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Sri Krishna on the "Himsa" in Vedic rituals.

"ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः ।
हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना ॥
हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया ।
यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन् खलाः ॥" ~ श्रीमद्भागवत (11/21/29-30)
भावार्थ: यदि हिंसा और उनके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञ में ही करे-यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्ति का संकोच है, संध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है।

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इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्राय को न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं।
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Sri Krishna on the structure and origin of Vedas.
श्रीमद्भागवत (11/21/35-43)

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे ।
परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम् ॥३५॥

भावार्थ:उद्धव जी! वेदों में तीन काण्ड हैं- कर्म, उपासना और ज्ञान।
1/
इन तीनों काण्डों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्मा की एकता, सभी मन्त्र और मन्त्र-दृष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर नहीं, गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट है ।
2/
(क्योंकि सब लोग इसके अधिकारी नहीं हैं, अन्तःकरण शुद्ध होने पर ही यह बात समझ में आती है)

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ॥ ३६॥

भावार्थ:वेदों का नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं, इसी से रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है।
3/
वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ति और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्र के समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसी से जैमिनी आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते)।
4/
मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना ।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ॥ ३७॥

भावार्थ: उद्धव! मैं अनन्त-शक्ति-सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है।
5/
जैसे कमलनाल में पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अन्तःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती है।

यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात् ।
आकाशाद्घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ॥ ३८॥

भावार्थ: भगवान हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं।
6/
उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई। जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुख द्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है,
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वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करने वाले मनरूप निमित्तिकारण के द्वारा हृदयाकाश से अनन्त अपार अनेकों मार्गों वाली वैखरीरूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं।
8/
छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः ।
ओंकाराद्व्यञ्जितस्पर्शस्वरोष्मान्तस्थभूषिताम् ॥ ३९॥
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः ।
अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ॥ ४०॥
9/
भावार्थ: वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-25), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक-9), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ (य, र, ल, व)-वर्णों से विभूषित है।

10/
उसमें ऐसे छन्द हैं, जिसमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है।

11/
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च ।
त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट् ॥ ४१॥

किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत् ।
इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन ॥ ४२॥

12/
भावार्थ:(चार-चार अधिक वर्णों वाले छन्दों में से कुछ ये हैं-) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट्।
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वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है, उपासना काण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है-इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के सहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
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मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम् ।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम् ।
मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ॥ ४३॥
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भावार्थ: मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्ड में मेरा ही विधान करती हैं, उपासना काण्ड में उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में आकाशादि रूप से मुझमें ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती है।
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सम्पूर्ण श्रुतियों का बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेद का आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्त में सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठान रूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ।
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To give context to this thread recall the following.
Nyaya Darshana says that Vedas are the created by Ishwara.
Purva Mimansa Darshana says that Vedas are Apourusheya (not created by anyone).
Sri Krishna states Vedantic position here in His Udhava-Gita.
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