एक जमाना था .. कानपुर की "कपड़ा मिल" विश्व प्रसिद्ध थीं कानपुर को "ईस्ट का मैन्चेस्टर" बोला जाता था।
लाल इमली जैसी फ़ैक्टरी के कपड़े प्रेस्टीज सिम्बल होते थे. वह सब कुछ था जो एक औद्योगिक शहर में होना चाहिए।
मिल का साइरन बजते ही हजारों मज़दूर साइकिल पर सवार टिफ़िन लेकर फ़ैक्टरी
की ड्रेस में मिल जाते थे। बच्चे स्कूल जाते थे। पत्नियाँ घरेलू कार्य करतीं । और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही लाखों सेल्समैन, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी चल रही थी।
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फ़िर "कम्युनिस्टो" की निगाहें कानपुर पर पड़ीं.. तभी से....बेड़ा गर्क हो गया।
"आठ घंटे मेहनत मज़दूर करे और गाड़ी से चले मालिक।"
ढेरों हिंसक घटनाएँ हुईं,
मिल मालिक तक को मारा पीटा भी गया।
नारा दिया गया
"काम के घंटे चार करो, बेकारी को दूर करो"
अलाली किसे नहीं अच्छी लगती है. ढेरों मिडल क्लास भी कॉम्युनिस्ट समर्थक हो गया। "मज़दूरों को आराम मिलना चाहिए,
ये उद्योग खून चूसते हैं।"
कानपुर में "कम्युनिस्ट सांसद" बनी सुभाषिनी अली । बस यही टारगेट था, कम्युनिस्ट को अपना सांसद बनाने के लिए यह सब पॉलिटिक्स कर ली थी ।
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अंततः वह दिन आ ही गया जब कानपुर के मिल मज़दूरों को मेहनत करने से छुट्टी मिल गई।
मिलों पर ताला डाल दिया गया।
मिल मालिक आज पहले से शानदार गाड़ियों में घूमते हैं(उन्होंने अहमदाबाद में कारख़ाने खोल दिए।)कानपुर की मिल बंद होकर भी ज़मीन के रूप में उन्हें (मिल मालिकों को) अरबों देगी। उनको फर्क नहीं पड़ा .(क्योंकि मिल मालिकों कभी कम्युनिस्ट के झांसे में नही आए !)
कानपुर के वो 8 घंटे यूनिफॉर्म में काम करने वाला मज़दूर 12 घंटे रिक्शा चलाने पर विवश हुआ .. !! (जब खुद को समझ नही थी तो कम्युनिस्ट के झांसे में क्यों आ जाते हो ??)
स्कूल जाने वाले बच्चे कबाड़ बीनने लगे...
और वो मध्यम वर्ग जिसकी आँखों में मज़दूर को काम करता देख खून उतरता था,
अधिसंख्य को जीवन में दुबारा कोई नौकरी ना मिली। एक बड़ी जनसंख्या ने अपना जीवन "बेरोज़गार" रहते हुए "डिप्रेशन" में काटा।
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"कॉम्युनिस्ट अफ़ीम" बहुत "घातक" होती है, उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं..!
एक पिम्पल का इलाज एक समझदार अनुभवी डॉक्टर और एक केमिस्ट दोनों कर सकते हैं।
केमिस्ट आपको एक टेबलेट देगा या फिर कोई ऑइंटमेंट.
पिम्पल सही हो जाएगा . पर कुछ दिन बाद दूसरी जगह निकल आएगा.
अनुभवी चिकित्सक समझेगा कि यह पिम्पल क्यों निकल रहे हैं...वो समस्या की जड़ ढूंढेगा और वहां
से इलाज शुरू करेगा।
आप चकरा सकते है कि डॉक्टर तो बहुत नामी है..फीस भी मोटी है पर चार दिन के ट्रीटमेंट के बाद भी पिम्पल अपनी जगह पर बना हुआ है..
In फैक्ट डॉक्टर की प्रियोरिटी में उस पर्टिकुलर पिम्पल का इलाज करना था ही नहीं .. उसने इलाज़ किया आपके पेट का, आपके रक्त की
इम्प्यूरिटीज़ का..जिसके बाद एक भी पिम्पल निकल न सकेगा.अधीर मरीज डॉक्टर की क़ाबलियत पर प्रश्न खड़ा करेंगे.क्योंकि उन्हें उस पर्टिकुलर पिम्पल का ही इलाज चाहिए था.अपने टोले में कुछ भक्त भी ऐसे ही हैं.
हर बात में मोदी जी की समझदारी पर प्रश्न खड़े करना.हर बात में उनकी स्पाइन ढूंढना.
जब भी चुनाव होता है, चुनाव में मुद्दे होते हैं।
मुद्दे चुनावी संग्राम की सुंदरता होती है। मुद्दों को जमीन से उठाया जाता है, फिर इसे आम जनता में भुनाया जाता है।मुद्दों पर सत्ता को घेरने की कोशिश होती है।सत्ता के राजनीतिक मातहत डिफेंस करते हैं।विपक्ष उन डिफेंसेज का काउंटर करता है।
देश की लैंडमार्क पॉलिटिक्स यूपी से होती है। लेकिन आश्चर्य कि इस चुनाव यहां एक भी मुद्दे अभी तक टिक नहीं पाए हैं। आधारभूत सुविधा मुद्दा नहीं है। बिजली, सड़क, खाद्यान्न मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है। लॉ एंड ऑर्डर मुद्दा नहीं है। गुंडागर्दी मुद्दा नहीं है।
माफियागिरी मुद्दा नहीं है। अपराधी को जेल भी नसीब नहीं है। शिक्षा माफिया के घर बुलडोजर चलाए जा रहे। परीक्षाओं में नकल संभव नहीं।
अर्थव्यवस्था देश में 17वें पायदान से उठकर 2रे पायदान पर आ गया है। रोजगार के लिए उद्योग धंधे लाल कारपेट सम्मान पा रहे। दंगा हो नहीं रहा है।
गोगोई ने सच कहा तो
दागी भ्रष्ट जजों के नाम बता कर
बाहर किया जाये, अन्यथा,
गोगोई पर अदालत की अवमानना
की कार्रवाई शुरू हो -
पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई से
सुधीर चौधरी, ज़ी न्यूज़ के संपादक
ने उनकी आत्मकथा "Justice for
Judges" के प्रकाशित होने से पूर्व
सीधा सवाल
किया था कि क्या
सुप्रीम कोर्ट में भी भ्र्ष्टाचार है -
इस पर रंजन गोगोई ने कहा -
"जज आसमान से नहीं गिरते हैं.
भ्रष्टाचार उतना ही पुराना है जितना
कि समाज. भ्रष्टाचार जीवन का एक
तरीका बन गया है – जीवन का ऐसा
तरीका जिसे लोग अब स्वीकार्य
करते हैं"
सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्टाचार के लिए इतनी
बड़ी स्वीकारोक्ति के लिए मीडिया के
किसी चैनल में कोई बहस नहीं हुई,
कोई शोर नहीं मचा और ना ही CJI
एन वी रमना की तरफ से किसी तरह
की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई --
मैं रंजन गोगोई के कथन से सहमत
नहीं हूँ कि भ्रष्टाचार जीवन का ऐसा
भूल गए न ?
वे चैराहों पर पीटी जाती औरतें ,,,
एयरपोर्ट पर अनजान अमेरिकी सैनिकों को अपने दुधमुंहे बच्चे सौंपती बेबस माएँ,
मासूम बच्चियों को छाती से चिपटाकर बेतहाशा भागती औरतें ,
सचमुच भूल गए न ?
वक्त भी क्या चीज है , बड़े और गहरे जख्मों को भी भर देता है !
स्मृतियाँ भी ऐसी हैं !
बेशक याद आती हैं पर वक्त के साथ हल्की पड़ती जाती हैं , उतना दर्द नहीं देती !
अब देखिए न ! अफगानिस्तान और प्रतिदिन यातनाएं भोग रही उसकी जनता को हमने किस तरह भुला दिया !
कोई चर्चा भी नहीं होती तो किसी को दर्द भी नहीं होता !
बदकिस्मती देखिये कि अफगानियों के जख्म आज भी उतने ही हरे हैं!
ज़ुल्म की दास्तान उसी तरह लिखी जा रही है!
घरों से लड़कियाँ उठाई जा रही हैं,चैराहों पर कोड़े बरस रहे हैं,स्कूल कालेज की चौखट पर खड़ी लड़कियाँ भीतर जाने को तडफ़ रही हैं , सड़कों पर नर्क आज भी पसरा हुआ है !
दिग्विजय सिंह --मानसिक रोगी -
अपनी लुगाई से तो पूछ लो,
क्या वो भी मोदी से प्रभावित है -
हिन्दू कौन, ये बताने की औकात
नहीं है तुम्हारी --
सच में लगता है दिग्विजय सिंह एक
मानसिक रोगी है --उसने अपने एक
बयान में कहा है कि प्रियंका वाढरा
ने उसे "ज्ञान" दिया है जिसके
अनुसार
पैंट जींस पहनने वाली लड़कियां
मोदी से प्रभावित नहीं है बल्कि 40
वर्ष से ऊपर की औरतें मोदी से ज्यादा
प्रभावित हैं --
कितना गिरोगे दिग्विजय सिंह मोदी
को कोसने के लिए, वो भी तब, जब
वो तुम लोगों की अनर्गल बकवास
का जवाब नहीं देते --
अब एक बार प्रियंका से ही
पूछ लो
दिग्विजय, वो तो जींस छोड़ कर साड़ी
पहन रही है और 49 वर्ष की है -
वो क्यों मोदी से प्रभावित नहीं है;
आपने घर में लुगाई अमृता राय से भी
पूछ लो जो आज 49 वर्ष की हैं कि
क्या वो भी तो मोदी से प्रभावित तो नहीं
हैं --उनकी शादी जब आपसे हुई थी,
तब भी वो 43 वर्ष की थी
किसी भी चुनाव को रद्द करना है तो सभी दलों की सहमति होना चाहिए। विडंबना देखिए कि लखनऊ दौरे पर गए चुनाव आयोग के दल को कल एक भी राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि चुनाव टाल दीजिए बल्कि सबने एक सुर में कहा कि चुनाव समय पर होना चाहिए।
वैसे तो हमाम में सब नंगे हैं लेकिन अगर हमाम सियासी हो तो नंगई जन्मसिद्ध अधिकार व कर्तव्य हो जाता है।
कोरोना की पिछली विभीषिका देखने व कोर्ट के निवेदन के बाद वैसे तो केंद्र व राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बनती थी कि वह आगे बढ़ कर खुद इस बात को सभी राजनीतिक दलों के सामने रखता कि
अभी चुनाव का उपयुक्त समय नहीं है। खैर इस सरकार को चुनाव लड़ने में आनंद आता है इसलिए उससे अपेक्षा बेकार है।
इस समय का मौजूदा विपक्ष सरकार को किसी तरह की चुनौती न दे पा रहा। सरकार को किसी विधा चुनौती मिले और उसकी तुक्का फ़ज़ीहत हो इसलिए सभी विपक्षी दल शायद यही चाहते है क्यों कि