लोग पूछते हैं कि बैंकर किसानों जैसे एकजुट होकर राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन हड़ताल क्यों नहीं कर सकते। जवाब मानसिकता में छुपा हुआ है। एक बार अमेरिकन एंथ्रोपोलॉजिस्ट्स आदिवासी बच्चों के बीच गए। 30-40 बच्चों को इकठ्ठा किया और कुछ सवाल पूछने लगे।
जैसा कि हमारे स्कूलों में होता है कि जिसको जवाब आता है वो हाथ उठाकर जवाब दे देता है। सवाल आसान थे इसलिए शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि यहाँ भी वैसा ही होगा। मगर किसी भी बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया।
विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकाला कि आदिवासी बच्चे आम अमरीकी बच्चों कि तुलना में दिमागी रूप से कमजोर होते हैं। बाद में इस विषय पर दोबारा स्टडी की गई। इस बार एक एक बच्चे को अलग अलग बुला के अकेले में वैसे ही सवाल पूछे गए। इस बार लगभग सबने जवाब दिए।
थोड़ा और रिसर्च करने के बाद ये निष्कर्ष निकला गया कि, दिमागी रूप से आदिवासी और आम शहरी बच्चों में कोई अंतर नहीं होता। अंतर होता है मानसिकता का। आदिवासियों में प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं होती। उन्हें शुरू से ही एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना सिखाया जाता है। #StopPrivatization
पचास बच्चों के बीच खड़े होकर सवाल का जवाब देना उनको अटपटा लगता है क्योंकि उनको लगता है कि इससे बाकी बच्चे शर्मिंदगी महसूस कर सकते हैं। उसको बाकी बच्चों के सामने अपने को श्रेष्ठ साबित करना सिखाया ही नहीं गया।
अगर सभी एक साथ बोलेंगे तो तो वो भी बोलेगा, मगर सबके बीच में अकेला नहीं। बचपन में अरस्तू का कथन पढ़ते थे कि "Man is by nature a social animal"। पुराने लगभग सभी दार्शनिकों ने समाज को व्यक्ति से ऊपर बताया है।
"अविकसित" आदिवासियों और "असभ्य" ग्रामीणों में ये भाव अभी भी पाया जाता है। तभी तो हजारों किसान समाज के एक बुलावे पर विरोध करने चल देते हैं। उनको स्वयं की कोई चिंता नहीं। "सभ्य" नौकरीपेशा लोगों में ये भाव नहीं पाया जाता। हमें शुरू से ही प्रतिस्पर्धा सिखाई जाती है।
स्कूल में ही सिखा दिया जाता है की हमको हमारे मित्र को ही पछाड़ कर प्रथम आना है। आगे भी यही चलता है। हम बैंकर कैसे बने? लाखों लोगों ने परीक्षा दी थी, उनमें से निन्यानवें प्रतिशत को पछाड़कर हमने ये नौकरी पाई। नौकरी में आने के बाद भी वही प्रतिस्पर्धा का भाव जारी रहा।
कभी प्रमोशन के लिए तो कभी बॉस को खुश करने के लिए, अपने ही सहकर्मी को पीछे करने की कोशिश सारी उम्र चलती रहती है। ऐसे में ये उम्मीद करना ही बेमानी है कि निजीकरण के विरोध में सारे बैंकर एक साथ आएंगे। बैंकर छोडो बैंक यूनियन एक साथ आ जाएँ वही बड़ी उपलब्धि होगी। #StopPrivatization
इसीलिए बैंकरों कि हड़तालें सांकेतिक होती हैं। ताकि बॉस लोगों को ये दिखाया जा सके कि भई हमने तो हड़ताल यूनियन के दवाब में आकर करी थी। आम बैंकर शायद ही कभी एक्टिव विरोध प्रदर्शन में जाएगा।
क्योंकि उसको पता है कि उसी के सहकर्मियों में ही कोई न कोई बैठा है जो इसकी चुगली उसके बॉस से करेगा ताकि कम्पटीशन में उससे आगे निकल सके। इस प्रतिस्पर्धा के भाव ने हमें इतना अकेला कर दिया है कि हम अपने अलावा शायद किसी के सगे नहीं। अब हम "Social animal" नहीं रहे।
बेरोजगारी ऐसे ही नहीं बढ़ती। बेरोजगारी हमेशा ही कृत्रिम होती है। यह वर्कफोर्स के खिलाफ किसी भी सरकार का सबसे बड़ा हथियार होती है। वर्कफोर्स के दिमाग में हमेशा ये डर बना रहना चाहिए कि वो रिप्लेसेबल है और उसकी जगह लेने के लिए बहुत लोग तैयार बैठे हैं। #NoVoteToSellerGovt
बस यही डर दिखाकर आप उनसे नैतिक अनैतिक कोई भी काम करवा सकते हैं, काम के बोझ के नीचे दबा कर मार सकते हैं। वर्कफोर्स कोई भी मांग करे, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करे आप तुरंत बोल सकते हैं कि नौकरी छोड़ दो बहुत बैठे हैं तुम्हारी जगह लेने के लिए। #NoVoteToSellerGovt
ये चीज आपको आज के दौर में प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिल जाएगी। बैंकों में जरूरत से आधा स्टाफ दिया हुआ है और काम का बोझ कई गुना बढ़ाया जा चुका है। भर्तियां भी पहले से कम कर दी हैं और ऊपर से VRS भी ला रहे हैं। #NoVoteToSellerGovt
एक अनुमान के हिसाब से शहरी क्षेत्र में किसी बैंक ब्रांच को ब्रेक इवन होने में 6-7 साल का समय लगता है। वही शहरी क्षेत्रों में यह समय 2-3 साल का होता है। मतलब ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रांच खोलने का मतलब है कम से कम 6 साल के लिए पूंजी फंसाना।
कई बार तो ग्रामीण ब्रांचें कभी मुनाफे में आ ही नहीं पाती। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में निजी बैंकों की शाखाएं नहीं के बराबर होती हैं। लेकिन चूंकि आज भी देश की 70% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, निजी बैंकों के लिए इस क्षेत्र पर कब्जा करना बहुत जरूरी है।
तभी बैंकिंग इंडस्ट्री से सरकारी बैंकों का प्रभुत्व समाप्त हो सकेगा। अब 6-7 साल पूंजी कौन फंसाये। सबसे बढ़िया तरीका है कि कोई सरकारी बैंक ही खरीद लिया जाए। जो लोग बैंकिंग की माइक्रो मैनेजमेंट को समझते हैं उन्हें पता होगा कि निजी बैंकें अनबैंक्ड क्षेत्रों में ब्रांच नहीं खोलती।
पता नहीं क्यों लेकिन इस सरकार के हर कदम के पीछे अब चीन की साज़िश लग रही है। नोटबन्दी से PayTM का बाजार चमका और PayTM में पैसा लगा है चीन का। चीन से अक्साई चिन वापिस लेने के सपने दिखा के सत्ता में आये थे और अब चीन को जमीन गिफ्ट किये जा रहे हैं। #BlackBill
बिना किसी तैयारी के डिजिटल इंडिया चालू किया। बिक्री बढ़ी चीन के मोबाइल और बाकी हार्डवेयर की। अब सरकारी बैंकों का निजीकरण कर रहे। ताकि चीन भारतीय बैंकों में हिस्सेदारी खरीद सके। इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स भी चीनी कंपनियों के ही हवाले किये जा रहे हैं।
चीन पहले ही भारत के रिटेल बिज़नेस (ऑटोमोबाइल छोड़ के) पर पहले ही अपना कब्जा कर चुका है। अब धीरे धीरे कैपिटल मार्केट पर भी कब्जा कर रहा है। सरहदों पर चीन पहले ही जमा हुआ है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत तो छोड़ो अमेरिका और रूस भी चीन से घबराते हैं।
आज संविधान दिवस है। तीन दिन बाद संसद का शीत सत्र शुरू होगा और वहां संविधान का मखौल बनाया जाएगा।
"We the people of India..." का कोई मतलब नहीं बचा अब। क्योंकि People of India को पता ही नहीं कि संसद में क्या कानून बनने वाले हैं इस बार। सरकार ने बताया ही नहीं। #DaroMatDebateKaro
शायद अब सरकार जनता को इस लायक समझती ही नहीं। "जनता क्या करेगी जानकर? जनता ने चुन के भेज दिया। अब हमारी मर्जी हम कुछ भी कानून बनाएं। चुनाव खत्म होने के बाद संविधान, लोकतंत्र सब खत्म हो जाता है ना।"
जनता की ही संपत्तियां बेच रहे हैं। जनता को बिना बताए। जनता का लाखों करोड़ रुपया, जो अपने खुद के बैंक में जमा किया था, अब किसी पूंजीपति के हवाले कर दिया जाएगा। कुछ पूछो तो कह देंगे कि तुमने ही तो चुन कर भेजा है। #BlackBill
ब्रांच मैनेजर अपने केबिन के बाहर लगी भीड़ से परेशान। केबिन भी क्या ही था, क्यूबिकल जैसा था जिसमें सामने दो कुर्सियां लगी थीं। भीड़ देखकर BM का केबिन कम और इन्क्वायरी काउंटर ज्यादा लग रहा था। एक मलिन सी महिला बिना नहाये हुए तीन छोटे छोटे बच्चों को लेकर आयी।
BM की टेबल पे तीन पासबुक रखी और डरते हुए बोली साहब बैलेंस बता दो। BM ने एक नजर उस महिला और उसके बच्चों को देखा और फिर उन गंदली सी पासबुकों को। झुंझलाते हुए पासबुक उठाई और तड़-तड़ करते हुए कीबोर्ड में अकाउंट नंबर टाइप करने लगा।
"तिरेपन रूपये", "सैंतीस रूपये", "इसमें तो आठ ही रूपये हैं", बताते हुए एक एक करके पासबुक टेबल पे पटकता गया। "फिर हरामी ने सारे पैसे निकाल लिए।" महिला को खातों में पैसे होने की उम्मीद नहीं थी मगर BM का जवाब और रवैया देखकर और भी बुझ गई।