#कहानी
एक बुढ़िया ने हाथ आटा चक्की खुटवाने वाले एक कारीगर को बुलाया।
"देख भाई जानता तो है ना? ये पड़ी चक्की इसे ठीक कर दे, बस आज लायक दलिया बचा वो चूल्हे पर चढ़ा दिया तू इसे ठीक कर मै जितने कुए से मटकी भर लाती हूँ।"
"ठीक है अम्मा चिंता मत कर मेरी कारीगरी के 7 गाँवों में चर्चे, चक्की ऐसी खोटूंगा की आटा पीसेगी और मैदा निकलगी और चूल्हे पर चढ़ा तेरा दलिया भी सम्भाल लूंगा।"
बुढ़िया आश्वस्त हो कुए को निकल ली और कारीगर चक्की की खुटाई करने लगा।
अचानक कारीगर के हत्थे से निकल हथौड़ी उछल चूल्हे के ऊपर लटकी घी की बिलोनो पर पड़ी, घी सहित बिलोनी चूल्हे पर चढ़ी दलिये की हांडी पर पड़ गई 😥
कारीगर हड़बड़ा गया और हड़बड़ाहट मे चक्की का पाट भी टूट गया।
कुछ समझ मे आता उससे पहले चूल्हे पर बिखर गए घी से लपटें उछल फूस की छान/छत ने आग पकड़ ली और झोंपड़ी धूं धूं जलने लगी।
कारीगर उलटे पाँव भागा की रास्ते मे आती बुढ़िया से टकरा गया और उसकी मटकी गिर गयी।
बुढ़िया बोली
"अरे रोऊँ तुझे ऐसी क्या जल्दी थी अब रात को क्या प्यासी सोऊंगी एक ही मटकी थी वो भी तूने फोड़ दी।"
कारीगर बोला "अम्मा किस किस को रोयेगी? पानी की मटकी को रोयेगी, घी की बिलोनी को रोयेगी, दलिये की हांड़ी को रोयेगी, की टूटी चक्की को रोयेगी या जल गई अपनी झोंपड़ी को रोयेगी?
और कारीगर झोला उठा भाग छूटा।
देश भी कुछ ऐसे ही हाथों मे पड़ा है GDP को रोवोगे?
कोरोना को रोवोगे?
बेरोजागरी को रोवोगे?
महंगाई को रोवोगे या बर्बाद बिक चुकी संस्थाओं संसाधनों को रोवोगे किस किस को रोवोगे आंसू कम पड़ जाएंगे...😢 #speakupforSSCRaliwaystudents
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पिछले कुछ समय से लगातार व्यस्तता के चलते पर्याप्त समय नही निकाल पा रहा हूँ... पेशेवर जीवन के साथ साथ व्यक्तिगत जीवन मे भी लगातर चल रही उठापटक की वजह से संतुलित होकर कुछ सोच पाना और कुछ कर पाना बहुत मुश्किल लगने लगा है...
लेकिन चूंकि अब सवाल अस्तित्व का है...
तो अब चुप बैठना कायरता होगी... हालांकि मानसिक उठापटक के इस दौर में भी में भी मैं चुप तो नही बैठा....
जंहा भी मौका मिला, जैसा भी मौका मिला बैंकर्स को संगठित करने का, उनका स्वर समवेत बनाने का प्रयास किया...
मेरी सबसे बड़ी समस्या ये है कि मेरे आस पास बैठ कर काम करने वाले लोग इस दिवास्वप्न में है कि निजीकरण हमे तो चिमटी से भी नही छू सकता, तो हम क्यों परेशान हो...?
और मुझे उनके ये विचार सुन कर आश्चर्य होता है, की हम इतने स्वार्थी क्यों हो गए?
आजकल हमारे देश का एक धड़ा बहुत खुश है, इतना ज्यादा कि खुशी छुपाए नही छुप रही, उनकी खुशी एकदम फुदक फुदक कर बाहर जंहा देखो ज्ञान के रूप में गिर रही है...
उनकी इस खुशी का कारण है "अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा"
"देखो तालिबान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की है"
"देखो बिना खून बहाए पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया"
"देखो तालिबान ने दुनिया की सारी शक्तियों के कब्रगाह बना दिये"
"तालिबान तो इस सरकार से कई गुना अच्छा है"
अरे अक्ल के दुश्मनों, या तो तुम इतने मूर्ख हो कि तालिबान के बारे में कुछ जानते नही और या फिर तुम इतने दुष्ट हो कि तुम्हे आतंकवाद प्रिय लग रहा है...
आपको तालिबान सिर्फ इसलिए अच्छा लगता है कि इसकी विचारधारा इस सरकार की विचारधारा की विरोधी विचारधारा है तो आप महामूर्ख हो...
हर मनुष्य के साथ ऐसा होता है कि जब वो शवयात्रा को देखता है तो कुछ क्षणों के लिए संसार से अरुचि या विरक्ति हो जाती है... जीवन की वास्तविकता का हमे अंदाजा उन कुछ क्षणों के लिए लग जाता है कि जीवन क्षणभंगुर है... लेकिन कुछ ही समय मे हम सब भूलकर सामान्य हो जाते है..
रोज अपने आस पास, सोशल मीडिया पर और समाचारों में इतने लोगो को मरते हुए देख कर मेरे साथ वो श्मशान वैराग्य वाली स्थिति स्थायी जैसी हो गई है... जीवन अब असार सा लगने लगा है... क्या फायदा किसी के साथ लगाव रखने का जब वो आपको किसी भी क्षण छोड़कर जा सकता है...?
"मैं क्या कर रहा हूँ"
"क्यों कर रहा हूँ"
जैसे सवाल बार बार मन मे आते है... जीवन मे कितनी ही सफलता अर्जित करे, मृत्यु एक वास्तविकता है, एक अटल सत्य है...
इसके सामने मेने बहुत गुरुर से भरे लोगो को भी गिड़गिड़ाते हुए देखा है...
भारत और चीन के रिश्तों में कड़वाहटों के बीच भारत ने चीन के कई app प्रतिबंधित कर दिए... लेकिन चीन से आया हुआ एक ऐसा उत्पाद है जो भारत मे कोई भी प्रतिबंधित नही कर सकता वो है
"चाय"
चाय के शौकीन लोगो के लिए चाय शब्द ही ताजगी से भरने के लिए पर्याप्त है... मसलन ब्रांच में काम करते समय चाय वाले को कप में अपने लिए चाय भरते हुए देखने के वो क्षण इतना आनंद देते है जितना अपनी दुल्हन का पहली बार घूंघट उठाने वाले क्षण भी नही देते होंगे 🤐
चाय वाले को अपने लिए चाय भरते हुए देखना चाय प्रेमियों के लिए दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य होता है...
लेकिन सर्दियों में सुबह अपने लिए खुद चाय बनाना उसी अनुपात में पीड़ादायी भी होता है.. मैं आपको समझाता हूँ कैसे...
किसी भी आंदोलन की शुरुआत एक असंतोष से होती है... उस असंतोष को धीरे धीरे बाकी लोगो तक पहुंचाना और फिर एक कारवां बनता जाना आंदोलन के उदय का चरण है...
एक टीम बनने के बाद उस टीम को "बनाये रखना" बहुत ज्यादा चुनोतिपूर्ण होता है
आप जिसके खिलाफ संघर्ष कर रहे है उसके विरुद्ध कार्ययोजना बनाने के साथ साथ ही आपकी अपनी टीम में समन्वय बिठाने की भी जिम्मेदारी होती है...
टीम भी कई तरीके से बनाई जा सकती है...
एक तो जैसेकि झुंड... उसमे किसी भी सदस्य का कोई व्यक्तिगत विचार नही होता... सब सदैव एकमत रहते है
एक होती है भीड़... जिसमे कोई भी जो मर्जी कर रहा है, अनुशासन हीनता और हुड़दंग भीड़ की निशानी है....
लेकिन आंदोलन को सफलता न तो झुंड के साथ मिल सकती है और न ही भीड़ के साथ...