यह कथा भक्तमाल ग्रन्थ से ली गई है, अत: इसके पात्र और स्थान सत्य घटना पर आधारित हैं।
बूंदी नगर में रामदासजी नाम के एक बनिया थे। वे व्यापार करने के साथ-साथ भगवान की भक्ति-साधना भी करते थे और नित्य संतों की सेवा भी किया करते थे।
भगवान ने अपने भक्तों (संतों) की पूजा को अपनी (1/12)
पूजा से श्रेष्ठ माना है क्योंकि संत लोग अपने पवित्र संग से असंतों को भी अपने जैसा संत बना लेते हैं। भगवान की इसी बात को मानकर भक्तों ने संतों की सेवा को भगवान की सेवा से बढ़कर माना है, ‘प्रथम भक्ति संतन कर संगा।’
रामदासजी सारा दिन नमक-मिर्च, गुड़ आदि की गठरी अपनी पीठ पर (2/12)
बांध कर गांव में फेरी लगाकर सामान बेचते थे जिससे उन्हें कुछ पैसे और अनाज मिल जाता था।
एक दिन फेरी में कुछ सामान बेचने के बाद गठरी सिर पर रखकर घर की ओर चले। गठरी का वजन अधिक था पर वह उसे जैसे-तैसे ढो रहे थे। भगवान श्रीराम एक किसान का रूप धारण कर आये और बोले, ‘भगतजी! आपका (3/12)
दु:ख मुझसे देखा नहीं जा रहा है। मुझे भार वहन करने का अभ्यास है, मुझे भी बूंदी जाना है, मैं आपकी गठरी घर पहुंचा दूंगा।’
ऐसा कह कर भगवान ने अपने भक्त के सिर का भार अपने ऊपर ले लिया और तेजी से आगे बढ़कर आंखों से ओझल हो गये।
गीता (९।१४) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘संत (4/12)
लोग धैर्य धारण करके प्रयत्न से नित्य कीर्तन और नमन करते हैं, भक्तिभाव से नित्य उपासना करते हैं। ऐसे प्रेमी संत मेरे और मैं उनका हूँ; इस लोक में मैं उनके कार्यों में सदा सहयोग करता हूँ।’
रामदासजी सोचने लगे, ‘मैं इसे पहचानता नहीं हूँ और यह भी शायद मेरा घर न जानता होगा। पर (5/12)
जाने दो, राम करे सो होय।’
यह कहकर वह रामधुन गाते हुए घर की चल दिए। रास्ते में वे मन ही मन सोचने लगे, ‘आज थका हुआ हूँ, यदि घर पहुंचने पर गर्म जल मिल जाए तो झट से स्नान कर सेवा-पूजा कर लूं और आज कढ़ी-फुलका का भोग लगे तो अच्छा है।’
उधर किसान बने भगवान श्रीराम ने रामदासजी (6/12)
के घर जाकर गठरी एक कोने में रख दी और जोर से पुकार कर कहा, ‘भगतजी आ रहे हैं, उन्होंने कहा है कि नहाने के लिए पानी गर्म कर देना और भोग के लिए कढ़ी-फुलका बना देना।’
कुछ देर बाद रामदासजी घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सामान की गठरी कोने में रखी है। उनकी पत्नी ने कहा, ‘पानी (7/12)
गर्म कर दिया है, झट से स्नान कर लो। भोग के लिए गर्म-गर्म कढ़ी और फुलके भी तैयार हैं।’
रामदासजी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘तुमने मेरे मन की बात कैसे जान ली।’
पत्नी बोली, ‘मुझे क्या पता तुम्हारे मन की बात? उस गठरी लाने वाले ने कहा था।’
रामदासजी समझ गए कि आज रामजी ने भक्त (8/12)
वत्सलतावश बड़ा कष्ट सहा। उनकी आंखों से प्रेमाश्रु झरने लगे और वे अपने इष्ट के ध्यान में बैठ गये।
ध्यान में प्रभु श्रीराम ने प्रकट होकर प्रसन्न होते हुए कहा, ‘तुम नित्य सन्त-सेवा के लिए इतना परिश्रम करते हो, मैंने तुम्हारी थोड़ी-सी सहायता कर दी तो क्या हुआ?’
(9/12)
पढ़िए सूर्य भगवान की ये पौराणिक कथा, दूर होंगे सारे कष्ट
प्राचीन काल की बात है। एक बुढ़िया थी जो नियमित तौर पर रविवार के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर नित्यकर्मों से निवृत्त होकर अपने आंगन को गोबर से लीपती थी जिससे वो स्वच्छ हो सके। इसके बाद वो सूर्य देव की पूजा-अर्चना (1/11)
करती थी। साथ ही रविवार की व्रत कथा भी सुनती थी। इस दिन वो एक समय भोजन करती थी और उससे पहले सूर्य देव को भोग भी लगाती थी। सूर्य देव उस बुढ़िया से बेहद प्रसन्न थे। यही कारण था कि उसे किसी भी तरह का कष्ट नहीं था और वो धन-धान्य से परिपूर्ण थी।
जब उसकी पड़ोसन ने देखा की (2/11)
वो बहुत सुखी है तो वो उससे जलने लगी। बुढ़िया के घर में गाय नहीं थी इसलिए वो अपनी पड़ोसन के आंगन गोबर लाती थी। क्योंकि उसके यहां गाय बंधी रहती थी। पड़ोसन ने बुढ़िया को परेशान करने के लिए कुछ सोचकर गाय को घर के अंदर बांध दिया। अगले रविवार बुढ़िया को आंगन लीपने के लिए (3/11)
यह सलेहा जिला पन्ना मध्य प्रदेश स्थित भगवान शिव को समर्पित सबसे अद्भुत मंदिर है। इसका निर्माण काल इसकी कला और स्थापत्य शैली के आधार पर उत्तर गुप्त काल 7वीं शताब्दी माना जाता है। यह भगवान शंकर का सबसे अलग प्रकार (1/7)
का मंदिर है इसमें भगवान शंकर को चार अलग-अलग मुखों द्वारा प्रदर्शित किया गया है जिसमें हर मुख एक अलग भाव दर्शाता है।
चतुर्मुखी प्रतिमा में एक मुख भगवान के दूल्हे के वेष का है। इसको गौर से देखने पर भगवान के दूल्हे के रूप के दर्शन होते हैं। दूसरे मुख में भगवान अर्धनारीश्वर (2/7)
रूप में हैं। तीसरा मुख भगवान का समाधि में लीन स्थिति का है और चौथा उनके विषपान करने का है। प्रतिमा का सूक्ष्मता के साथ दर्शन करने पर सभी रूप उभरकर आते हैं। यह प्रतिमा अपने आप में अद्भुद है और दुर्लभ है।
दक्षिण भारत में एक ऐसा मंदिर है जो करीब 15 हजार किलो सोने से बना हुआ है।
महालक्ष्मी का यह मंदिर तमिलनाडु के वेल्लोर में मलाईकोड़ी के पहाड़ों पर बना हुआ है।
इस मंदिर में रोजाना लाखों भक्त आते हैं।
इसकी वजह मां लक्ष्मी के अलावा 15 हजार किलो सोने बना हुआ भव्य मंदिर भी है।
(1/5)
इस मंदिर को दक्षिण भारत को स्वर्ण मंदिर कहा जाता है।
वेल्लोर नगर में बना यह मंदिर करीब 100 एकड़ से ज्यादा क्षेत्र में फैला हुआ है। हरियाली के बीच में 15 हजार किलोग्राम शुद्ध सोने से बना यह मंदिर रात में बहुत खूबसूरत दिखता है।
इस मंदिर को सुबह 4 से 8 बजे तक अभिषेक के लिए (2/5)
और सुबह 8 से रात के 8 बजे तक दर्शन के लिए खोला जाता है।
इस मंदिर की सुदंरता को बढ़ाने के लिए इसके बाहरी क्षेत्र को सितारे का आकार दिया गया है।
कहा जाता है कि यह विश्व का एकलौता ऐसा मंदिर है जिसमें इतना सोने का इस्तेमाल किया गया है। वहीं अमृतसर के गोल्डन टेम्पल में भी (3/5)
वृंदावन में बाँकेबिहारी जी मंदिर में बिहारी जी की काले रंग की प्रतिमा है।
इस प्रतिमा के विषय में मान्यता है कि इस प्रतिमा में साक्षात् श्रीकृष्ण और राधाजी समाहित हैं, इसलिए इनके दर्शन मात्र से राधा-कृष्ण के दर्शन के फल की प्राप्ति होती है। इस प्रतिमा के प्रकट होने की कथा (1/7)
और लीला बड़ी ही रोचक और अद्भुत है, इसलिए हर वर्ष मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बाँकेबिहारी मंदिर में बाँकेबिहारी प्रकटोत्सव मनाया जाता है। बाँकेबिहारी जी के प्रकट होने की कथा- संगीत सम्राट तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। वृंदावन में (2/7)
स्थित श्रीकृष्ण की रास-स्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने संगीत से रिझाया करते थे। भगवान की भक्ति में डूबकर हरिदास जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते। इनकी भक्ति और गायन से रीझकर भगवान श्रीकृष्ण इनके सामने आ गये।
एक बार निकुंज में राधाजी श्यामसुन्दर से बोलीं, "हे श्यामसुन्दर! आप मेरा तो नित्य श्रृंगार करते ही हो। मेरी यह इच्छा है कि आप मेरी आठों सखियों का भी श्रृंगार कीजिये अपने हाथों से। उन्हें भी अपनी सेवा का सुख प्रदान करें।"
श्यामसुन्दर बोले, "हे प्रियाजी! (1/12)
मैं एक ऐसी लीला कौतुक करता हूँ जिससे सभी साखियों के श्रृंगार करने का अवसर मुझे प्राप्त होगा।"
ठाकुरजी ने सबसे पहले राधारानी को श्यामसुन्दर का रूप दे दिया। अर्थात् अपना ही रूप दे दिया, अपने ही रूप में श्रृंगार कर दिया। इतना सुंदर श्रृंगार किया उन्होंने राधारानी का कि वे (2/12)
साक्षात् कृष्ण लगने लगीं। काली लटें बिल्कुल कृष्ण जैसे माथे पर लटक रहीं थीं। राधारानी के सुवर्ण गौर रंग को चतुराई से कस्तूरी, गैरिक धातु आदि के मिश्रण से अपने जैसा श्याम वर्ण बना दिया। कोई नही पहचान सकता था कि कौन वास्तविक कृष्ण है और कौन कृष्ण-वेश में राधारानी हैं। (3/12)
श्री जगन्नाथ पुरी धाम में मणिदास नाम के माली रहते थे। इनकी जन्म तिथि का ठीक ठीक पता नहीं है परंतु संत बताते है कि मणिदास जी का जन्म संवत् १६०० के लगभग जगन्नाथ पुरी में हुआ था। फूल-माला बेचकर जो कुछ मिलता था, उसमें से साधु-ब्राह्मणों (1/20)
की वे सेवा भी करते थे, दीन-दु:खियों को, भूखों को भी दान करते थे और अपने कुटुम्ब का काम भी चलाते थे। अक्षर-ज्ञान मणिदास ने नहीं पाया था; पर यह सच्ची शिक्षा उन्होंने ग्रहण कर ली थी कि दीन-दु:खी प्राणियों पर दया करनी चाहिये और दुष्कर्मो का त्याग करके भगवान का भजन करना (2/20)
चाहिये। संतो में इनका बहुत भाव था और नित्य मणिराम जी सत्संग में जाया करते थे।
मणिराम का एक छोटा सा खेत था जहां पर यह सुंदर फूल उगाता। मणिराम माली प्रेम से फूलों की माला बनाकर जगन्नाथ जी के मंदिर के सामने ले जाकर बेचनेे के लिए रखता। एक माला सबसे पहले भगवान को समर्पित करता (3/20)