राजा दशरथ का कल्याणकारी राज्य ; अयोध्या में पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन

अयोध्या उसी प्रकार धनवान एवं समृद्ध थी , जिस प्रकार देवराज इंद्र ने अमरावती का विकास किया था अयोध्या में अत्यंत सुंदर घर और ऊँची - ऊँची अटारियों , ध्वजों और स्तंभोंवाले सुसज्जित प्रासाद थे ।
वहाँ के लोग सुखी एवं संपन्न थे राज्य में चावल , गेहूँ , मटर , मूंग , जौं , बाजरा , मसूर और अंगूर सहित कई समृद्ध फसलें होती थीं । लोगों के पास घरेलू जानवर , हथियार , बर्तन और बड़ी मात्रा में संगीत यंत्र होते थे । विभिन्न राज्यों के राजकुमार सूर्यवंशी राजाओं का आभार व्यक्त करने के
लिए प्रत्येक वर्ष अयोध्या आते थे और अयोध्या के गली - बाजारों में खूब चहल - पहल रहती थी राजा दशरथ ने वेदों में पारंगत एवं ज्ञानी प्रख्यात विद्वानों और प्रसिद्ध ऋषियों को अयोध्या में निवास करने के लिए प्रोत्साहित किया कार्य - संचालन हेतु राजा दशरथ की सहायता उनके
बुद्धिमान मंत्री किया करते थे , जो निष्ठावान , सत्यवादी और राज्य के मामलों में राजा दशरथ की सहायता करने और उन्हें परामर्श देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे । उनके नाम धृष्टि , जयंत , विजय , सुराष्ट्र , राष्ट्रवर्धन , अकोप , धर्मपाल और सुमंत्र थे । महान् ऋषि वसिष्ठ और वामदेव के
अतिरिक्त जाबालि , कश्यप और गौतम ऋषि भी महाराज को मंत्रणा देते थे । मुनि वसिष्ठ राजा दशरथ के पुरोहित थे । इन महर्षियों ने शास्त्रों में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार , कई धार्मिक कार्य तथा पवित्र यज्ञ संपन्न करवाए अयोध्या में रहनेवाले
सभी पुरुष और महिलाएँ धनवान शिक्षित और सदाचारी थे चारों वर्गों के लोग उदार वीरतापूर्ण और निपुण थे अयोध्या में सिंधुक्षेत्र से कांबोज और बाहिका में उत्पन्न हुए घोड़े थे इस नगरी में हिमालय विंध्य और सह्य पर्वतमालाओं में उत्पन्न होनेवाले अत्यंत बलशाली हाथी भी थे
राजा दशरथ ने अयोध्या से शासन करते हुए विश्व के लोगों को उसी प्रकार संरक्षित किया जिस प्रकार स्वर्ग में भगवान् इंद्र देवों की रक्षा करते हैं

राजा दशरथ अपने पास संसार के सभी वैभव होते हुए भी पुत्र - प्राप्ति के लिए सदा चिंतित रहते थे , क्योंकि उनके वंश को चलानेवाला
उनका कोई पुत्र नहीं था पहले उनकी एक पुत्री थी जिसे बहुत समय पहले उन्होंने अपने मित्र राजा रोमपद को गोद दे दिया था उन दिनों लोग वरदान पाने और संतान प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया करते थे पुत्र - प्राप्ति की चिंता करते - करते एक दिन राजा दशरथ के
मन में अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने का विचार आया उन्होंने इस बारे में सुमंत्र और वसिष्ठ सहित अपने पुरोहितों व ऋषियों से परामर्श किया उनके सुझावों को स्वीकार कर राजा दशरथ पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाने के लिए ऋषि ऋष्यशृंग से प्रार्थना करने के लिए गए इन्होंने राजा दशरथ की पुत्री शांता
से विवाह किया था जिसे अंगदेश के राजा रोमपद को गोद दे दिया गया था राजा दशरथ के अनुरोध करने पर ऋषि ऋष्यशृंग अपने परिवार के साथ अयोध्या में कुछ समय तक रहे ऋषि ने राजा दशरथ को अश्वमेध यज्ञ के लिए सरयू नदी के उत्तरी किनारे पर यज्ञभूमि का निर्माण करने का सुझाव दिया
उन्होंने यह परामर्श भी दिया कि यज्ञसंबंधी अश्व को भू - मंडल भ्रमण के लिए तत्काल छोड़ दिया जाए । राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ को बुलाया और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार बिना किसी बाधा के यज्ञ पूरा करने का अनुरोध किया । उन्होंने जाबालि , कश्यप और वामदेव जैसे अन्य महान्
मुनियों को भी आमंत्रित किया और उनसे परामर्श किया उन सभी ऋषियों ने ऋष्यशृंग ऋषि की सलाह का समर्थन किया तदनुसार यज्ञ के अश्व को एक मुख्य पुरोहित के साथ 400 बहादुर सैनिकों की देख रेख में छोड़ दिया गया इस अश्व को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करके वापस आना था यह वसंत ऋतु की शुरुआत का
समय था , जब राजा दशरथ ने यज्ञ प्रारंभ करने के लिए ऋष्यशृंग से प्रार्थना की थी

( वाल्मीकि रामायण 1 / 12 / 1,2 )

बसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टुं मनोऽभवत् ॥ ततः प्रणम्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिनम् । यज्ञाय वरयामास सन्तानार्थं कुलस्य च ॥
अर्थात् वसंत ऋतु के प्रारंभ के शुभ समय में राजा दशरथ ने यज्ञ आरंभ करने का विचार किया तत्पश्चात् उन्होंने देवकांतिवाले विप्र ऋष्यशृंग को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और वंश - परंपरा की रक्षा हेतु पुत्र - प्राप्ति के निमित्त यज्ञ कराने की प्रार्थना की ।
यह वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास का आरंभ था प्राचीन समय से हिंदुओं द्वारा अपनाए गए चंद्रसौर कलेंडर के अनुसार वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास से होता था प्लैनेटेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार 10 जनवरी , 5116 वर्ष ई.पू. को पूर्ण चंद्रमा चित्रा नक्षत्र ( Alpha Vir Spica ) कन्या राशि में था
जिस कारण से इस महीने को चैत्र मास का नाम भी दिया गया । चैत्र मास का प्रारंभ पंद्रह दिन बाद चैत्र अमावस्या के बाद चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रारंभ से माना जाता था । ऋग्वेद के संदर्भो के आकाशीय दृश्य यह सिद्ध करते हैं कि लगभग 6000 वर्ष ई.पू. से वर्ष ( संवत्सर ) का प्रारंभ
प्राचीन भारत में चैत्र मास से माना जाने लगा जब अश्विनी नक्षत्र शीतकालीन अयनांत के समय आकाश में दिखाई देने बंद हो गए परंतु ठीक सामने चित्रा नक्षत्र चमकने लगे ( ऋग्वेद -7 / 4 / 8 ) ( देखें व्योमचित्र - 1-2 जनवरी 5116 वर्ष ई.पू. को वसंत ऋतु अर्थात् चैत्र मास के आरंभ का व्योमचित्र
अयोध्या 10 जनवरी , 5116 वर्ष ई.पू. 06:45 बजे , प्लैनेटेरियम द्वारा मुद्रित , चित्रा नक्षत्र में पूर्ण चंद्रमा स्पष्ट दृश्यमान
इस दौरान यज्ञ के लिए तैयारियां पूरी की जा चुकी थीं राजा दशरथ के निर्देशन में मुनि वसिष्ठ ने यज्ञ के लिए पहले ही तैयारियां शुरू कर दी थीं सुमंत्र को पृथ्वी के सभी महान् राजाओं , विशेष रूप से मिथिला , काशी , अंग , मगध सिंधुसुवीर , सुराष्ट्र आदि के महान् राजाओं को आमंत्रित करने का
दायित्व सौंपा गया था ये सभी राजा दशरथ के अच्छे मित्र थे ये सभी राजा अपने दरबारियों संबंधियों और अनुयायियों के साथ अयोध्या पहुँचे । सुमंत्र को प्रतिष्ठित ब्राह्मणों , क्षत्रियों वैश्यों और शूद्रों को हजारों की संख्या में आमंत्रित करने का निर्देश दिया गया था और
उन सभी से गरिमा और सम्मान के साथ व्यवहार करने का निर्देश भी दिया गया था यज्ञ अनुष्ठान के लिए व्यापक प्रबंध लिग गए थे राजाओं के लिए प्रासादों का निर्माण किया गया था क्षत्रियों के लिए मकानों का निर्माण और अन्य नागरिकों के लिए विशाल आवासों का निर्माण किया गया था
यज्ञ के अश्व को पृथ्वी का एक पूरा चक्कर लगाकर वापस आने में लगभग 12 महीनों का समय लगा । इसके पश्चात् वसंत ऋतु के पुनः आगमन पर सरयू नदी के उत्तरी तट पर अश्वमेध यज्ञ की प्रक्रिया शुरू की गई । राजा दशरथ अश्वमेध यज्ञ व पुत्रकामेष्टि यज्ञ की प्रक्रिया शुरू करवाने के लिए मुनि वसिष्ठ के
पास गए । राजा दशरथ ने मुनि वसिष्ठ को यज्ञ शुरू करने और बिना किसी बाधा के यज्ञ को पूरा करवाने का अनुरोध किया यज्ञ का प्रारंभ दिनांक 15 जनवरी , 5115 वर्ष ई.पू. को चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रथमा के पश्चात् हुआ था , जैसा कि रामायण में स्पष्ट रूप से वर्णित है

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