निजीकरण क्या है?
ये एक अवधारणा है शक्ति के केंद्रीयकरण की।
सरकारी संस्थान और निजीसंस्थान दोनों के सोच में मूलभूत अंतर है जो आज के नए नए बने बुद्धिजीवियों को शायद पता नहीं है या वो जानबूझकर अंजान बने हुए है।
किसी भी दल का या सरकार का समर्थन करना या विरोध करना आप की विचारशीलता पर होना चाहिए ना की केवल सुनी सुनाई बातों पर।
सरकारी संस्थानों के नितिपरक निर्णय एक चुना हुआ दल लेता है जबकि निजी संस्थानों के नीतिपरक निर्णय एक व्यक्ति द्वारा आदेशित बोर्ड लेता है।
सरकारी संस्थानों की स्थापना देश के निचले और पिछड़े वर्ग को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए किया गया था किन्तु आज सरकार की ओर से किए जा रहे निजीकरण के प्रयास देश के उस निचले और पिछड़े वर्ग को किस और लेकर जाएगा ये तो अभी खुद उस वर्ग को भी नहीं पता है
परन्तुजब तक उस वर्ग के लोगों को पता चलेगा तब तक उस वर्ग को पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं रहेगा।
राजशाही को हटाकर लोकतन्त्र की स्थापना केवल दो ही कारणों से हुई थी।
पहला कारण रियासतों को मिलाकर एक अखंड भारत का निर्माण
और दूसरा कारण आम जनता के लिए आम जनता का आम जनता द्वारा प्रशासन करना ताकि आम आदमी की समस्या को आसानी से समझा जा सके।
किन्तु निजीकरण की मूल अवधारणा इन दोनों ही कारणो का समर्थन नहीं करती क्योंकि व्यवसाय की मूल प्राथमिकता केवल लाभ कमाने के होती है
देशभक्ति अगर व्यवसाय की प्राथमिकता होती तो कोई भी चीनी समान भारत में नहीं बिकता परंतु व्यवसाय की मूल अवधारणा देशभक्ति है ही नहीं और दूसरा उदाहरण किसी भी आपदा के समय लाभ कमाने के लिए
आवश्यक वस्तुओं का दाम बाद जाना है जैसे केदारनाथ आपदा के समय एक बिसलेरी कि बॉटल का ₹600 तक बिकना।
अगर किसी को लगता है कि निजीकरण होने से देश में तरक्की होगी तो आप के ज्ञान के लिए बता दे
आज भी कई विकसित देशों में शिक्षा, ट्रांसपोर्ट, स्वास्थ्य सेवाए, प्रशासन और कई मूलभूत सुविधाएं केवल सरकारी नियंत्रण में है।
भारत वैसे भी विविधताओं से भरा हुआ देश है। भारत के कई हिस्सों की आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक संरचना और स्थिति बड़ी विचित्र है
किन्तु वहां के लोगो को भी मूलभूत सुविधाओं का हक है किन्तु उन क्षेत्रों में कोई भी निजी संस्थान सेवा देने को तत्पर नहीं है क्योंकि उन जगहों पर लाभ कमाना तो दूर, लागत तक नहीं निकलेगी।
ऐसे स्थानों पर केवल सरकारी संस्थान ही सेवा देते है
क्योंकी उनकी मूलभूत अवधारणा ही जनसेवा है किन्तु घाटा होने पर हम उस संस्थान के कर्मचारियों की क्षमता और योग्यता पर प्रश्नचिन्ह कैसे लगा सकते है।
खुद बैंकर होने के कारण, मैंने बैंको की कई ऐसी शाखाओं को देखा है
जो बैंक ने केवल वित्तीय समावेशन या फाइनेंशियल इन्क्लूजन के लिए खोली गई है परन्तु य कभी लाभ नहीं देंगी कारण इनका भौगोलिक और आर्थिक परिवेश है परंतु इसका अर्थ ये तो नहीं है कि उन शाखाओं में कार्य करने वाले लोग अक्षम है।
ऐसी ही एक शाखा है हमारी रेकोंगपियो शाखा। ये शाखा जिला किन्नौर, हिमाचल राज्य में है जहा से चीन की सीमा बहुत ही नजदीक है आधे समय इस शाखा को दूसरी शाखा से चलाना पड़ता है कारण उस क्षेत्र में बर्फ जमी रहती है नलो में पानी जम जाता है
अब आप उस क्षेत्र में सेवा करने वाले लोगों हिम्मत समझ सकते हो।
क्या कभी इस प्रकार की कोई शाखा आप ने ऐसे किसी क्षेत्र में देखी है?
क्या आप ने ग्रामीण भारत में कितने निजी बैंक देखे है?
कितने निजी संस्थान आदिवासी इलाकों में देखे है?
कितने निजी संस्थान आपने पहाड़ी इलाकों में देखे है?
निजी संस्थानों की ग्रामीण भारत जोकि भारत का असल स्वरूप है, पर कितनी पकड़ है?
आप का उत्तर क्या है ये आप स्वयं जानते है।
निजी संस्थान केवल अपनी बैलेंस शीट के लिए उत्तरदायी होते है वहां की जनता के लिए।
मेरे द्वारा किए गए सभी प्रश्नों का विरोध करने के लिए कुछेक बुद्धिजीवी श्री रतन टाटा जी का उदाहरण देंगे किन्तु मेरे भाईयो वो केवल अपवाद है उनके जैसा ना कोई और था और ना कोई होगा।
शायद उनके बाद टाटा ग्रुप भी उतनी सेवा ना करे