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एक मजदूर दूसरे मजदूर के लिए। #MeTooMigrant
एक मजदूर जब पहली बार एक पोटली लिट्टी, थोड़ा राशन , थोड़े उधार के पैसे और थोड़े कपडे लेकर गांव से ट्रेन पकड़ता है तो ये सोच के निकलता है की जहाँ जा रहा हूँ , वहां का होकर रह जाऊँगा।
शहर आता है कहीं काम पकड़ता है और सबसे पहली चीज जो छोड़ता है वह है भाषा। हफ्ते भर में शहर की भाषा पकड़ता है क्योंकि उसे लगता है की ये भाषा उसको इस शहर का बना देगी। गांव जब भी फ़ोन करता है इस नयी भाषा में ही बात करता है और बताता है की मैं अब तुमसे बेहतर हूँ।
प्रवासियों के लिए घर जाना एक त्यौहार है। चार महीने पहले ट्रेन की रिजर्वेशन करा लेता है। पहली बार स्लीपर क्लास या ऐसी में जा रहा है। गॉव पे बताना बनता है। नए कपड़े ,घड़ी , चश्मा , चक्का वाला एटैची सब तैयार करता है।
दिल्ली से घर तक के सफर में उसको नींद नहीं आती क्योंकि घर पहुँचने की बेचैनी है।18 साल हो गए मुझे दिल्ली रहते हुए।याद नहीं की कभी पटना जाते वक़्त ट्रेन में घंटे भर भी सोया हूँ। हाँ आते वक़्त नींद आ जाती है। स्टेशन पे उतरते ही वो अपनी बदली जिंदगी की झलक दिखाना शुरू करता है।
शहर में शायद वो बस में चले या पैदल भी चले पर वहां अपने घर तक ऑटो रिज़र्व करता है। रास्ते में उन्ही पुरानी जगहों को शहर के चश्मे वाली आँखों से देखता है। "लाइन (बिजली) का क्या हाल है ? अभी भी बहुत कटता है क्या ?" ऑटो वाले से सवाल करता है। "इहाँ कहियो सुधार नहीं होगा। "
पांच शब्द में वो व्यवस्था पर कटाक्ष करने के साथ साथ यह भी बताता है वो अब दूसरी दुनिया का वासी है। घर आने से ठीक पहले ऑटो अपने कस्बे के सबसे अच्छे (जो शहर के सबसे बुरे से भी कई पायदान नीचे है ) मिठाई की दुकान पर रोकता है। "भैया प्रणाम। एक किलो मिठाई दे दीजिये बढ़िया वाला।"
शुरू में जब भी घर जाता था दादी हमेशा टोकती थी की मिठाई क्यों नहीं लाया। मुझे लगता था अपने घर जा रहा हूँ तो मिठाई क्यों। अब समझता हूँ। मिठाई आपका ब्रांड एम्बेसडर है जो अगल-बगल के लोगों में आपकी शाख और धाक को और वजनी बनाता है। क़स्बे में सब एक दूसरे को जानते हैं।
इसलिए मिठाई की दुकान से घर तक की यात्रा में- चच्चा प्रणाम, बाबा पांवलागि, आज ही आये हैं। उधर से एक सवाल जो हमेशा पूछा जाता है और बड़ी तकलीफ देता हैं- कब तक रहना है? वो भी ये मान के बैठे हैं की अब यहाँ कभी वापस नहीं आएगा और आया है तो जायेगा ही।
आज फिर वो घर लौट रहा है। जिस शहर को अपनाने की पूरी कोशिश की उसने उसको त्याग दिया है। जिस शहर के अपने रहन- सहन को वो गांव में बढ़ा चढ़ा कर बताता था,अब पूरी दुनिया उस खोखली सच्चाई और नारकीय जीवन को टीवी पर देख रही है।खाना नहीं मिल रहा एक बात है पर उसका आत्मसम्मान चकनाचूर हो गया हैI
आज वो उस स्थिति में लौट रहा है जैसे वो आया भी नहीं था। आज वो मिठाई नहीं ले जा रहा। जिनको प्रणाम , पांवलागि करता था वो दूर भाग रहें हैं की बीमारी लेके आया है। उसका भ्रम टूट गया है। मन में शंका है की जब कोई पूछेगा की कब तक रहना है? कैसे कहेगा की अब नहीं जाना।
मैं यूपी, बिहार और अन्य राज्यों में रहने वाले लोगों से विनती करता हूँ की जो बाहर से आ रहा है उसकी मानसिक दशा और द्वंद्व को समझने की कोशिश कीजिये। उसे एहसास हो गया है की अपना गॉंव अपना है। ऐसे में आप भी उसे हिकारत की नज़र से देखेंगे तो तो कहाँ जायेगा।
शहर और सरकार के प्लान में वो नहीं है, अपना गांव भी अगर नहीं रहा तो अंदर की टीस से मर जायेगा। हो सके तो उसको संभाल लीजिये। उससे बात कीजिये और कहिये - कोई बात नहीं। अच्छा किये वापस आ गए।

-अंशुमन
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