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Nov 7 30 tweets 7 min read
#अद्भुत_और_अप्रतिम_सनातन 🚩

#चौरासी_लाख_योनियों_का_रहस्य

हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी न कभी अवश्य सुना होगा।
हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वह भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है।
अब समस्या यह है कि अनेक लोग ये नहीं
#Thread
समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है?

यह देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और कटाक्ष कर हँसती ही नही अपितु अज्ञानतावश उपहास भी करती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है ?

कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से
समझ नहीं पाते।
गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है, तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।

सबसे पहले यह प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वह इतने सारी योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है, हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन
८४००००० योनियों में भटकती रहती है, अर्थात मृत्यु के पश्चात वह इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। यह तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है,इसी कारण मृत्यु के पश्चात वह एक दूसरी योनि में दूसरा शरीर धारण करती है। अब प्रश्न यह है कि यहाँ "योनि" का
अर्थ क्या है ?

अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं,अर्थात इस विश्व में जितनी भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में न केवल मनुष्य और पशु पक्षीआते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ,
जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।

आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है।
इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं।

अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वह लगभग ८४ लाख है। अब आप कल्पना कीजिए कि हिन्दू
धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले अपने ज्ञान के सामर्थ्य पर यह बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के प्राय: निकट है।

हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने
को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है। मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-
मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है।
ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है।

मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली
होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही यह हमें प्राप्त होती है। चूँकि मनुष्य योनि वह अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से
दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में
जन्म लिया है।

एक भ्रांति यह भी है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है ? इसका समाधान है, नहीं। यद्यपि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्योंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है
वह हम मनुष्यों में सर्वाधिक पायी जाती है। इसके अतिरिक्त एक मत यह भी है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष मात्र मनुष्य योनि में ही प्राप्त किया जा सकता है।

हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं।
इस बात के कई दृष्टांत हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का प्रसंग आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे।

महाभारत में ही
अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिस युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक निर्धन के आंटे से और बाद में वह भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी
वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे।

ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सिर को श्रीगणेश के सिर के पर प्रतिस्थापित किया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की
कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वह यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची
भक्ति से वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है, नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन यह भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद
किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो। इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा।

कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि
कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।

यह भी जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष
की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है। यह भी कहा जाता है कि सतयुग से विपरीत कलियुग में मात्र पाप कर्म का विचार करने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है।

कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत
पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मात्र जीव द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद पुनः किसी अन्य योनि में जन्म
लेना पड़ता है,अर्थात जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।

पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण
के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है: जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव

#अर्थात,

जलचर जीव: ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष: २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव): ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी: १०००००० (दस लाख)जंगली पशु:
३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य: ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।

जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है।

जैन धर्म के अनुसार:पृथ्वीकाय:
७००००० (सात लाख)
जलकाय: ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय: ७००००० (सात लाख)
वायुकाय: ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय: १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर): १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ: २००००० (दो लाख)
त्रि इन्द्रियाँ: २००००० (दो लाख)चतुरिन्द्रियाँ: २०००००
(दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच): ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव): ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव): ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य): १४००००० (चौदह लाख)

इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० +२००००० + २००००० + २००००० +
४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००

यदि आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका उपहास करे,तो उसका समाधान करने कठिनाई नही होनी चाहिए। और हाँ यह भी कहने से न चूँके कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस तथ्य को प्रमाणित करने में
आधुनिक/पाश्चात्य विज्ञान को सहस्त्रो वर्ष का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही सिद्ध कर दिया था।

सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ है ....
🚩🚩

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Nov 6
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#Thread
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Nov 2
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हर चतुर्युग के द्वापरयुग में भगवान्
विष्णु व्यासरूप ग्रहण करके एक वेद के अनेक विभाग करते है। वेदमेकं पृथक्प्रभुः । ( श्रीविष्णुपुराण ३.३.७ )

इस वैवस्वत मन्वन्तर में वेदों का पुनः-पुनः २८ बार विभाग हो चुका ।

अष्टविंशतिकृत्वो वै वेदो व्यस्तो सहर्षिभिः ।
वैवस्वतेन्तरे तस्मिन्द्वापरेषु पुनः पुनः ॥
( श्रीविष्णुपुराण ३.३.९ )

💐 #उन_२८_व्यास_मुनियों_के_नाम_इस_प्रकार_हैं :🚩
👇👇
🔘१. ब्रह्माजी,

🔘२. प्रजापति,

🔘३. शुक्राचार्य जी,

🔘४. बृहस्पति जी,

🔘५. सूर्य,

🔘६. मृत्यु,

🔘७. इन्द्र,

🔘८. वसिष्ठ,

🔘९. सारस्वत,

🔘१०. त्रिधामा,
🔘११. त्रिशिक,
🔘१२. भरद्वाज
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