नास्तिक हमें बताते हैं कि हमारे देवी-देवता उन्हें सम्मान देने के लिए हमसे रुष्ट होते होंगे😀
ईश्वर में विश्वास न करनेवाले ये ज्ञानी ब्राह्मणों से प्रश्न करेंगे कि; आस्थावानों और देवी-देवताओं के बीच तू कौन है बे?, और आस्थावानों को बताते हैं कि; तू धर्म को इतना मान देगा तो तेरे देवी-देवता तुझसे रुष्ट होंगे😀
नास्तिक होने के कारण इनका देवी-देवताओं से डायरेक्ट कनेक्शन है।
हज़ारों वर्षों से चली आ रही प्रत्यक्ष बातों को किसी नए और अनूठे दर्शन की तरह परोसना विद्वत्ता की इनकी यात्रा का शॉर्ट-कट है।
इन्हें समझने और स्वीकार करने की आवश्यकता है कि सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक चिंतन के नियम बदल रहे हैं, केवल चिंतक नहीं।
यह बात जितनी जल्दी समझेंगे, स्वास्थ्य उतना ही उत्तम रहेगा।
ये जो लोग ईकोसिस्टम के लिए दिन-रात चिंतित रहते हैं न, इनको समझने की आवश्यकता है कि ईकोसिस्टम बनता है, मैन्युफ़ैक्चर नहीं किया जाता।
ईकोसिस्टम व्यक्ति या समूह को उसका अपना स्पेस देता है। वो स्पेस उनका रहने दें। ऐसा नहीं हो सकता कि आपको ‘minions’ की आवश्यकता भी है ताकि उनसे आपको RT और लाइक्स मिलते रहें लेकिन उन्हीं ‘minions’ को आप जब चाहें रगड़ते भी रहें और उनकी औक़ात भी बताते रहें।
समय-समय पर ये यह बताना नहीं भूलते कि नरेंद्र मोदी इन्हें फ़ॉलो करते हैं लेकिन ये ख़ुद किसी कम फ़ॉलोअर वाले अकाउंट फ़ॉलो नहीं करेंगे। उसमें इनकी बेइज़्ज़ती होती है। इनका सेन्स ऑफ़ हायनेस हर्ट होता है।
इन्हें इनके ट्वीट के जवाब में सेन्सिबल ट्वीट मिलेंगे तो ये ऐसे बिहेव करेंगे कि इनके पास समय नहीं है मेन्शन टैब देखने या रिप्लाई करने का। लेकिन कोई anonymous हैंडल इनके ख़िलाफ़ ट्वीट कर दे तो ये तुरंत हत्थे से उखड़ जाएँगे, तीन दिन तक रोएँगे और भारत भर पर अपना ज्ञान छिड़केंगे।
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लगता है जैसे अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं का साथ न देना अब भाजपा की ऐसी आदत बन गई है जिससे छुटकारा पाने के लिए उसके लिए बड़ा कठिन काम है।
बंगाल में जब २०१६ से पहले यहाँ जब लोगों ने पार्टी को अपना समर्थन देना चाहा तो कोई भी स्थानीय नेता आगे आकर वह समर्थन न ले सका।
इसी समय दिल्ली से मंत्री आकर पता नहीं क्यों ममता बनर्जी को good humour में रखना चाहते थे। नतीजा क्या हुआ? पार्टी स्ट्रक्चर नहीं खड़ा हो सका।
२०१८ के बाद आनन-फ़ानन में पार्टी स्ट्रक्चर खड़ा करने की कोशिश की गई जो शायद २०२० तक कुछ हद तक खड़ा तो हो गया लेकिन स्थानीय नेता तब भी वैसे ही रहे जैसे पहले थे।
नतीजा यह हुआ कि अधिकतर स्थानीय नेता आज भी क्लास मॉनिटर का चुनाव जीतने लायक़ न बन सके।
मैं आवश्यक एक कृषि सुधार,
तुम जबरन एक प्रोटेस्ट प्रिये,
मैं सकल राष्ट्र में व्याप्त शांति,
तुम दिल्ली का अनरेस्ट प्रिये,
मैं मेहनत पर निर्भर किसान,
तुम काश्तकार एम एस पी पर,
मैं परेशान एक लोकतंत्र,
तुम पोषित कोई पेस्ट प्रिये!
मैं यू एस ए की प्रोफ़ेसर,
तुम राडिया कन्सल्टेंट प्रिये,
मेरी निधि पर भारी फिसिंग,
इक “एरर ऑफ़ जज्मेंट प्रिये,”
तुम दिल्ली की कैबिनेट मेकर,
मैं हॉर्वर्ड तक फ़ॉर्वर्ड,
मैं पत्रकारिता की मशाल,
तुम उसका अटेनमेंट प्रिये!
मैं कृषक फ़्रेंडली गौरमिंट,
तुम कोई चक्का जाम प्रिये,
मैं फ़िक्स्ड रेट एम एस पी का,
औ तुम मंडी का दाम प्रिये,
मैं खटनी-रत कोई किसान,
तुम मिया ख़लीफ़ा फ़ॉर्मिंग की,
मैं थनबर्गित एक गूगल-शीट,
तुम ट्वीटित कोई ईनाम प्रिये!
आज शनिवार है और अरुणाचल के एक छोटे से ब्लॉक में पोस्टेड हमारे मित्र ADO साहब साढ़े नौ बजे अपनी बाइक पर असिस्टेंट को लेकर निकल गए हैं खेतों की Geo Tagging करने ताकि Farm Traceability ensure की जा सके और आप सरकार को गाली देते हुए देश की राजधानी बंद करना चाहते हैं।
आपको नींद से जागने की आवश्यकता है। ये जो पचास वर्षों से लगातार एक ही बात सुनाई जा रही है कि देश के एक दो राज्य ही देश का भोजन उत्पादन करते हैं उस धारणा में दरार पड़ चुकी है। संभलने की आवश्यकता आपको है।
बाक़ी राज्यों में किसान की किसानी बहुत मज़बूत हुई है, बस उन्हें स्पेस नहीं मिलता कि वे बता सकें कि क्या कर रहे हैं क्योंकि वे बेचारे दिल्ली से दूर रहते हैं।
यह कैसा तर्क है कि; एक भी श्लोक रामायण में दिखा सकते हो जो साबित कर दे कि श्रीराम के अयोध्या लौटने पर पटाखे जलाए गए थे?
कोई यह साबित कर सकता है कि इस पृथ्वी पर पहले शुभ कार्य में नारियल या फूल का प्रयोग किया गया था? पहले पूजन में ही दीपक का प्रयोग किया गया था?
क्या हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के धार्मिक, सांस्कृतिक अनुष्ठान या पूजा पद्धति के नियम पहले ही दिन तय हो गए होंगे? क्या किसी ने पहले ही दिन लिख कर नियम बना दिए थे कि बस इतना ही करना है और इससे बाहर कुछ नहीं करना है?
जिस संस्कृति का इतिहास सहभागिता का अनुपम उदाहरण रहा हो, उसके विकास में समय समय पर नियम जुड़े न हों, इस बात की गारंटी कोई दे सकता है? यदि पहले दिन किताब लिख कर रख दी गई होती तो क्या हमारे इतने देवता होते? हमारे यहाँ पूजा की इतनी पद्धतियाँ होतीं?
जाट आंदोलन,अर्बन नक्सल,दिल्ली दंगा,तुर्की प्लान,एमपी किसान ‘आंदोलन’, शाहीन बाग, जेएनयू..... हाथरस, ऐसे षड्यंत्र तानाशाही के विरुद्ध किए जाते हैं।
नरेंद्र मोदी को वर्षों तक तानाशाह कहने का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि विपक्ष(कांग्रेस) अपने प्रॉपगैंडा में ख़ुद ही विश्वास करने लगा है।
लोकतंत्र में विरोध के तरीक़े षड्यंत्र और मीडिया से नहीं बल्कि परोक्ष रूप से रैली, डिबेट, शासन का विकल्प और नेतृत्व देने में है। समस्या यह है कि इतने षड्यंत्र करने के बाद की बदनामी और लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाने पर असफल होने का भय विपक्ष को केवल षड्यंत्र करने तक रोक के रखता है।
विपक्ष पोषित पत्रकार और संपादक हवाट्सऐप यूनिवर्सिटी का चाहे जितना मज़ाक़ बना लें और सच को हँसी में चाहे जितना उड़ा लें, सच यही है कि सोशल मीडिया बहुत मज़बूत है और सूचना प्रसार से देश का राजनीतिक भविष्य तय करने की क्षमता रखता है।