उतना ही अपमानजनक ठहराया जितना किसी को "मानसिक रोगी" कहना। /2
"दिव्यांग" कहकर बेवजह लोगों को सहानुभूति का पात्र बनाया जाता है। जैसे उनमें बेचारगी हो जो नाम-परिवर्तन से दूर कर दी जाएगी! अहम बात यह है कि सरकार देश की ज़ुबान क्यों तय करने लगे? प्रधानमंत्री भाषाविज्ञानी नहीं हैं। मीडिया ने उनका उनका शब्द आँख मूँद कर क्यों अंगीकार कर लिया? /3