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Most recents (24)

हजारों साल से सुनते आए हैं कि सम्राट असोक के पुत्र महिंद बौध धम्म के संदेशों को लेकर श्री लंका गए थे।

श्री लंका के एक मामूली स्तूप के एक मामूली पत्थर पर, जो अम्पारा जिले के Rajagala में स्थित है, इसका प्रमाण मिला है कि महिंद थेर श्री लंका गए थे।
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धम्म लिपि और सिंहली भाषा में लिखा है कि यह स्तूप इदिका ( इथ्थिया ) थेर और महिंद थेर का है, जो इस भूमि के उज्ज्वल भविष्य के लिए यहाँ आए थे।

और महिंद थेर की मृत्यु वहीं हुई, Rajagala क्षेत्र में, इस क्षेत्र में रक्ष जनजाति के लोग रहते थे, जो कालांतर में राक्षस हुए।
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श्री लंका नाम 1972 में पड़ा उसके पहले सिलोन और उसके पहले सिंहल द्वीप उसके पहले अनुराधपुरम ।

आज के आधुनिक श्रीलंका का नाम सम्राट अशोक के समय तम्बपण्णी (ताम्रपर्णी) था संघमित्रा एवं महेंद्र को ताम्रपर्णि भेजा गया था

सम्राट अशोक के पुत्र महिन्द थेर के साथ
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इतिहास क्या है? नई दृष्टि की जरूरत क्यों?

इतिहास दरअसल फैक्ट्स और इतिहास - दृष्टि के बीच का संवाद है....

इतिहास का स्वरूप इसी संवाद पर निर्भर करता है.....

अभिवादनसीलिस्स निच्चं वुड्ढापचायिनो।
चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति आयु वण्णो सुखं बलं।। Image
( धम्मपद 8.20)
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारिं तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो वलम् ।।
( मनुस्मृति 2. 121)

किसने किसको प्रभावित किया? यह फैक्ट्स और इतिहास - दृष्टि के संवाद पर निर्भर करता है....
यद्यपि कि अशोक के शिलालेख यही संदेश देता है कि बड़ों का सम्मान कीजिए और यही बताता भी है कि किसने किसको प्रभावित किया .....

#Rajendra_Prasad_Singh
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जाना था पूरब और जा रहे थे पश्चिम तो रिजल्ट आता कैसे?

था अशोक स्तंभ और बताया गया भीम की लाठी तो पहचानाता कैसे?

था अशोक का इतिहास और बताया गया महाभारत का वृत्तांत तो विषय पकड़ाता कैसे?

लिखा था प्राकृत में और पढ़ा जा रहा था संस्कृत में तो पढ़ाता कैसे?
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इसीलिए अशोक के शिलालेखों को पढ़ने में देर हुई।

अभी सम्राट अशोक पर पश्चिम के देशों में बड़े पैमाने पर शोध जारी है।

अनेक नवीन तथ्य फलक पर आ रहे हैं।
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इतिहास के झूठे ठिकानों पर छापा मारती किंडल पर आ गई पुस्तक - " सम्राट अशोक का सही इतिहास "।

छापामारी में अनेक नकली और मिलावटी तथ्य बरामद हुए हैं।
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#Rajendra_Prasad_Singh
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कोलिय राजा अञ्जन की दो बेटियाँ थीं ---बड़ी रुम्मन और छोटी रूप्पन।

साहित्य में रुम्मन को महामाया और रूप्पन को महाप्रजापति कहा गया है।

रुम्मन सुकिति की माँ थी और रूप्पन मौसी थी।

रुम्मन ( लुंमिनि ) के नाम पर रुम्मिन देई ( लुंबिनी ) है और रूप्पन के नाम पर
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रूपनदेही ( रूप्पन देई ) जिला का नाम पड़ा है।

लुंबिनी नेपाल के इसी रूपनदेही जिले में है।

सुद्धोदन का विवाह पहले रुम्मन से हुआ, फिर उनकी मृत्यु के बाद सुद्धोदन ने सुकिति ( बुद्ध) के पालन-पोषण के लिए दूसरी शादी रुम्मन की छोटी बहन रूप्पन से की थी।
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कनिष्ककालीन एक स्तूप पर नवजात शिशु सुकिति को गोद में लिए पालकी पर जाती हुईं रुम्मिन देई का यह दृश्यांकन .....

फोटो प्रेम प्रकाश जी से साभार!
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#Rajendra_Prasad_Singh
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पलटू का मायने क्या ? जो पलट दे। आचार्य रजनीश के शब्दों में - " क्रांति का कवि " !

हिंदी के हजार साल के इतिहास में कवि पलटू दास को " दूसरा कबीर " कहा जाता है।

पलटू दास जाति के कानू यानि भड़भूजा थे।

नगजलालपुर जन्म भयो है बसे अवध के खोर।
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कहै पलटू परसाद हो , भयो जगत में सोर ।।

जगत में शोर मचा देने वाला कवि पलटू ने क्या कहा ?

चारि बरन को मेटि के भगति चलाया मूल ।
गुरु गोविंद के बाग में , पलटू फूला फूल ।।

पलटू ने कहा कि वर्ण- व्यवस्था को मिटा दो।

कवि पलटू ने जलालपुर में मूँड़ मुड़ाया और
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अवध में जाकर अपना जनेऊ तोड़ा दिया?

जनेऊ तोड़कर पलटू ने ब्राह्मणवाद को पलट दिया। गुस्साए अवध के पाखंडियों ने अयोध्या में पलटू को जिंदा जला दिया।

हिंदी के हजार साल के इतिहास में पलटू दास पहले कवि हैं, जिन्हें जिंदा जला दिया गया।
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तब महिलाएँ नाम के आगे देवी नहीं .... देवा लिखती थीं।

यह दृश्यांकन भरहुत स्तूप के द्वार की रेलिंग के प्रथम स्तंभ पर है।

हाथों में अस्थि - मंजूषा लिए तस्वीर भरहुत स्तूप की एक दानदाता महिला की है, जो विदिशा की रहनेवाली हैं और रेवति मित की पत्नी हैं तथा हाथी पर सवार हैं।
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दृश्यांकन के बगल में प्राकृत भाषा और धम्म लिपि में लिखा है ----

वेदिसा चाप देवाया रेवति मित भारियाय पठम थभो दानं।

अर्थात, विदिशा के रेवति मित की पत्नी चाप देवा का प्रथम स्तंभ दान।

वेदिसा = विदिशा, भारिया = पत्नी, पठम = प्रथम, थभो = स्तंभ।
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भारतीय इतिहास तथा मिथक में बहुत सारी देवियाँ मिलती हैं। यह खोज का विषय है कि देवा कब देवी बनी और फिर देवी की परंपरा चल पड़ी।
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#Rajendra_Prasad_Singh
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भारत में फैले अंधविश्वासों को वैज्ञानिक जामा पहनाने वाले मूलतः दो प्रकार के वैज्ञानिक हैं - एक वे जो भारत में हैं और ब्राह्मणवादी साँचे में ढले हुए हैं, दूसरे वे जो भारत के बाहर प्रवास करते हैं और ब्राह्मणवादी साँचे में ढले हुए हैं।

एक तीसरा वैज्ञानिकों का दल भी है, वह
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अन्य राष्ट्र से प्रायोजित होता है और भारत की राजनीति और समाज - व्यवस्था में हस्तक्षेप करता है।

तुलसी, पीपल को ऐसे ही वैज्ञानिकों ने बताया है कि वे रात में ऑक्सीजन देते हैं।

जनेऊ धारण और खड़ाऊँ पहनने के फायदे भी ऐसे ही वैज्ञानिक बताते हैं।
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रामेश्वरम् सेतु एवं सरस्वती नदी की खोज का दावा भी ऐसे ही वैज्ञानिक करते हैं।

यज्ञ के धुएँ से वातावरण के स्वच्छ होने की परिकल्पना भी ऐसे ही वैज्ञानिकों की देन है।

विज्ञान की बड़ी - बड़ी पत्रिकाओं में और नेट पर ऐसे अनेक लेख छपे मिलेंगे किंतु ऐसे वैज्ञानिक शोध उपर्युक्त
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स्वीडन में बुद्ध ......

स्वीडन के स्टॉकहोम काउंटी में कोई 119 एकड़ में फैला हेल्गो नामक द्वीप है ....वीकिंग राजाओं के काल में यह व्यापार और कला का बड़ा केंद्र था.....हेल्गो का अर्थ पवित्र स्थान होता है....

जब वीकिंग राजाओं के ध्वंसावशेष की जुलाई 1954 में खुदाई चल रही थी....
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तब वहाँ खुदाई में बुद्ध की मूर्ति मिली....

बुद्ध की यह मूर्ति कांसे की बनी है.....ललाट पर चाँदी की ऊर्णा है.....ध्यान - मुद्रा में बुद्ध दोहरे कमल पर आसीन हैं....गले में समानांतर दो सलवटें हैं....फिलहाल यह मूर्ति स्वीडिश हिस्ट्री म्यूजियम, स्टाॅकहोम में रखी है......
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मूर्ति की दोनों कोहनियों पर अतिरिक्त कांसे के प्लेट लगे हैं ....अतिरिक्त प्लेट से पता चलता है कि मूर्ति की बाद में मरम्मत हुई है....संभवतः रूसी शिल्पकारों ने मरम्मत की है......

पाँचवीं सदी की बनी बुद्ध की यह मूर्ति कोई पाँच हजार मील की दूरी तय कर स्वीडन पहुँची है.....
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सम्राट अशोक की एक बेटी चारुवती थी....वह नेपाल के राजकुमार देवपाल खत्तिय से ब्याही गई थी.....

पति - पत्नी दोनों बुद्धमार्गी थे....काठमांडू से सटे चाबहिल में चारुवती का स्तूप है ( चित्र 1).....

लेकिन यह स्तूप चारुवती का ही है....इसका सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं था......
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साल 2003 में इस स्तूप का मरम्मत- कार्य हो रहा था.....तब 8.6 किलोग्राम की एक ईंट मिली...

ईंट पर लिखा था ---- " चारुवती थूप "....अर्थात यह चारुवती का स्तूप है ( चित्र 2 )....

लिखावट के ऊपर धम्म - चक्र बना है....चारुवती के जीवन के आखिरी दिन यहीं बीते थे.....
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फिलहाल यह ईंट नेशनल म्यूजियम, छाउनी ( नेपाल ) में रखी है....

जो वस्तुतः थे उनके हर सबूत मिल रहे हैं......
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#Rajendra_Prasad_Singh
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सम्राट अशोक भारत के ऐसे प्रथम पाॅलिटिक्ल फिलाॅसफर थे, जिन्होंने राजपद और शासन के आदर्श सबसे पहले लिखित रूप में जारी किए।

अशोक के राजपद का आदर्श था कि हर समय और हर जगह पर जनता की आवाज सुनने के लिए मैं तैयार हूँ।

चाहे रसोईघर में होऊँ, चाहे अंतःपुर में, मैं
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सो रहा होऊँ या उद्यान में होऊँ, जनता की कोई भी बात मुझ तक पहुँचाई जा सकती है।

छठे शिलालेख में अशोक ने इतना ही नहीं बल्कि यह भी लिखवाया है कि मैं सर्वत्र जनता का काम करूँगा और सभी का हित मेरा कर्तव्य है।

सम्राट अशोक का आदर्श वाक्य था कि सवे मुनिसे पजा ममा अर्थात
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सभी मनुष्य मेरी संतान हैं।

कर्मचारी जनता के सुख और कल्याण का हमेशा ख्याल रखें, जैसे कुशल धाय बच्चे की प्रसन्नता का ख्याल रखती हैं।

आश्चर्य इस बात की है कि अशोक ने अपने कई लघु शिलालेखों में अवसर की समानता की बात कही है।

अचरज होता है कि आज से कोई सवा दो हजार साल पहले का
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भाषाविज्ञान में भी "भैंस" के साथ ज्यादती हुई है........

शब्दकोश में " भैंस" का सिर्फ एक अर्थ है, जबकि "गो" (गाय) के वैदिक कोश में 22, संस्कृत कोश में 25 एवं हिंदी कोश में 29 अर्थ हैं........

"गो" से अनेक शब्द भी बनते है; मिसाल के तौर पर गवाक्ष, गोहार, गेहूँ, गोधन,
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गोधूली, गोष्ठी, गोत्र, गोबर, गोरस आदि, जबकि "भैंस" से अनेक शब्द नहीं बनते हैं.......

दूध का एक पर्यायवाची "गोरस" भी है। बेचारी भैंस के दूध को आज तक किसी ने "भैंसरस" नहीं कहा......

गाय को धन माना गया है- गोधन। किंतु भैंस को तो धन भी नहीं माना गया है, किसी
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ने भैंसधन नहीं कहा......

भैंस को लेकर कई अपमानजनक कहावतें हिंदी में प्रचलित हैं, यथा - काला अक्षर, भैंस बराबर (अनपढ़ व्यक्ति), भैंस के आगे बीन बजावै, भैंस रही पगुराय (बुद्धिहीन को उपदेश देना) आदि....

गोपति हुए, गोपेंद्र हुए, गोपाल हुए, लेकिन भैंसपति बनने को कोई तैयार नहीं.....
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राइस डेविड्स ( 1843 - 1922 ) सिविल सर्विस पास किए .....सिलोन में मजिस्ट्रेट ( 1864 ) बने....

जब वे गाल्ल में मजिस्ट्रेट थे.....तब एक बुद्ध - विहार का जमीन से संबंधित मुकदमा उनकी अदालत में आया....

जमीन की दस्तावेज जिसे सबूत के रूप में पेश किया गया, वह पालि भाषा में थी और
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लिपि प्राचीन थी....

मजिस्ट्रेट राइस डेविड्स बगैर समझे, बगैर पढ़े फैसला देते भी तो कैसे.....

आज के तो मजिस्ट्रेट थे नहीं कि बुद्ध - विहार का फैसला हवा - हवाई दे देते, सो उन्होंने पालि सीखी और समझी....
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पालि उन्होंने इतनी सीखी और समझी कि वे 1882 में यूनिवर्सिटी आॅफ लंदन में पालि के प्रोफेसर हो गए.....

मजिस्ट्रेटों के लिए प्रेरक - प्रसंग.....
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#Rajendra_Prasad_Singh
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भारत के इतिहास में यह बहुविख्यात स्थापना है कि सम्राट अशोक ने लिखवाया है कि राजकीय रसोई में पहले जहाँ सैकड़ों पशु - पक्षी भोजन के लिए मारे जाते थे, वहाँ अब सिर्फ 3 प्राणी - दो मोर और एक हिरण मारे जाते हैं और भविष्य में वे भी नहीं मारे जाएंगे।
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सवाल यह है कि मोर मौर्य वंश का टोटेम और हिरण बौद्ध धम्म का पवित्र पशु था, फिर अशोक ने ऐसा क्यों लिखवाया?

दरअसल अशोक ने मोर और हिरण मारने की बात नहीं कही है। वे दो पक्षी और एक पशु मारने की बात कही है। इतिहासकारों ने गलती से पक्षी को मोर से और पशु को हिरण से जोड़ दिया है।
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आप शाहबाजगढ़ी का शिलालेख पढ़िए। उसमें लिखा है कि 2 म्रुगो मारे जाएंगे। फिर मनसेहरा का शिलालेख पढ़िए। लिखा है कि 1 म्रिगे मारे जाएंगे। मतलब कि अशोक ने लिखवाए कि 2 म्रुग और 1 म्रिग मारे जाएंगे।

म्रुग का मतलब पक्षी और म्रिग का मतलब पशु होता है। अर्थात अशोक ने दो पक्षी और
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जे. एफ. फ्लीट ने " दी रुम्मिनदेई इंस्क्रिप्शन एंड दी कन्वर्शन आॅफ असोक टू बुद्धिज्म " (अप्रैल, 1908) में लिखा कि अशोक के रुम्मिनदेई स्तंभ के पास एक टीला है, टीला के ऊपर एक देवी का स्मारक है, जिनका नाम रुम्मिनदेई है....अर्थात रुम्मिन देवी है...
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यहीं रुम्मिनदेई ( लुंमिनि ) बुद्ध की माँ का असली नाम था...वैशाख पूर्णिमा को इनकी विशेष पूजा होती है....इसी दिन बुद्ध का जन्म हुआ था...

रुम्मिनदेई की यह प्रतिमा अशोक कालीन है...इसमें जो पत्थर लगे हैं....वे वहाँ मौजूद अशोक स्तंभ के पत्थर से मेल खाते हैं....
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यह प्रतिमा बुद्ध की माँ की है....दाएँ हाथ से शाल वृक्ष पकड़े और बाएँ तीन परिचारिकाएँ साथ हैं.....यह प्रतिमा बुद्ध के जन्म- प्रसंग पर आधारित है....

रुम्मिनदेई पुरातत्व के हिसाब से प्राचीन नाम है.....अशोक ने " लुंमिनि " लिखवाया.....फाहियान ने " लुंमिन " कहा....
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शेषनाग का पूरा नाम शेषदात नाग था। उनके पूरे नाम की जानकारी हमें ब्रिटिश म्यूजियम में रखे सिक्कों से मिलती है।

शेषनाग ने विदिशा को राजधानी बनाकर 110 ई.पू. में शेषनाग वंश की नींव डाली थी।

शेषनाग की मृत्यु 20 सालों तक शासन करने के बाद 90 ई. पू. में हुई। उसके बाद
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उनके पुत्र भोगिन राजा हुए, जिनका शासन - काल 90 ई. पू. से 80 ई. पू. तक था।

फिर चंद्राशु ( 80 ई. पू. - 50 ई. पू. ) , तब धम्मवर्म्मन ( 50 ई. पू. - 40 ई. पू. ) और आखिर में वंगर ( 40 ई. पू. - 31ई. पू. ) ने शेषनाग वंश की बागडोर संभाली।

शेषनाग की चौथी पीढ़ी में वंगर थे। इस
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प्रकार शेषनाग वंश के कुल मिलाकर पाँच राजाओं ने कुल 80 सालों तक शासन किए।

इन्हीं पाँच नाग राजाओं को पंचमुखी नाग के रूप में बतौर बुद्ध के रक्षक कन्हेरी की गुफाओं में दिखाया गया है।
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श्रमणों की जिंदगी को मौत के पंजों से मुक्त कर उसे अमर बनाने के लिए.....

सम्राट अशोक ने पहाड़ की छाती को चीरकर....

वास्तुकला के इतिहास में पहली बार गुहा - निर्माण की एक नई शैली चलाई थी....

जो बाद में अजंता, एलोरा, नासिक, जुन्नार जैसी जगहों पर विकसित हुई.... ImageImageImage
पत्थरों को जोड़कर घर बनाने से पहाड़ों को काटकर घर बनाना बेहद पेचीदा है....

ऐसा पेचीदा कि मध्य काल और आधुनिक काल में किसी राजा ने ऐसा दुस्साहस नहीं किया......

#Rajendra_Prasad_Singh ImageImageImage
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ये तमिल ब्राह्मी लिपि के लेटर कीलडी ( तमिलनाडु ) की खुदाई से मिले हैं।

जैसा कि मैंने कहा है कि ब्राह्मी लिपि साहित्यिक नाम है। इसका पुरातात्विक नाम धम्म लिपि है।

अशोक के शिलालेखों की लिपि यहीं धम्म लिपि है। शिलालेखों में धम्म लिपि लिखा भी है।
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तमिल ब्राह्मी लिपि इसी धम्म लिपि का दक्षिणी रूप है। इसलिए तमिल ब्राह्मी लिपि को तमिल धम्म लिपि कह सकते हैं।

जब तक कोई ठोस नाम के सबूत नहीं मिलते हैं, तब तक हम सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि को तकनीकी तौर पर प्राक् धम्म लिपि कह
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सकते हैं। कारण कि धम्म लिपि के अनेक लेटर सिंधु लिपि के लेटर से मेल खाते हैं।
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#Rajendra_Prasad_Singh
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महिषासुर का एक नाम म्हसोबा था। म्हसोबा के सर्वाधिक स्मारक और लोक इतिहास महोबा क्षेत्र में है। म्हसोबा के नाम पर महोबा है।
( तस्वीरें प्रमोद रंजन से साभार)

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संतराम, बी. ए.

जाति - पाँति का खूब विरोध किए.....खूब जिए....खूब लिखे.....

छोटी - बड़ी 100 किताबें लिखीं ....101 साल जिए....

प्रेमचंद ने खुद जिनकी पुस्तक " काम - कुंज " का संपादन किया.....

राहुल सांकृत्यायन ने खुद जिनका संस्मरण "
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जिनका मैं कृतज्ञ " में लिखा.....

बाबा साहब अंबेडकर ने खुद जिनकी चिट्ठियों को " एनिहिलेशन आॅफ कास्ट " में शामिल किया.....

विलक्षण व्यक्तित्व संतराम, बी. ए.

अल बेरुनी के भारत को हिंदी में पहली बार परिचय कराने का श्रेय इन्हें है....

तीन खंडों में अनुवाद प्रस्तुत किए...
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.वो भी तब, जब अभी छायावाद जन्म ले रहा था....

मातृभाषा पंजाबी थी....फारसी में ग्रेजुएट थे.....अरबी पढ़ते थे.....अंग्रेजी पढ़ते थे .....हिंदी पर मजबूत पकड़ थी....

1925 तक चीनी बौद्ध यात्री इत्सिंग की भारत - यात्रा का किसी भी भारतीय भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ था....
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सिंधु घाटी की सभ्यता से प्राप्त एक मुहर पर एक नर - देवता का चित्र अंकित है ।

इस मुहर के बारे में आर. सी. मजुमदार, एच. सी. रायचौधरी एवं के. के. दत्त जैसे चोटी के इतिहासकारों ने लिखा है कि चित्र पर अंकित चारों ओर पशुओं की मूर्तियाँ शिव के पशुपति नाम को सार्थक करती हैं।
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मगर ऐसा है नहीं। पहले पशु का अर्थ जानवर नहीं होता था। पशु का संबंध पाश ( बंधन ) से है। पाश ( मोह ) से मनुष्य भी बँधा है और पाश ( रस्सी ) से जानवर भी बँधा है। इसलिए पशु का वास्तविक अर्थ जीव है, जो समस्त प्राणी का द्योतक है।
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मगर इतिहासकार क्या जाने भाषा का मर्म ? वह तो पशुओं से घिरा देखकर पशुपति नाम दे बैठा। मगर पशुपति का सही अर्थ है - मनुष्य सहित सभी जीवों का अधिपति।
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#Rajendra_Prasad_Singh
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मगध पर जब नागों - मौर्यों ( 500 ई.पू.- 200 ई.पू. ) की हुकूमत थी, तब के साढ़े छः हजार से अधिक सिक्के पटना म्यूजियम में हैं.....

मौर्य कालीन अनेक चीजें धरती के 17 फीट नीचे तक दबी हुई हैं.....

मौर्य कालीन कुम्हरार में लकड़ी का बना एक फर्श धरती के 17 फीट नीचे मिला था......

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आप सोचिए कि इतनी गहरी खुदाई होती तो नागों - मौर्यों के कितने सिक्के मिलते.......

गुप्त साम्राज्य के आते ही उसके पूरे दो सौ सालों ( 300 ई.- 500 ई. ) के पटना म्यूजियम में सिर्फ 130 सिक्के हैं.....

आगे के पाँच सौ साल ( 500 ई. - 1000 ई. ) की हालत सिक्कों के मामले में

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और भी खास्ता है.....

500 ई. से 1000 ई. तक के सिर्फ 34 सिक्के पटना म्यूजियम में उपलब्ध हैं......

मौर्य काल यूँ ही स्वर्ण युग नहीं था.....

( पटना म्यूजियम में उपलब्ध सिक्कों को नीचे दी गई सारणी से समझिए। )
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#Rajendra_Prasad_Singh
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आइंस्टाइन से लेकर हाकिंग तक दुनिया के भौतिक विज्ञानी गुरुत्वाकर्षण, शून्य और समय को लेकर जो अभूतपूर्व काम कर चुके हैं, उसमें एक फाँक बची रही है और दुनिया के भौतिक विज्ञानी इसी फाँक को दूर करने की कोशिश करते रहे हैं।

इस कोशिश के दो अलग-अलग पक्ष आज भी बने हुए हैं,
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जिनमें से एक सुपर स्ट्रिग सिद्धांत है और दूसरा लूप क्वांटम ग्रैविटी है। लूप क्वांटम ग्रैविटी को अश्टेकर प्रोग्राम के नाम से भी जाना जाता है। अश्टेकर प्रोग्राम के सिद्धांतकार खुद अश्टेकर हैं।

अश्टेकर ने अपने सिद्धांत की विवेचना करते हुए लिखा है कि छठी सदी ईसा पूर्व में
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गौतम बुद्ध ने कहा था कि समय की अवधि शुद्ध रूप से परंपरागत धारणा है, समय और शून्य हमारे अनुभवों की सापेक्षता में अस्तित्वमान होते हैं, बुद्ध ने पुद्गल नैरात्म्य और विज्ञप्ति मात्रता जैसी अवधारणाओं के
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कहा जाता है कि प्रयाग में त्रिवेणी है - गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम.....

वाल्मीकि और कालिदास ने सिर्फ गंगा और यमुना का संगम बताया है....

ह्वेनसांग 7 वीं सदी में प्रयाग आए और इसे दो नदियों का संगम बताया....

लिखा कि राजधानी के पूरब, दोनों नदियों के संगम के मध्य में
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लगभग 10 ली के घेरे की भूमि बहुत सुहावनी और ऊँची है। इस संपूर्ण भूमि में बालू ही बालू है.....

न जाने किसने प्रयाग में सरस्वती नदी को भी कूदा दिया है.....

किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है कि सरस्वती नदी प्रयाग क्या पूरे उत्तर प्रदेश को कभी छुई भी नहीं.....
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'' वेणी '' का अर्थ " नदी " नहीं है....

वेणी का अर्थ '' प्रवाह " होता है.....

तीन नदियों का संगम '' त्रिवेणी '' नहीं है.....

तीन प्रवाहों का संगम है - " त्रिवेणी ''

एक प्रवाह गंगा का, एक यमुना का और एक दोनों का सम्मिलित प्रवाह....
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अर = चक्र की तीली।
अरि = चक्र।
अरिय = चक्र से संबंधित।
अरिय धम्म = चक्र से संबंधित धर्म।
अरिय मग्ग = चक्र से संबंधित मार्ग।
अरिय सच्च = चक्र से संबंधित सत्य।
धम्म चक्क पवत्तन का चक्क ( चक्र ) इसी अरिय मग्ग और अरिय सच्च से जुड़ा है।
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इतिहासकार और भाषावैज्ञानिकों ने अरिय मग्ग और अरिय सच्च का जो भाष्य आर्य मार्ग और आर्य सत्य के रूप में किया है, वह गलत है। पालि में आर्य के लिए अलग शब्द है, वह है -अय्य। आर्य को पालि में " अय्य " कहा जाता है, "अरिय" नहीं।
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अरिय और अय्य दोनों अलग- अलग रूट के शब्द हैं जिसका घालमेल हो गया है।
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#Rajendra_Prasad_Singh
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