#अमृतकाल में विष उगलने वाले मनोज #मुंतशिर के धर्मनिरपेक्ष से #धर्मान्ध बनने
की दास्ताँ-
गौरीगंज की पगडंडियों से मुंबई के राजपथ तक का सफर तय करने वाले मनोज मुंतशिर की राह इतनी आसान भी न थी. इस राह में उनके हिस्से में मुंबई के फुटपाथ भी लिखे थे किस्मत ने. इन्हीं फुटपाथों+
ने संघर्ष के दौरान उन्हें जाति और धर्म की संकीर्णताओं परे सोचना सिखाया. उसकी झलक उनके काव्य में स्पष्ट दिखाई देती है. उन्होंने सीखा कि भाषाओं को संकीर्ण दायरों में नहीं बांधा जा सकता. उनके काव्य में भारत के विभाजन की पीड़ा भी
दिखाई देती है और धर्मान्धता के विरुद्ध आक्रोश भी.+
'मंदिर-मस्जिद' के विवादों पर #मुंतशिर कबिराना अंदाज़ में अपनी बेबाक राय रखते हुए लिखते हैं कि-
माफ़ करें नादानी मेरी,मैं मूरख पढ़े-लिखैय्यों में
मुझे फरक मालूम नहीं है लड्डू और सिवैयों में
मेरे अन्दर काबिज़ है वो,मुझसे जुदा नहीं रहता
दाढ़ी टोपी और तिलक में मेरा ख़ुदा नहीं रहता+
दैरो-हरम या मंदिर मस्ज़िद के वाद विवादों को ज़द में लेते हुए मनोज #मुंतशिर 'शुक्ला'लिखते हैं -
ऐसे अनहद को भी हमने
पिंजरे का पाबन्द किया
कायनात उसे कम पड़ती थी
दैरोहरम में बंद किया
या
बच्चों के बस्ते में छुपकर अल्ला जाता है स्कूल
मंदिर मस्जिद ढूंढे उसको,हम न करेंगे ऐसी भूल +
उर्दू-हिंदी विवाद पर वे लिखते हैंकि भाषा जोड़ने का माध्यम है न कि तोड़ने का-
बदतमीज़ी नहीं तो ये और क्या है
जो ज़ुबानों के साथ करते हो
उर्दू मुस्लिम है हिन्दी हिन्दू है
जाहिलों वाली बात करते हो #मुंतशिर उर्दू की खिदमत के लिए ज़िंदा है
ग़ैर-मुमकिन है वो जीते-जी ये ज़ुबाँ छोड़े दे+
हिदू-मुस्लिम झगड़ों के संदर्भ में समझाईश भरे लहजे में #मुंतशिर बयां करते हैं कि -
ये मिट्टी तेरी भी माँ है ये मिट्टी मेंरी भी माँ है तो माँ को सर झुकाने में मुसलमान और हिंदू क्या वे मानते हैं कि विभाजन हो गया तो क्या भारत-पाकिस्तान की सांझा विरासत या संस्कृति तो एक ही है-+
पेशावर हो या पठानकोट, दोंनो की मिट्टी में एक जैसी रंगत है
आज भी अमृतसर में हवाएं चलें, तो लाहौर में परदे सरकते हैं
श्रीनगर में कैसर फूले, तो इस्लामाबाद के रास्ते में महकते हैं। वे सत्ता से एक स्वाभिमानी दूरी की बात करते हैं और वो भी ललकारते हुए न कि घिघियाते हुए-+
बिना कपड़ों के मर जाना हमें मंजूर है लेकिन
सियासत, हम तेरे ये रेशमी कपड़े न पहनेंगे ?
वे निज़ामुद्दीन औलिया की याद दिला देते हैं जिन्होंने सात सुलतानों का समय देखा पर किसी के दरबार मे हाज़िरी नहीं दी.
वे बहुसंख्यक राष्ट्र्वादी मुसलमानों का पक्ष लेते
हुए उन धर्मान्ध संकीर्णता+
वादियों को जो बार बार मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे देते हैं को आइना दिखाते हुए लिखते हैं कि-
मुझे भी सबकी तरह थोड़ी सी शिकायत है
कि चंद साँप यहाँ अपनी आस्तीन में है मैं ये ज़मीन मगर छोड़कर कहाँ जाऊँ
मज़ारे मेरे बुजुर्गों की इस ज़मीन में हैं
निरंतर...अगले ट्वीट में 🙏
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#Thread #अक़बर_महान एवं मुगलों का नाम लेकर लगातार न केवल धर्मान्धता फैलाई जा रही है बल्कि इतिहास को विकृत रूप से प्रस्तुत कर लोगों को बरगलाने की कोशिश भी हो रही है।इसीलिए मैं आपको #हल्दीघाटी के युद्ध के संबंध में कुछ तथ्यात्मक एवं मूलभूत बातों से परिचित कराना चाहता हूँ+
ताकि आपके भ्रम दूर हो सकें -
" यह संघर्ष (हल्दीघाटी का युद्व) हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष की समस्या नहीं था बल्कि मुग़ल साम्राज्य तथा मेवाड़ के मध्य की समस्या था.अगर ऐसा न होता तो #राणा_प्रताप अपनी सेना के एक भाग को हाकिम खां सूर के नेतृत्व में न रखता, न ही अक़बर की सारी+
फ़ौज़ मानसिंह के नेतृत्व में रही होती."
अक़बर का विजय अभियान समुद्रगुप्त की दिग्विजय के लिए किए गए "अश्वमेध यज्ञ" के पश्चात किये गए विजय अभियान की ही तरह था. जिसे एक बड़े इतिहासकार ने "शाही आवेग" या अन्य शब्दों में "अश्वमेधी अभियान " कहा हैं . इस शाही आवेग की चपेट में जिस+
अवश्य देखिये 😊
मैं सिर्फ़ एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी कि हम 70 सालों से एक होके रहे हैं..
बचपन में हमको जो प्रोवोग सिखाते हैं #यूनिवर्सिटी_इन_डाइवर्सिटी' वगेरह..वो हमने जिया है.. बिलकुल.. 70 सालों तक हमने जिया है। पता नहीं पिछले 7-8 सालों में क्या हो गया है भारत को+ @baxiabhishek
कि हमारे बीच में ही अलग अलग टुकड़े हो गए हैं.. ये होना नहीं चाहिए.. आई थिंक एट द एंड ऑफ इट..हम सब एक ही मिट्टी के बने हुए हैं..सबको एक साथ.. इस देश का नागरिक बनके एक साथ भाईचारे से हम सबको रहना चाहिए। @irfaniyat सर लाजवाब एपिसोड 🙏
.@Ashok_Kashmir .@puru_ag
.@_sayema
मैकाले का 'अधोगामी निस्पंदन का सिद्धांत' और इतिहास के स्वयंभू छद्म व्याख्याता-
क्या इतिहास वर्तमान में सर्वाधिक आकर्षित करने वाला रुचिकर विषय बन गया है ?
मैकाले के'अधोगामी निस्पंदन का सिद्धांत'
(Downward Filtration Theory) जिसके तहत भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक+
छोटे से हिस्से को शिक्षित करना था ताकि एक ऐसा वर्ग तैयार हो जो रंग और खून से भारतीय हो लेकिन विचारों, नैतिकता तथा बुद्धिमत्ता में ब्रिटिश हो.
अब इसी सिद्धांत को भारत में इतिहास विषय पर लागू किया जा रहा है. जिसके तहत इतिहास की एक छद्म शाखा विशेष से छद्म इतिहास में प्रशिक्षित+
छद्म इतिहास के नए व्याख्याता -
कंगना रनौत-@KangnaRanaut___ शैक्षणिक योग्यता 10 वीं पास,अभिनेत्री
"हमें सही इतिहास नहीं पढ़ाया गया"
"इतिहास वामपंथियों ने लिखा"
"हमें अपने हीरो सावधानी से चुनना चाहिए"
"गांधी,कांग्रेस,भारत छोड़ो आंदोलन का स्वतंत्रता दिलाने में कोई योगदान नहीं है
@manojmuntashir ने कहा था कि "हमे 'ग' से 'गणेश' की जगह 'ग' से गधा पढ़ाया गया.1971-72 में पाठ्यपुस्तकों में 'ग' से
'गणेश' की जगह 'ग' से 'गधा' कर दिया गया. " पर गोखले जी तो 75 वर्ष के हैं उन्होंने तो ग से गणेश ही पढ़ा होगा फिर ग से गधा जैसी बात क्यों कर रहे हैं ?
गोखले जी आप भी कंगना की तरह बिना इतिहास को जाने मूँह उठाकर चले आए. आइये आपको इतिहास भारतीय स्वतन्त्रता के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे क्लीमेंट एटली के 'भारतीय स्वतंत्रता विधेयक ' के विषय में आधिकारिक रूप से व्यक्त किए गए वक्तव्य से अवगत कराता हूँ.
" यह ( भारतीय स्वतंत्रता विधेयक )
उस घटना चक्र की लंबी श्रंखला का चरम बिंदु है. मिंटो मॉरले तथा मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुझाव, साइमन कमीशन की रिपोर्ट, गोलमेज़ कान्फ्रेंस, मेरे माननीय मित्रों का गत वर्ष भारत जाना ( मंत्रिमंडल का शिष्टमंडल ) यह सभी उस मार्ग के चरण बिंदु हैं."
पं.जवाहरलाल नेहरू को संसद में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की श्रद्धांजलि
अध्यक्ष महोदय,
एक सपना था जो अधूरा रह गया,एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा,गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब+
की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई।+
मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। भारत माता आज शोकमग्ना है – उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नमना है – उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है – उसका रक्षक चला गया। +
@vikramsampath जी
दो प्रश्न मन में उठ रहे हैं-
पहला, सावरकर ने मर्सी पिटीशन (माफ़ीनामा) इसलिए दी कि ऐसा करना सेल्युलर जेल के समस्त कैदियों के लिए अनिवार्य था
दूसरा, या ऐसा करना सावरकर की रणनीति का हिस्सा था ?
यदि पहली बात सही है तो गांधी का ज़िक्र या भूमिका बेवजह चर्चा में है
(वैसे 1911 से गांधी के तथाकथित पत्र के पूर्व सावरकर 5बार मर्सी पिटीशन दे चुके थे)
यदि दूसरी बात सही है तो फ़िर आपको एक पुस्तक और लिखने की सलाह दूँगा जिसमें रिहा होने के बाद सावरकर के स्वतंत्रता के लिए किये गए कार्यों का लेखा जोखा हो?
अब आपका ध्यान एक महत्वपूर्ण तथ्य कीऔर आकर्षित
करना चाहूंगा जो @Ashok_Kashmir जी की पुस्तक " उसने गांधी को क्यों मारा " के पृष्ठ 164 पर अंकित है " यदि मुझे इस शर्त पर रिहा कर दिया जाए कि मैं किसी साम्प्रदायिक या राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लूँगा तो सरकार जब तक चाहे मैं इसका पालन करने को तैयार हूँ." (पाठकों की सुविधा के