यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। 51 शक्तिपीठ में से एक इस मंदिर में नवरात्र में इस मंदिर पर भक्तों का तांता लगा रहता है। बादशाह अकबर ने इस ज्वाला को
बुझााने की कोशिश की थी लेकिन वो नाकाम रहे थे। वैज्ञानिक भी इस ज्वाला के लगातार जलने का कारण नहीं जान पाए हैं !!
आज हम आपको बताते है देवी मां ज्वाला जी के मंदिर के बारे में ज्वालामुखी देवी के मंदिर को जोता वाली का मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर में 9 अलग-अलग जगहों से ज्वालाएं
निकल रही हैं !!
ज्वालामुखी मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवों को जाता है। इसकी गिनती माता की प्रमुख शक्ति पीठों में होती है। ऐसी मान्यता है कि यहां देवी सती की जीभ गिरी थी।
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन के अंदर से निकलती इस ऊर्जा का इस्तेमाल
किया जाए। लेकिन वे इस भूगर्भ से निकलती इस ज्वाला का पता नहीं कर पाए कि यह आखिर इसके निकलने का कारण क्या है। वहीं अकबर ने भी इस ज्योत को बुझाने की कोशिश की थी लेकिन वो नाकाम रहा था।
यही नहीं पिछले सात दशकों से भूगर्भ विज्ञानी इस क्षेत्र में तंबू गाड़ कर बैठे हैं, वह भी इस
ज्वाला की जड़ तक नहीं पहुंच पाए!
यह सब बातें यह सिद्ध करती हैं की यहां ज्वाला प्राकृतिक रूप से ही नहीं चमत्कारी रूप से भी निकलती है, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता।
यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहां पर
किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही 9 ज्वालाओं की पूजा होती है।
यहां पर पृथ्वी के गर्भ से 9 अलग अलग जगह से ज्वालाएं निकल रही हैं जिसके ऊपर ही मंदिर है।
इन 9 ज्योतियों को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती,
अंबिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद ने करवाया था। बाद में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और हिमाचल के राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया। यही वजह है कि इस मंदिर में हिंदुओं और सिखों की साझी आस्था है।
बादशाह अकबर ने इस मंदिर के बारे में सुना तो वह हैरान हो गया। उसने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की तरफ चल पड़ा।
मंदिर में जलती हुई ज्वालाओं को देखकर उसके मन में शंका हुई। उसने ज्वालाओं को बुझाने के बाद नहर का निर्माण करवाया। उसने अपनी सेना को मंदिर में जल रही ज्वालाओं पर
पानी डालकर बुझाने के आदेश दिए। लाख कोशिशों के बाद भी अकबर की सेना मंदिर की ज्वालाओं को बुझा नहीं पाई।
देवी मां की अपार महिमा को देखते हुए उसने सवा मन (पचास किलो) सोने का छतर देवी मां के दरबार में चढ़ाया, लेकिन माता ने वह छतर कबूल नहीं किया और वह छतर गिर कर किसी
अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। आज भी बादशाह अकबर का यह छतर ज्वाला देवी के मंदिर में रखा हुआ है !!
ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।
शास्त्रों में पत्नी को वामंगी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है बाएं अंग का अधिकारी। इसलिए पुरुष के शरीर का बायां हिस्सा स्त्री का माना जाता है।
इसका कारण यह है कि भगवान शिव के बाएं अंग से स्त्री की उत्पत्ति हुई है जिसका प्रतीक है
Con..
शिव का अर्धनारीश्वर शरीर। यही कारण है कि हस्तरेखा विज्ञान की कुछ पुस्तकों में पुरुष के दाएं हाथ से पुरुष की और बाएं हाथ से स्त्री की स्थिति देखने की बात कही गयी है।
शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री पुरुष की वामांगी होती है इसलिए सोते समय और सभा में, सिंदूरदान, द्विरागमन,
आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन के समय स्त्री पति के बायीं ओर रहना चाहिए। इससे शुभ फल की प्राप्ति होती।
वामांगी होने के बावजूद भी कुछ कामों में स्त्री को दायीं ओर रहने के बात शास्त्र कहता है। शास्त्रों में बताया गया है कि कन्यादान, विवाह, यज्ञकर्म, जातकर्म, नामकरण और
आइये जाने उन दस दिव्य और पवित्र पक्षीयों के बारे मैं जिनका हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है...
#हंस :- जब कोई व्यक्ति सिद्ध हो जाता है तो उसे कहते हैं कि इसने हंस पद प्राप्त कर लिया और जब कोई समाधिस्थ हो जाता है, तो कहते #Thread
हैं कि वह परमहंस हो गया। परमहंस सबसे बड़ा पद माना गया है।
हंस पक्षी प्यार और पवित्रता का प्रतीक है। यह बहुत ही विवेकी पक्षी माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में 'हं' और श्वास में 'स' ध्वनि सुनाई पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही 'हंस' है क्योंकि उसमें ज्ञान
का अर्जन संभव है। अत: हंस 'ज्ञान' विवेक, कला की देवी सरस्वती का वाहन है। यह पक्षी अपना ज्यादातर समय मानसरोवर में रहकर ही बिताते हैं या फिर किसी एकांत झील और समुद्र के किनारे।
हंस दांपत्य जीवन के लिए आदर्श है। यह जीवन भर एक ही साथी के साथ रहते हैं। यदि दोनों में से किसी भी
भारत में विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं, इनमें कई समाज और जाति के अनुसार अलग अलग देवी देवताओं की पूजा की जाती है। इन समाज या जाति में कुलदेवी और देवता की पूजा होती है, #Thread
इसके अलावा पितृदेव भी होते हैं। बता दें कि भारतीय लोग हजारों वर्षों से अपने कुलदेवी और देवता की पूजा करते आ रहे हैं।
जन्म, विवाह आदि मांगलिक कार्यों में कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाकर उनकी पूजा की जाती है या उनके नाम से स्तुति की जाती है। इसके अलावा एक ऐसा भी दिन होता है
जबकि संबंधित कुल के लोग अपने देवी और देवता के स्थान पर इकट्ठा होते हैं।
जिन लोगों को अपने कुलदेवी और देवता के बारे में नहीं मालूम है या जो भूल गए हैं, वे अपने कुल की शाखा और जड़ों से कट गए हैं। देखा जाए तो कुलदेवी और देवता को पूजने के पीछे एक गहरा रहस्य है, जो बहुत कम लोग
जिस आदमी ने श्रीमद्भगवद्गीता का पहला उर्दू अनुवाद किया वो था मोहम्मद मेहरुल्लाह! बाद में उसने सनातन धर्म अपना लिया!
पहला व्यक्ति जिसने श्रीमदभागवद् गीता का अरबी अनुवाद किया वो एक फिलिस्तीनी था अल फतेह कमांडो नाम का! #Thread
जिसने बाद में जर्मनी में इस्कॉन जॉइन किया और अब हिंदुत्व में है!
पहला व्यक्ति जिसने इंग्लिश अनुवाद किया उसका नाम चार्ल्स विलिक्नोस था! उसने भी बाद में हिन्दू धर्म अपना लिया उसका तो यहां तक कहना था कि दुनिया में केवल हिंदुत्व ही बचेगा!
हिब्रू में अनुवाद करने वाला
व्यक्ति Bezashition le fanah नाम का इसरायली था जिसने बाद में हिंदुत्व अपना लिया था भारत में आकर!
पहला व्यक्ति जिसने रूसी भाषा में अनुवाद किया उसका नाम था नोविकोव जो बाद में भगवान कृष्ण का भक्त बन गया था!
आज तक 283 बुद्धिमानों ने श्रीमद भगवद्गीता का अनुवाद किया है अलग
🚩 पंचकेदारों में श्री मद्यमहेश्वरजी को द्वितीय केदार के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र अनंत आलाहदक रमणीक स्थान पर समुद्र तल से 3497मी०(11473. 1फीट) की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ भगवान शिव की नाभि भाग की पूजा की जाती है। #Thread
मान्यता है कि मद्यमहेश्वर जी का भव्य मन्दिर पाण्डवों द्वारा स्वर्गारोहण के समय बनवाया गया था। यह भी मान्यता है कि भगवान शिव और माँ पार्वती द्वारा विवाह के बाद का समय इसी तीर्थ में यापन किया गया। यह मंदिर भी काष्ठ छत्र युक्त देवालय है।
श्री मद्यमहेश्वर जी मंदिर गर्भगृह
में स्वयंभूलिङ्गं तथा सभामण्डप में बायीं ओर गणेश जी तथा दायीं ओर भैरवनाथ जी विराजमान हैं तथा गर्भगृह प्रवेश द्वार के सम्मुख सभामण्डप में नन्दी जी और वीरभद्र जी महाराज विराजमान हैं। मंदिर परिसर में पँचनाम देवता, बूढ़ा मध्यमहेश्वर लिङ्गं, गौमुखी जलधार, सरस्वती कुण्ड, गौरीशंकर