श्री हरि के रक्त से उत्पन्न हुई है उज्जैन की शिप्रा (क्षिप्रा) नदी, जहां हर 12 वर्ष बाद सिंहस्थ कुंभ का आयोजन किया जाता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। एक किंवदंती के अनुसार शिप्रा नदी विष्णु जी के रक्त से
उत्पन्न हुई थी।
ब्रह्म पुराण में भी शिप्रा नदी का उल्लेख मिलता है। संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने काव्य ग्रंथ 'मेघदूत' में शिप्रा का प्रयोग किया है, जिसमें इसे अवंति राज्य की प्रधान नदी कहा गया है।
महाकाल की नगरी उज्जैन, शिप्रा के तट पर बसी है। स्कंद पुराण में शिप्रा नदी
की महिमा लिखी है। पुराण के अनुसार यह नदी अपने उद्गम स्थल बहते हुए चंबल नदी से मिल जाती है। प्राचीन मान्यता है कि प्राचीन समय में इसके तेज बहाव के कारण ही इसका नाम शिप्रा प्रचलित हुआ।
शिप्रा नदी का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश के महू छावनी से लगभग 17 किलोमीटर दूर जानापाव की पहाडिय़ों
से माना गया है। यह स्थान भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम का जन्म स्थान भी माना गया है। शिप्रा नदी की उत्पत्ति के बारे में एक पौराणिक कथा का उल्लेख, हिंदू धर्मग्रंथों में मिलता है।
बहुत समय पहले भगवान शिव ने ब्रह्म कपाल लेकर, भगवान विष्णु से भिक्षा मांगने पहुंचे। तब भगवान
विष्णु ने उन्हें अंगुली दिखाते हुए भिक्षा प्रदान की। इस अशिष्टता से भगवान भोलेनाथ नाराज हो गए और उन्होंने तुरंत अपने त्रिशूल से विष्णु जी की उस अंगुली पर प्रहार कर दिया। अंगुली से रक्त की धारा बह निकली। जो विष्णुलोक से धरती पर आ पहुंची और इस तरह यह रक्त की यह धार, शिप्रा नदी
में परिवर्तित हो गई।
शिप्रा नदी के किनारे स्थित घाटों का भी पौराणिक महत्व है। जिनमें रामघाट मुख्य घाट माना जाता है। कहते हैं भगवान श्रीराम ने पिता दशरथ का श्राद्धकर्म और तर्पण इसी घाट पर किया था। इसके अलावा नृसिंह घाट, गंगा घाट, पिशाचमोचन तीर्थ, गंधर्व तीर्थ भी प्रमुख घाट हैं।
शिप्रा नदी के किनारे स्थित सांदीपनी आश्रम में भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और उनके प्रिय मित्र सुदामा ने विद्या अध्ययन किया था। हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित है कि राजा भर्तृहरि और गुरु गोरखनाथ ने भी इस पवित्र नदी के तट पर तपस्या से सिद्धि प्राप्त की।
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कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही
आघात किया जाए।
नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत
दिशा में ही बहती दिखाई देती है।
#कथा_1 :- नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी
💥 #लकड़ी_के_खडाऊं 🚩🚩
हमारे वैज्ञानिक ऋषि मुनि धरती की गूढ़ रासायनिक संक्रियाओं को समझते थे, इसलिए उन्होंने खड़ाऊ का आविष्कार किया
आपको गर्व होगा खड़ाऊ के पीछे का विज्ञान जानकर गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद मे प्रतिपादित किया उसे हमारे #Thread @AnkitaBnsl
ऋषि मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विधुत तंरगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं, यह प्रक्रिया अगर निरंतर चलें तो शरीर की जैविक शक्ति (वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है।
इसी जैविक शक्ति को बचाने
के लिए हमारे पूर्वजों ने खडाऊं पहनने की प्रथा आरम्भ की ताकि शरीर की विधुत तरंगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ सम्पर्क न हो सके,इसी सिद्धांत के आधार पर खडाऊं पहनी जाने लगी।यें चीजें जानकर गर्व होता है अपने पूर्वजों पर, और दुःख होता है कि आज के तथाकथित सभ्य समाज को
"आरती लेने" का यह होता है अर्थ!!!!!क्या है आरती का अर्थ!!!!
शास्त्रों में बताया गया है कि आरती शब्द संस्कृत के "आर्तिका" शब्द से बना है। जिसका अर्थ है, अरिष्ट, विपत्ति, आपत्ति, कष्ट और क्लेश। भगवान की आरती को "नीराजन" भी कहा जाता है। नीराजन का अर्थ है किसी स्थान #Thread
को विशेष रूप से प्रकाशित करना। शास्त्रों में बताए गए नियमों के अनुसार, आरती के इन्हीं दो अर्थों के आधार पर भगवान की आरती करने के दो कारण बताए गए हैं।
आरती करने का पहला कारण!!!!
आरती में दीपक की लौ को देवता के समस्त अंग-प्रत्यंग में बार-बार इस प्रकार घुमाया जाता है कि भक्तगण
आरती के प्रकाश में भगवान के चमकते हुए आभूषण और अंगों का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकें और संपूर्ण आनंद को प्राप्त कर सकें। ईश्वर की छवि को अच्छी तरह निहारकर हृदय में भर सकें। इसलिए आरती को नीराजन कहते हैं, क्योंकि इसमें भगवान की छवि को दीपक की लौ से विशेष रूप से प्रकाशित किया
*#जनेऊ क्या है और #इसकी_क्या_महत्वता है ??
"भए कुमार जबहिं सब भ्राता।
दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता"॥ #जनेऊ_क्या_है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं।
जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है #Thread
। जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है।
यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।
अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं।
यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है।
यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है।यह तीन आश्रमों का प्रतीक है।
संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं।