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क्रांतिकारियों की बात हो तो पहला जो नाम याद आता है वो है भगत सिंह.
तिरछी टोपी वाले उस आजादी के मतवाले की छवि पूरे देश में जानी है.
अन्य क्रांतिकारियों के बारे में कितना कम जानते हैं हम?
आज बात करते हैं मां भारती के ऐसे ही दो सपूतों सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु की.
@Sheshapatangi
एक विनम्र श्रद्धांजलि ऐसे ही भुला दिए गए स्वातंत्र्य वीर सुखदेव को जिनकी जयंती कल मनाई गई.. 🙏

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यद्यपि सुखदेव अपने परम मित्र भगत सिंह की अपेक्षा कम लोकप्रिय थे और उनके बारे में लिखा भी कम गया तथापि वे असाधारण सत्य निष्ठा वाले निर्भीक व्यक्ति थे जो अपनी पार्टी HRSA और उसके सदस्यों की छोटी से छोटी आवश्यकता का ध्यान रखते थे।

*HRSA - हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
लाहौर मामले में आजीवन कारावास की सजा पाने वाले उनके मित्र शिव वर्मा ने उनकी स्मारिका "संस्मृतियां"(नेशनल आर्काइव्ज, दिल्ली)में लिखा है कि,"भगत सिंह पंजाब पार्टी के राजनैतिक अवलम्ब थे और सुखदेव उसके संयोजक थे जिन्होंने इसे खड़ा किया था।
उनका जन्म 15 मई 1908 को लुधियाना में हुआ।
माता का नाम रल्ली देवी और पिता का नाम रामलाल थापर था।पिता के निधन के बाद चाचा अचिंत राम ने उनका पालन पोषण किया।
उनके बचपन व शिक्षा की अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
1921 में उन्होंने नेशनल कालेज में प्रवेश लिया जहाँ वे भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा से जुड़े।

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यशपाल से भी वहीं मिले।हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन(HRA) से जुड़े जिसने स्वयं को 1928 में सोशलिस्ट घोषित किया और HSRA कहलाई।
23 मार्च 1931 को फांसी के कुछ दिन पहले गाँधी जी को अपने पत्र में सुखदेव ने लिखा।
"लाहौर मामले के तीनों कैदियों को मृत्यु दंड दिया गया है जिन्हें देश में आकस्मिक रूप से बड़ी लोकप्रियता मिल गई है।रिवोल्यूशनरी पार्टी में सिर्फ वे ही नहीं हैं।असल में देश को उनकी सजा बदलने से उतना लाभ नहीं होगा जितना उनकी फांसी से होगा।"
सुखदेव असल में लाहौर हत्या कांड के मुख्य आरोपी थे। पंजाब HSRA पार्टी के मुखिया होने के कारण वे ही सांडर्स की हत्या और विधान सभा में बम फेंक जाने की योजना के पीछेे वही थे।
लाहौर हत्याकांड की FIR वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हैमिल्टन हार्डिंग ने दाखिल की थी।

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विशेष मजिस्ट्रेट आर एस पंडित की अदालत में अप्रेल 1929 में दाखिल इस रिपोर्ट में सुखदेव को पहले नंबर पर रखा गया था।उनका परिचय स्वामी, पुत्र रामलाल,जाति थापर खत्री के रूप में दिया गया।
25 आरोपियों में भगत सिंह 12वें और राजगुरु 20वें नंबर पर थे।
एक और सच जो 1930 में लाहौर मामले के फैसले से उजागर हुआ।
फैसले का शीर्षक था..
लाहौर ट्रिब्यूनल
(अध्यादेश संख्या III,वर्ष 1930 के अन्तर्गत गठित)
सत्ता(क्राउन)-शिकायतकर्ता
बनाम
सुखदेव एवं अन्य अभियुक्त गण।
सुखदेव की अप्रत्यक्ष भूमिका के बावजूद उनका मुख्य आरोपी बनाया जाना HSRA में उनके महत्व की पुष्टि करता है।अधिकतर निर्णय वही करते थे।

tribuneindia.com/2007/20070513/…
लाहौर कांड का फैसला उन्हें एक नई ऊँचाई प्रदान करता है।
सच तो यह है कि ये निर्णयप्रपत्र दशकों तक नेशनल आर्कईव,दिल्ली में धूल खाता रहा जिसे 2005 में वरैच और गुरदेव सिंधु ने अपनी पुस्तक "The HangingOfBhagatSingh" में प्रकाशित किया।
फैसला मामले में सुखदेव की भूमिका को रेखांकित करता है जिसके अनुसार सुखदेव इस घटना का दिमाग कहे जा सकते हैं।
जबकि भगत सिंह उनके हाथ थे।सुखदेव कर्ताधर्ता थे और नये सदस्य भरती कर उन्हें समुचित कार्य सौंपते थे।वे हिंसक कार्यों में पीछे रहते थे फिर भी उन्हें उनके लिए उत्तरदायी माना गया।
7 अक्टूबर, 1930 यानि निर्णय के दिन लिखे अपने अंतिम पत्र में सुखदेव ने नासमझी वाली हिंसा की आलोचना की और HSRA के कार्यों को जन अभिलाषाओं की पूर्ति बताया। Image
उन्होंने लिखा,"सांडर्स की हत्या मामला देखिए। जब लाला लाजपतराय ने लाठियां खाई तो देश में अशांति हुई। यह एक अच्छा अवसर था लोगों का ध्यान पार्टी की ओर खींचने का और इस तरह हत्या की योजना बनाई गई।
हत्या के बाद वहाँ से भागना हमारी योजना में नहीं था।
हम लोगों को बताना चाहते थे कि यह एक राजनैतिक हत्या थी और हत्यारे क्रांतिकारी थे।
हमारे कार्य सदैव लोगों के दुख का प्रतिकार करने के लिए थे।हम लोगों में क्रांतिकारी सोच जगाना चाहते थे और ऐसी सोच का प्रदर्शन अधिक महान लगता यदि उसे कोई फांसी पर चढ़ने वाला कहता।
इस पत्र की प्रमाणित प्रतिलिपि गृह विभाग के पंजाब अपराध जांच विभाग को भेजी गई।
गाँधी जी को लिखा सुखदेव का पत्र उनके आदर्शों का उचित प्रतिबिम्ब था।
"क्रांतिकारियों का ध्येय समाजवादी गणतंत्र की स्थापना है।"
इस लक्ष्य में परिवर्तन की किंचित् मात्र भी संभावना नहीं है।मैं सोचता हूँ कि आपके विचार में क्रांतिकारी तर्कहीन व्यक्ति होते हैं जो विध्वंसक गतिविधियों में आनंद लेते हैं।
मैं आपको बताना चाहता हूँ कि सच इसके ठीक विपरीत है।वे अपना उत्तरदायित्व जानते हैं और रचनात्मक आदर्श रखते हैं।
यद्यपि वर्तमान परिस्थितियों में उनका विध्वंसक रूप ही अधिक दर्शित होता है।
बहरहाल गाँधी जी ने इरविन के साथ समझौता किया और इन लोगों के लिए क्षमा दान की माँग नहीं की।
mkgandhi.org/articles/bhaga…
gandhiheritageportal.org/gandhi-irwin-p… Image
यह लिंक इन क्रांतिकारियों के बचाव में गाँधी जी की उदासीनता बताता है।
गाँधी इरविन समझौते के बिंदु सं.4 को दो बार पढ़ें।
23 मार्च 1931 को भगतसिंह,शिवराम राजगुरु के साथ लाहौर जेल में फांसी दी गई और शहीदों को चुपचाप सतलुज नदी के किनारे जला दिया गया।
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@nytimes उनके इस बलिदान पर दंगे हुए, सैंकड़ों मारे गए और गाँधी जी के साथ मार पीट हुई किंतु ये सब देश के अखबारों तक नहीं पहुँचा ।
हाँ @nytimes में जरूर छपा।
#वंदेमातरम

nytimes.com/1931/03/26/arc…
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