Debunking the myth: Reason of Shri Krishna having 16,108 wives.
Shri Krishna was a king during the Dwapara Yuga and he only had 8 wives then, a common practice of polygamy during the days. They were Rukmini, Satyabhama, Jambavati, Nagnajiti, Kalindi, Mitravinda, Bhadra and Lakshmana.
During that time, Narakasura, a demon, captured 16,100 beautiful unmarried girls in his area and he used them as sex slaves. Shri Krishna fought him and defeated him.
Obviously, the women were
freed. But the society and their own family were never going to accept them.
The reason was they were already labelled as "Sex slaves". They were about to commit suicide because of this reason.
So, Shri Krishna married them to restore their honor and raise their status in society to queen. There is nobility in his action. That is how he had 16,108 wives.
Another story about Shri Krishna that most ignorant people mock is the story of Shri Krishna’s Rasleela. The Bhagavad Gita states that Shri Krishna left for Mathura at the age of 10, and never returned to Vrindavan again.
The stories of Rasleela is all from Vrindavan which means that the age of Krishna was 8-9 years. What he did at this age should be labelled as "mischief" by young boy rather than "eve teasing".
Instead, if you look at Mahabharat,
it was Shri Krishna who rescued
Draupadi when she was getting humiliated and disrobed.
Even her five husbands Pandavas, Bhishma, Dronacharya, all remained silent. In fact, only Shri Krishna was able to save her honor.
What this tweet is trying to convey is that it is important to learn, unlearn and relearn the Shastras before mocking anything said on the knowledge related to Sanatana Dharma.
Hare Krishna!
Source- sanatan_is_alive (Instagram).
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तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य को जान। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त कर और उनकी सेवा कर। ऐसा सिद्ध सन्त तुझे दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका होता है।
तत्-सत्य; विद्धि-जानने का प्रयास करना; प्रणिपातेन-आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर के; परिप्रश्नेन–विनम्रता से जिज्ञासा प्रकट करना; सेवया-सेवा के द्वारा; उपदेक्ष्यन्ति-प्रदान करेंगे; ते-तुझको; ज्ञानम्-दिव्य ज्ञान; ज्ञानिन-ज्ञानी महात्मा; तत्त्वदर्शिनः-सत्य को अनुभव करने वाला।
हे शत्रुओं के दमन कर्ता! ज्ञान युक्त होकर किया गया यज्ञ किसी प्रकार के भौतिक या द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है। हे पार्थ! अंततः सभी यज्ञों की पराकाष्ठा दिव्य ज्ञान में होती है।
श्रेयान्–श्रेष्ठ; द्रव्य-मयात्-भौतिक सम्पत्ति; यज्ञात्-यज्ञ की अपेक्षा; ज्ञानयज्ञः-ज्ञान युक्त होकर यज्ञ सम्पन्न करना; परन्तप-शत्रुओं का दमन कर्ता, अर्जुन; सर्वम्-सभी; कर्म-कर्म; अखिलम्-सभी; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; ज्ञाने-ज्ञान में; परिसमाप्यते-समाप्त होते हैं।
विभिन्न प्रकार के इन सभी यज्ञों का वर्णन वेदों में किया गया है और इन्हें विभिन्न कर्मों की उत्पत्ति का रूप मान, यह ज्ञान तुझे माया के बंधन से मुक्त करेगा।
एवम्-इस प्रकार; बहु-विधा:-विविध प्रकार के; यज्ञाः-यज्ञ; वितताः-वर्णितं; ब्रह्मणाः-वेदों के; मुखे–मुख में; कर्म-जान्–कर्म से उत्पन्न; विद्धि-जान; तान्–उन्हें; सर्वान्-सबको; एवम्-इस प्रकार से; ज्ञात्वा-जानकर; विमोक्ष्यसे-तू मुक्त हो जाएगा।
कुछ अन्य लोग भी हैं जो बाहर छोड़े जाने वाली श्वास को अन्दर भरी जाने वाली श्वास में जबकि अन्य लोग अन्दर भरी जाने वाली श्वास को बाहरी श्वास में रोककर यज्ञ के रूप में अर्पित करते हैं। कुछ प्राणायाम की कठिन क्रियाओं द्वारा भीतरी और बाहरी श्वासों को रोककर प्राणवायु को नियंत्रित...
...कर उसमें पूरी तरह से आत्मसात् हो जाते हैं। कुछ योगी जन अल्प भोजन कर श्वासों को यज्ञ के रूप में प्राण शक्ति में अर्पित कर देते हैं। सब प्रकार के यज्ञों को संपन्न करने के परिणामस्वरूप योग साधक अपनी अशुद्धता को शुद्ध करते हैं।
कुछ लोग यज्ञ के रूप में अपनी सम्पत्ति को अर्पित करते हैं। कुछ अन्य लोग यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करते हैं और कुछ योग यज्ञ के रूप में अष्टांग योग का अभ्यास करते हैं। जबकि अन्य लोग यज्ञ के रूप में वैदिक ग्रंथों का अध्ययन और ज्ञान पोषित करते हैं जबकि कुछ कठोर प्रतिज्ञाएँ करते हैं।
द्रव्ययज्ञाः-यज्ञ में किसी के द्वारा अपनी सम्पत्ति अर्पित करना; तपः-यज्ञाः-यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करना; योगयज्ञः-अष्टांग योग का यज्ञ के रूप में अभ्यास; तथा-इस प्रकार; अपरे-अन्य; स्वाध्याय-वैदिक शास्त्रों के अध्ययन द्वारा ज्ञान पोषित करना;
दिव्य ज्ञान से प्रेरित होकर कुछ योगी संयमित मन की अग्नि में अपनी समस्त इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राण शक्ति को भस्म कर देते हैं।
सर्वाणि-समस्त; इन्द्रिय-इन्द्रियों के; कर्माणि-कार्यः प्राण-कर्माणि प्राणों की क्रियाएँ: च-और; अपरे–अन्य; आत्म-संयम-योग-संयमित मन की अग्नि में; जुह्वति–अर्पित करते हैं; ज्ञान-दीपिते-ज्ञान से अलोकित होकर।