फिल्म निर्देशक अमृत नाहटा ने 1974 में एक फिल्म बनायी थी जिसका नाम था किस्सा कुर्सी का। इस फिल्म ने इंदिरा गांधी की सरकार को हिला कर रख दिया था। जब इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड ने देखा तो
इसके किसी सदस्य ने केंद्र सरकार से यह चुगली कर दी कि इस फिल्म के कुछ दृश्य सरकार विरोधी हैं। बस इतना सुनते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दिमाग का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया था और उसने सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल से कठोर कारवाई करने को कहा। फिर वे
मंत्री जी भी कहाँ टिकने वाले थे।
👉 फिल्म के सारे प्रिंट ही गुड़गांव में जला दिये थे और संजय गांधी को जाना पड़ा था तिहाड़ जेल
जब 1977 में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार ने इंदिरा गांधी की उस करतूत की तह तक जाने के लिये एक जाँच आयोग बिठा दिया था। उस समय समाचार पत्रों
में छपा था कि इसके लिये संजय गांधी को एक महीना तिहाड़ जेल में बिताना पड़ा था।
1974 में बनी अमृत नाहटा की फिल्म कभी रिलीज नहीं हुई थी। 1977 के चुनाव में यह फिल्म बहुत बड़ा मुद्दा बनी थी। इस फिल्म को बनाने वाले अमृत नाहटा दो बार कांग्रेस और एक बार जनता पार्टी से सांसद रहे।
किस्सा कुर्सी का फिल्म में राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिह्न ‘जनता की कार’ था।
उस समय मारुति कार संजय गांधी का ड्रीम प्रोजेक्ट था जिसे जनता की कार बताया गया था।
फिल्म किस्सा कुर्सी का भारतीय सिने इतिहास की सबसे विवादास्पद फिल्म मानी जाती है।
1977 में अमृत नाहटा ने इस फिल्म फिर
से इसी नाम से अर्थात फिल्म किस्सा कुर्सी का बनायी तो उस समय यह सुपर हिट रही थी।
इसके मुख्य कलाकार थेः
राज बब्बर और शबाना आज़मी
जो कि आज कांग्रेस की ताल पर नाच रहे हैं।
■ मोदी बड़ा असहिष्णु है जी 😀
✍️ अनिल कौशिश
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पिछले छ महीने से टोंटी यूपी मे ताल ठोंक कर योगीजी को ललकार रहा था......आज चुनाव का शंखनाद होने बाद चुनाव आयोग की वर्चुअल रैली की बात कहते ही किंकिया कर कहने लगा की बीजेेपी का आई.टी. सेल बहुत मजबूत है,उससे निपटना आसान नही है...यानी की संग्राम प्रारम्भ होते ही
पलायन....भगोड़पन...अभी तक बाहुबली बनने का झांसा देने वाले टोंटी भाई के अंदर इतना पिलपिलापन...?
खैर मुझे तो समझ मे आ रहा कि क्यों आई.टी. सेल के बहाने चुनाव आयोग पर ठीकरा फोड़ रहे हो....साफ साफ क्यों नही कहते हो कि ओवैसी ने शांतिधूर्तों का अधिकाश वोट खिसका कर तुम्हे बौराने पर
मजबूर कर दिया...क्यों नही कहते हो कि पिछले दिनो पड़े छापों से तुम्हारी भरी तिजोरी आज खून के आँसू रो रही है...क्यों नही अपने उछल कूद करने वाले गुंडे समर्थकों से कह पा रहे हो कि तुम्हारे द्वारा दिखाया जा रहा सत्ता वापसी का दावा खोखला था.....???
25 जनवरी 2000 का दिन। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के सादात स्टेशन पर एक ट्रेन रुकी थी। वहाँ छात्रों का एक समूह था, जो ट्रेन के अलग-अलग डिब्बों में चढ़ने लगा। कुछ छात्र जब एक डिब्बे में चढ़ने लगे तो उस डिब्बे में मौजूद कुछ सुरक्षाकर्मियों ने उन छात्रों को रोका। छात्र नहीं माने और
जबरन चढ़ने की कोशिश करने लगे। उन सुरक्षाकर्मियों ने गोली चलायी - एक छात्र की मौत हो गयी और एक घायल हो गया।
इस बात पर तो बवाल मच जाना चाहिए था, बहुत बड़ा छात्र आंदोलन खड़ा हो जाना चाहिए था। राजनीति भी जम कर होनी चाहिए थी, क्योंकि वे सुरक्षाकर्मी एक राजनेता की सुरक्षा
के लिए उस डिब्बे में थे।
पर ऐसा नहीं हुआ। इसलिए नहीं हुआ, कि उस डिब्बे में चल रहे राजनेता थे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, और उनकी सुरक्षा में लगे जवान साधारण पुलिस के जवान नहीं थे, एसपीजी के सुरक्षाकर्मी थे।
उन छात्रों को तो पता भी नहीं था कि उस डिब्बे में चंद्रशेखर बैठे हैं।
देश एक विकट परिस्तिथि से गुजर रहा है -
देश के आंतरिक और बाहरी दुश्मनों
के निशाने पर केवल मोदी और योगी
ही नहीं हैं, पूरा हिन्दू समाज है --
इसलिए किसी भी हालत में मोदी का
साथ मत छोड़िये --छोटी मोटी बातों
में उलझ कर उस पर सवाल मत
कीजिये -
10 रुपये दाल के दाम बढ़ गए, सब्जी
5 रुपये किलो महंगी हो गई, पेट्रोल,
गैस ये सब बातें समय के अनुसार
ठीक हो जाएँगी --मगर मोदी गया तो
फिर कुछ नहीं रहेगा और ये ही सच
है -
एक बार दिल पर हाथ रख कर सोचो
कि जो ओवैसी मुसलमानों को मोदी
के लिए नफरत के सिवाय कुछ नहीं
दे सकता,
उसके खिलाफ मुसलमान
कभी कुछ क्यों नहीं बोलते --
विपक्ष दलों के लोग राहुल गाँधी समेत
अपने किसी नेता से सवाल नहीं करते
फिर मोदी के ही समर्थक छोटे छोटे
मसलों पर उसको क्यों कटघरे में खड़ा
करने को आतुर रहते हैं -
फ़िरोज़पुर में हुए षड़यंत्र के बावजूद
कांग्रेस मोदी पर निशाना
जिन मुट्ठी भर सुरक्षाकर्मियों ने फ्लाईओवर के दोनों तरफ से घिरे भीड़ के बीच से सकुशल प्रधानमंत्री को बचाकर निकाल लिया,, हम कभी उनके नाम नहीं जान पायेंगे, लेकिन हमारे आभार और शुभकामनाओं के भागी हैं वे,इसलिए हृदय खोलकर उन्हें आभार दीजिये,ईश्वर का धन्यवाद कीजिये और उनसे
प्रार्थना कीजिये कि वे देश का हितचिंतकों की पग पग रक्षा करें।
अभी तो कई वीडियो आ गए हैं,,देखिए...मन काँप जाएगा जब एक फ्लाईओवर पर दोनों तरफ से प्रधानमंत्री घिरे दिखेंगे।
सुरक्षित ठहराते हुए धोखे से प्रधानमंत्री को उस रुट पर बुलाकर ऐसे रोकना, निश्चित ही बड़े घटना को अंजाम देने
की खुली कोशिश है जो हम जैसे असंख्यों हितचिंतकों की प्रार्थनाओं के कारण प्रभु कृपा से टल गया।
दर्जनभर के लगभग प्रदेशों के मुख्यमंत्री हैं जिनमें से कुछ ने जीतोड़ मेहनत कर बेशर्मी और उद्दण्डता की तालिका में अपना स्थान लम्बे समय से आरक्षित कर रखा था, पर उसमें इस तरह सबको पछाड़ते
बहुत कम लोग जानते है कि सन 1986 में दिल्ली में कुरान पर केस चला था. .......और कुरान की 26 आयतों को दिल्ली कोर्ट ने विवादित, अमानवीय एवम शर्मनाक घोषित किया था......उस समय जो जज थे उनका नाम जस्टिस z.s.Lohat था....
हुआ ये था कि दिल्ली के इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य नामक दो व्यक्तियों ने कुरान की आयतों को दीवारों पर लिखवा दिया था.....जिसमे लिखा था कि जो इस्लाम को न माने उसे कत्ल कर दो इत्यादि। ये सब देखकर मुस्लिम भड़क गए.....दोनो को गिरफ्तार कर लिया गया... और दोनो को
ममैवांशो जीव लोके जीव भूत सनातनः.....
अर्थात संसार का प्रत्येक जीव मेरा ही अंश है एवम सनातन है.....अर्थात किसी से भी द्वेष मत करो चाहे वो मुझे मानता हो या न मानता हो....
यही कारण है कि आजतक श्रीमद्भगवद गीता के खिलाफ एक भी केस नही चला बल्कि आधुनिक अमेरिका के जनक एमर्सन कहते है
एक जमाना था .. कानपुर की "कपड़ा मिल" विश्व प्रसिद्ध थीं कानपुर को "ईस्ट का मैन्चेस्टर" बोला जाता था।
लाल इमली जैसी फ़ैक्टरी के कपड़े प्रेस्टीज सिम्बल होते थे. वह सब कुछ था जो एक औद्योगिक शहर में होना चाहिए।
मिल का साइरन बजते ही हजारों मज़दूर साइकिल पर सवार टिफ़िन लेकर फ़ैक्टरी
की ड्रेस में मिल जाते थे। बच्चे स्कूल जाते थे। पत्नियाँ घरेलू कार्य करतीं । और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही लाखों सेल्समैन, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी चल रही थी।
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फ़िर "कम्युनिस्टो" की निगाहें कानपुर पर पड़ीं.. तभी से....बेड़ा गर्क हो गया।
"आठ घंटे मेहनत मज़दूर करे और गाड़ी से चले मालिक।"
ढेरों हिंसक घटनाएँ हुईं,
मिल मालिक तक को मारा पीटा भी गया।
नारा दिया गया
"काम के घंटे चार करो, बेकारी को दूर करो"
अलाली किसे नहीं अच्छी लगती है. ढेरों मिडल क्लास भी कॉम्युनिस्ट समर्थक हो गया। "मज़दूरों को आराम मिलना चाहिए,