साहब: यहाँ हम किसी को टारगेट नहीं देते। BM खुद अपने टारगेट सेट करते हैं। BM साहब, पिछले महीने किया बीमा किया?
BM: सर, 4 लाख।
साहब: पिछली मीटिंग में आपने कितना प्रॉमिस किया था?
BM: सर, 10 लाख।
साहब: फिर क्यों नहीं कर पाए? टारगेट खुद आपने ही बताया था न। खुद का टारगेट भी अचीव नहीं कर पाए?
BM: सर वो इस महीने एक स्टाफ छुट्टी पे था तो काम का लोड बढ़ गया था। फिर क्वार्टर क्लोजिंग थी इसलिए NPA रिकवरी भी करनी थी। लोक अदालत के नोटिस...
साहब: ये सब मुझे मत सुनाओ। BM तुम हो या कोई और?
BM : मैं ही हूँ सर।
साहब: तो ब्रांच की जिम्मेदारी किसकी है? NPA रिकवरी, लोक अदालत, ये सब मैं देखूँगा? ब्राँच के रेगुलर काम के लिए अलग से आदमी चाहिए तुमको? बैंकिंग का मतलब सिर्फ डेबिट-क्रेडिट नहीं होता।
इस काम के लिए ब्रांच का बाकी स्टाफ ही काफी है, नया बिज़नेस नहीं ला सकते तो तुम्हारी क्या जरूरत है? चपरासी बनने लायक नहीं हो, पता नहीं किसने ऑफिसर बना दिया तुमको? अब ये बताओ, इस महीने कितने का बीमा कर लेंगे?
BM: सर देखते हैं, जितना हो जाएगा।
साहब: फिर भी, कोई आंकड़ा तो होगा दिमाग में?
साहब: पिछली बार से तो ज्यादा ही करोगे न?
BM: ठीक है सर 6 लाख कर देंगे।
साहब: सिर्फ 6 लाख? 6 लाख सोचोगे तो 4 लाख भी नहीं कर पाओगे।
BM: ठीक है सर आठ लाख की कोशिश करेंगे।
साहब: क्यों? 10 लाख क्यों नहीं कर सकते? कम से कम टारगेट तो ऊंचा रखो।
BM: सर, ऐसे तो पचास लाख कर देंगे।
साहब: बकवास मत करो। रीयलिस्टिक फिगर बताओ।
BM: रीयलिस्टिक फिगर बताया तो था। लेकिन आपके भेजे में कहाँ घुसता है? जब 6 लाख बोला तो आपको पसंद नहीं आया, आप दस लाख मांगने लगे।
जब खुद से ही टारगेट बताना है तो हमसे पूछने का तमाशा क्यों करते हो? पहले ही बता देते कि तुम्हारा इस महीने का टारगेट 10 लाख है। 10 मिनट बचता। लेकिन नहीं! आपको तो सेल्फ टारगेट सेटिंग का तमाशा करना है। फिर खुद की मर्जी का टारगेट थोप देना है।
और फिर जब ये अचीव न हो पाए तो अगली मीटिंग में बेइज्जत भी करना है खुद का ही सेट किया टारगेट अचीव नहीं कर पाए। और ये बताइये, अगर डेबिट क्रेडिट बिज़नेस नहीं है तो बंद कर देते हैं न डेबिट क्रेडिट।
कस्टमर को मना कर देते हैं ना कैश का लेन देन करने से, चेक पास करने से, पुराने एकाउंट्स का मेंटेनेंस करने से, लोगों की नेट बैंकिंग की समस्याएं सुनने से, KYC करने से, ATM चेकबुक इशू करने से, RD FD करने से।
बोल देते हैं कस्टमर को कि ऊपर वाले साहब को केवल नया बिज़नेस चाहिए, पुराने कस्टमर से उनको कोई मतलब नहीं। पता भी है कि सिर्फ SMS और नेटबैंकिग से रिलेटेड कितनी कंप्लेंट आती हैं ब्रांच में? किसी का ATM नहीं चल रहा, किसी की चेकबुक नहीं पहुंची।
और ऐसा कितना स्टाफ दे दिया है कि जिसके भरोसे रेगुलर काम छोड़ कर नया बिज़नेस ढूंढते फिरें? सिंगल ऑफिसर ब्रांच का मतलब भी समझ में आता है? डेबिट क्रेडिट भी स्टाफ ही करता है, उसको करने के लिए भूत नहीं आते हैं।
पहले रेगुलर काम के लिए पर्याप्त स्टाफ दीजिये फिर नए बिज़नेस की उम्मीद कीजिये।
डिस्क्लेमर: ये स्टंट प्रोफेशनल द्वारा किये जाते हैं, कृपया अपनी मीटिंग में ट्राई ना करें।
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
नए बिज़नेस खुल रहे हैं मगर या किसी न किसी तरीके से बड़े उद्योगपतियों का शिकार बन रहे हैं। यानी मार्किट में कम्पटीशन बढ़ने की बजाय कुछ बड़े उद्योगपतियों की मोनोपोली होती जा रही है। (ठीक वैसे ही जैसे मार्क्स ने कहा था)।
बड़ी कंपनियां बैंकों से लोन लेने की जगह सीधे मार्केट से पैसा उठाना ज्यादा पसंद कर रही हैं। और सरकारी बैंक हैं कि छोटे लोन की जगह बड़ी कंपनियों की तरफ ही भागे जा रहे हैं। और छोटे उद्योगों को PSBs से लोन नहीं मिल पा रहा।
कारण?
- सरकारी बैंकों में आजकल लोन के डिसीजन ब्रांचों के हाथों से छीन कर केंद्रीकृत कर दिए गए हैं। इससे छोटे लोन की प्रक्रिया भी जटिल हो गई है।
1998 में एक फिल्म आई थी "The Truman show". प्लॉट ये था कि माँ बाप अपने होने वाले बच्चे के जीवन भर के टेलीकास्ट राइट्स एक TV निर्देशक को बेच देते हैं।
बच्चे के पैदा होने से वयस्क होने तक उसकी जिंदगी को पांच हजार कैमरों के जरिये रिकॉर्ड करके TV पर लाइव टेलीकास्ट किया जाता है। सिर्फ यही नहीं, TRP की मांग के अनुसार उसकी जिंदगी नियंत्रित भी की जाती है, कहाँ नौकरी करेगा, क्या खायेगा, क्या पढ़ेगा, किससे प्यार करेगा, शादी करेगा इत्याद
उसे नहीं पता मगर दुनिया के लिए वो सुपरस्टार है, निर्देशक के लिए वो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है। मगर इससे उसको क्या जब उसका खुद का जीवन ही उसका नहीं। कभी कभी ऐसा लगता है कि ये मेरे ही जीवन की कहानी है। जिंदगी में कितने निर्णय होंगे जो मैंने स्वतंत्र होकर लिए होंगे?
एक गरुड़ पुराण बैंकों के लिए भी होना चाहिए। जैसे वहां नर्क के लेवल बताए गए हैं, बैंकों के अपने नर्क होते हैं। जैसे गरुड़ पुराण में लिखा है कि फलाना पाप करोगे तो फलाने नर्क में फेंक दिए जाओगे, ऐसा बैंकों में भी है। हर सर्किल के अपने नर्क हैं।
गुजरात में धमकी मिलती है कि सौराष्ट्र में फेंक देंगे, अगर पहले से सौराष्ट्र में हो तो अमरेली में। राजस्थान में यही दर्जा डूंगरपुर बांसवाड़ा बाड़मेर को दिया गया है। (बशर्ते ये आपके होम डिस्ट्रिक्ट न हों, नहीं तो आपके लिए अलग नर्क बताया जाएगा)।
उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल, बिहार में सीमांचल इत्यादि इत्यादि। इन नर्कों का डर दिखाकर आप बैंकर से कोई भी अनैतिक काम करवा सकते हैं। वो FD तोड़ के बीमा करवाएगा, 85 साल के कस्टमर की जमा पूंजी 5 साल की लॉक इन पीरियड वाली स्कीम में लगवा देगा।
द्रौपदी, द्रुपद की पुत्री, पांचाल की राजकुमारी, हस्तिनापुर की पुत्रवधू, पांच पांडवों की पत्नी, कृष्ण की बहन। महाभारत में द्रौपदी से महत्वपूर्ण पात्र कोई नहीं था। कृष्ण भी नहीं। कृष्ण भी जुए में हारते पांडवों को बचाने नहीं आये थे। वे आये द्रौपदी को बचाने।
पांडवों को शक्ति द्रौपदी से ही मिलती थी। युद्ध में भी पांडवों की आधी से अधिक सेना तो द्रौपदी के पिता की ही थी। द्रौपदी का भाई ही महाभारत में पांडवों का सेनापति रहा था। द्रौपदी को मिला क्या? चीरहरण, वनवास, फिर अज्ञातवास।
युद्ध के बाद द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गए। इतना कष्ट द्रौपदी ने झेला कि आज भी कोई अपनी बच्ची का नाम द्रौपदी नहीं रखता। बैंकों में भी एक द्रौपदी होती है। कौन है बैंक में सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी? चेयरमैन? CGM? GM? RM? जी नहीं। बैंक में सबसे महत्वपूर्ण होता है ब्रांच मैनेजर।
यहाँ मैं देख रहा हूँ क़ि कई लोगों को सरकारी कर्मचारियों की 'जॉब सिक्योरिटी' से बहुत प्रॉब्लम है। सरकारी कर्मचारियों के पास जॉब सिक्योरिटी है इसलिए आलसी है, कामचोर हैं, भ्रष्ट हैं फलाना ढिमका इत्यादि।
आइये थोड़ा इस 'जॉब सिक्योरिटी' वाले पहलू को समझते हैं। देश के सरकारी तंत्र में दो तरफ के एग्जीक्यूटिव होते हैं। एक पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव और दूसरे परमानेंट एग्जीक्यूटिव। पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव हर पांच साल मैं चुन के आते हैं।
इनको जनता और देश को जवाब देना होता है। परमानेंट वाले एक बार ज्वाइन करते हैं और रिटायर होके ही बाहर आते हैं। सवाल ये है क़ि उनको ये 'जॉब सिक्योरिटी' क्यों दी गई है। इसका एक लाइन मैं जवाब ये है क़ि ताकि वे लोग किसी बॉस के लिए नहीं बल्कि जनता/देश/आर्गेनाइजेशन के लिए काम करें।
Thank you for your composed reply against my rant.
Few things I want to say in response. 1. The comparison is inevitable in this environment. Especially when the PSBs are being sold on the pretext of bad behavior and worse service quality than the Pvt Banks.
2. Many of the PSB bankers too are culprit for the mess but the entire cadre should not be blamed for this since the real reason is the mala fide intentions of the agents of corporate that are in power.
3. If we could do (or better say allowed to do) our jobs properly, there would be no question of any such rant/agitation/'bad service quality'. Our primary demand is that 'let us do our job'.