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Dec 25, 2022 6 tweets 3 min read Read on X
रोमन सम्राट कोमोडस के राज में प्लेग फैला, भुखमरी हो गई, मरते लोगों के परिजनों ने गुस्से में आगजनी कर दी। विद्रोह की आशंका से भयभीत होकर रोमन सीनेट (एक तरह से संसद) ने सम्राट से कहा कि आप कुछेक कल्याणकारी काम कीजिए ताकि प्रजा को सुकून मिले। खुद को इतिहास में दर्ज कराने के
पागलपन में उन्मत्त सम्राट ने कहा कि तुम कुछ नहीं जानते,मैं ही कुछ ऐसा करूंगा कि सब खुश हो जाएंगे और मैं भी प्रसिद्धि पाऊंगा। इसके साथ ही उसने सीनेट को खत्म कर डालने के संकेत दे दिए क्योंकि वो नया रोम खड़ा करना चाहता था और सीनेट उसकी निरंकुशता में बाधक थी।

कोमोडस ने अनाज या दवाई
बांटने का बड़ा कार्यक्रम चलाने के बजाय राजधानी में दो हफ्तों तक चलनेवाले खेल इवेंट का आयोजन कर दिया।अपनी बड़ी-बड़ी मूर्तियां लगवाईं। और तो और ग्लेडिएटर का रूप धरकर लड़ाइयां कीं जैसा पहले किसी सम्राट ने नहीं किया था। वो खुद को देवता समझने लगा था। जनता का बड़ा मनोरंजन हुआ।
वो नहीं जानते थे कि सम्राट उन्हें बस अपना कायल कर लेना चाहता है।सम्राट अपने जुनून में इस हद तक गिरा कि कॉलेजियम में अपने खिलाफ उतरनेवाले दूसरे ग्लेडिएटर्स को भोथरी तलवारें देने लगा ताकि खुद तो ना मरे बल्कि दूसरों को हराकर वो विजेता के रूप में स्थापित हो जाए।
सिलसिला चला लेकिन कब तक चलता?

उसकी चालबाज़ी और पागलपन पकड़ा गया। lकुछ करीबियों,सबसे चहेती नौकरानी और सीनेटर्स को उसके खोखलेपन का अंदाज़ा हो चुका था।सम्राट नहीं चाहता था कि उसका छवि भंजन हो।उसने चुपके से उन सभी को मृत्युदंड देने के लिए राजपत्र तैयार कर लिया। इससे पहले कि वो
हर किसी को खत्म करवाता सबने मिलकर साजिश रची और शयनकक्ष में ही उसकी गला घोंटकर हत्या करवा दी।सम्राट कोमोडस की चाहत अनुसार उसका नाम इतिहस में दर्ज तो हुआ मगर ऐसे शासक के रूप में जिसने रोमन साम्राज्य के पतन का आरंभ करा दिया।
#इतिइतिहास

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Sep 28
गांधी या भगत सिंह पर कुछ भी लिखूँ लेकिन एक सवाल से बार-बार सामना होता है. मित्र पूछते हैं कि क्या गांधी या कांग्रेस ने भगत सिंह को जानबूझकर नहीं बचाया? कई बार सवाल तो एक लाइन का होता है लेकिन जवाब एक लाइन का नहीं होता. थोड़ा जटिल और थोड़ा विस्तृत होता है, ठीक वैसा ही जैसी परिस्थिति 1930-31 में बनी हुई थी. विस्तार में जाएँ तो बात लंबी होगी सो कोशिश है छोटे में समेटा जाए.

भगत जहां सशस्त्र क्रांति से समाजवादी शासन चाहते थे वहीं गांधी अहिंसा के ज़रिए स्वराज लाने के इच्छुक थे. दोनों की सोच में मूलभूत फ़र्क़ तो यहीं था, बावजूद इसके ना तो भगत और उनका संगठन गांधी की हत्या करना चाहते थे और ना कभी गांधी ने किसी की हत्या कामना की. गांधी अपने विचार पर इतने दृढ़ थे कि मदनलाल ढींगरा का मामला हो, वायसराय की ट्रेन उड़ाने का मसला हो या सांडर्स की हत्या का वो हमेशा ऐसे कृत्यों की निंदा करते रहे. उन्होंने अपना ये स्टैंड कभी नहीं बदला. तो ये साफ़ है कि दोनों के विचार में अंतर था लेकिन वो एक दूसरे के दुश्मन कभी नहीं थे. यहाँ भी भी बता दूँ कि आप संपूर्ण गांधी वांग्मय पढ़ेंगे तो पाएँगे कि भगत सिंह के मामले में अंत आते आते गांधी थोड़ा सहृदय होते चले गए. ऐसा उनकी नरम होती टिप्पणियों से पता चलता है.Image
ये भी अहम बात है कि भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंका तो ख़ुद ही सरेंडर किया. वो जानते थे कि सज़ा होगी. उनका ये कृत्य AUGUST VAILLANT नाम के फ्रैंच क्रांतिकारी से प्रेरित था. उसने भी 1893 में चेंबर ऑफ डेप्युटीज़ में धमाके किए और अगले साल फाँसी का फंदा चूमा.1929 में यही कारनामा दोहराते हुए भगत जानते थे कि अब लौटना नहीं है. वो चाहते भी यही थे कि मुक़दमा लंबा खिंचे ताकि वो क्रांतिकारियों की बात अदालत में कहते रहें, मीडिया रिपोर्ट करता रहे, जनता अख़बार पढ़कर जान सके कि क्रांतिकारी क्यों लड़ रहे हैं. केस में उन्होंने वकील लेने से साफ़ इनकार कर दिया जबकि उनके साथी बीके दत्त का मुक़दमा कांग्रेस नेता आसफ़ अली ने लड़ा. दोनों में से कोई सज़ा से मुक्ति नहीं चाहता था. नतीजतन उम्र क़ैद मिली. उस वक़्त क्रांतिकारियों के सामने भारी चैलेंज रहता था कि लोगों तक अपनी बात कैसे पहुँचाई जाए. भगत को उनके संगठन HSRA की तरफ़ से प्रचार का ज़िम्मा मिला था सो उन्होंने वो ऐसे निभाया. यदि भगत माफ़ी माँगते तो जनता में संगठन और उनकी छवि क्या बनती ये आप सोच सकते हैं इसलिए वो ख़ुद भी चाहते थे कि केस पूरे चले और सज़ा हो.

अब कहानी में ट्विस्ट आया.Image
असेंबली कांड से 4 महीने पहले भगत सिंह ने लाहौर में सांडर्स की हत्या की थी. पुलिस को तब तक कोई सुराग हाथ नहीं लगा था लेकिन भगत के दो साथियों ने उनके ख़िलाफ़ अब गवाही दे दी थी. परिणाम ये हुआ कि भगत सिंह पर सांडर्स वाला केस चलने लगा. इस दौरान सेंट्रल एसेंबली में जिन्ना से लेकर मोतीलाल नेहरू जैसे कांग्रेसी नेता तक भगत सिंह और उनके साथियों के हक़ में आवाज़ उठाते रहे. पंजाब की एसेंबली से दो कांग्रेस मेंबरों ने इस्तीफ़ा भी दे दिया. लाहौर वाले मुक़दमे में भगत और उनके साथियों की पैरवी में कांग्रेस नेता और लाला लाजपत राय के शिष्य गोपीचंद भार्गव समेत कई लोग आगे आए. जेल में उनसे मिलने जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष, मोतीलाल नेहरू, रफ़ी अहमद किदवई जैसे बड़े नेता जाने लगे. अब तक मीडिया में मुक़दमा बड़ा बना हुआ था लेकिन राष्ट्रीय नेताओं की दिलचस्पी ने इसका महत्व और बढ़ा दिया. इस बीच क्रांतिकारियों की भूख हड़ताल ने भी देश को झकझोर दिया था. अंग्रेज़ सरकार ने एकतरफा मुक़दमा चलाया जिसे भगत सिंह ने ढकोसला बताते हुए सुनवाई में व्यवधान पैदा किए. उनको मारा पीटा गया लेकिन वो कोर्ट में अधिकतर बार नहीं आए. आख़िरकार सरकार ने फाँसी की सज़ा सुना दी.

यहाँ से लोगों में मायूसी और भगत की फाँसी टलवाने की कोशिशें शुरू होती हैं. बहुत से लोग इस पर बहुत कुछ लिख चुके. आगे मैं जो लिखूँगा वो इतिहासकार और इतिहास की किताब के लेखकों अशोक कुमार पांडेय, बी एन दत्ता, यशपाल, नेताजी सुभाष, नेहरू, भारत सरकार के पास उपलब्ध रिपोर्ट्स, भगत के ख़तों और उनके साथियों के लेखों के आधार पर लिखने जा रहा हूँ.

उस दौर में गांधी और तब के वायसराय इरविन के बीच मुलाक़ातें जारी थीं. सरकार चाहती थी कि देश में जो तनातनी का माहौल कांग्रेस ने बना रखा है उसे थोड़ा थामा जाए. बहुत से राजनीतिक कार्यकर्ता जेलों में ठूँसें जा चुके थे. तब के वायसराय इरविन और गांधी किसी समझौते तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे. लोग कहते हैं कि यही मौका था कि गांधी को भगत की फांसी रुकवाने की शर्त रख देनी चाहिए थी.ऐसे लोग ना इतिहास से वाक़िफ़ हैं और ना इरविन की सीमाओं से. अब जल्दी जल्दी से उसकी बात कर लेते हैं.Image
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May 1, 2023
ये तस्वीर हैं इंग्लैंड के लंकाशायर में डार्वेन नाम की जगह की।महात्मा गांधी को 1931 में इंग्लैंड दौरे के वक्त यहां आने का न्यौता मिला था। उन्हें आमंत्रित करनेवाला डेविस घराना था।डेविस घराना कपड़ा मिल चलाता था लेकिन उस दौर में बुरे हाल से गुज़र रहा था।उसकी बदहाली की एक बड़ी वजह खुद Image
गांधी थे।गांधी जी ने देसी व्यापार पर अंग्रेज़ी शिकंजा कसता देख विदेशी माल के बहिष्कार का आह्वान किया था।उसी आह्वान का असर था कि इंग्लैंड में बन रहे कपड़े की खपत भारत में अचानक घटती चली गई और देखते ही देखते नुकसान उठा रहे कपड़ा मिलों ने मज़दूरों की छंटनी शुरू कर दी।डेविस घराना
चाहता था कि गांधी जी खुद आकर श्रमिकों की हालत देखें।पर्सी डेविस को उम्मीद थी कि वो महात्मा गांधी को विदेशी माल के बहिष्कार के फैसले से डिगा लेंगे।
25 सितंबर 1931 को गांधी डार्वेन पहुंचे थे।आशंका जताई जा रही थी कि परेशान हाल श्रमिक उनका ज़बरदस्त विरोध करेंगे लेकिन जब गांधी पहुंचे
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Jul 25, 2022
सांपों के देश में एक ऐसा नेवला पैदा हो गया,जो सांपों से ही क्या,किसी भी जानवर से लड़ना नहीं चाहता था.सारे नेवलों में यह बात फैल गयी.वे कहने लगे,अगर वह किसी और जानवर से लड़ना नहीं चाहे,तो कोई बात नहीं,मगर सांपों से लड़ना और उनका खात्मा करना तो हर नेवले का फर्ज है.

“फर्ज क्यों?”
शांतिप्रिय नेवले ने पूछा.

उसका यह पूछना था कि चारों ओर यह चर्चा फैल गयी कि वह न केवल सांपों का हिमायती और नेवलों का दुश्मन है, बल्कि नये ढंग से सोचने वाला और नेवला-जाति की परम्पराओं एवं आदर्शों का विरोधी भी है.

‘वह पागल है.’ उसके पिता ने कहा.
‘वह बीमार है.’ उसकी मां ने कहा.
‘वह बुजदिल है.’उसके भाइयों ने कहा.

तब तो जिन नेवलों ने कभी उसे देखा नहीं था, उन्होंने भी कहना शुरू कर दिया कि वह सांपों की तरह रेंगता है,और नेवला-जाति को नष्ट कर देना चाहता है.

शांतिप्रिय नेवले ने प्रतिवाद किया- ‘मैं तो शांतिपूर्वक सोचने-समझने की कोशिश कर रहा हूं.’
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May 1, 2022
ये तस्वीर हैं इंग्लैंड के लंकाशायर में डार्वेन नाम की जगह की।महात्मा गांधी को 1931 में इंग्लैंड दौरे के वक्त यहां आने का न्यौता मिला था।उन्हें आमंत्रित करनेवाला डेविस घराना था।डेविस घराना कपड़ा मिल चलाता था लेकिन उस दौर में बुरे हाल से गुज़र रहा था।उसकी बदहाली की एक बड़ी वजह खुद
महात्मा गांधी थे।गांधी जी ने देसी व्यापार पर अंग्रेज़ी शिकंजा कसता देख विदेशी माल के बहिष्कार का आह्वान किया था।उसी आह्वान का असर था कि इंग्लैंड में बन रहे कपड़े की खपत भारत में अचानक घटती चली गई और देखते ही देखते नुकसान उठा रहे कपड़ा मिलों ने मज़दूरों की छंटनी शुरू कर दी।डेविस
घराना चाहता था कि गांधी जी खुद आकर श्रमिकों की हालत देखें।पर्सी डेविस को उम्मीद थी कि वो महात्मा गांधी को विदेशी माल के बहिष्कार के फैसले से डिगा लेंगे।
25 सितंबर 1931 को गांधी डार्वेन पहुंचे थे। आशंका जताई जा रही थी कि परेशान हाल श्रमिक उनका ज़बरदस्त विरोध करेंगे लेकिन जब गांधी
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Apr 20, 2022
आज एडोल्फ हिटलर का जन्मदिन है। हिटलर को इसलिए याद रखना चाहिए ताकि दुनिया में हमारी लापरवाही के चलते फिर कभी कोई हिटलर ना पैदा हो जाए। हिटलर पर कुछ जानकारी...
आज आप हिटलर से नफरत करें या चाहे मज़ाक उड़ाएं लेकिन वो आम नेता नहीं था। उसने अच्छे खासे समझदार जर्मनों को अपने पीछे पागल
बनाकर युद्ध में झोंक दिया था। तब वो सभी को महान लगता था और कई तो उसे मसीहा भी समझते थे। आज से करीब 75 साल पहले हिटलर मीडिया, जनसंपर्क और भाषण की ताकत समझ गया था। वो पब्लिक स्पीच यूं ही नहीं दिया करता था बल्कि पहले रिहर्सल करता था। रिहर्सल भी सिर्फ बोलने की नहीं बल्कि बोलने के
अंदाज़ की भी। हिटलर इस बात का खास ख्याल रखता था कि उसके वही फोटो लोगों तक पहुंचे जिसमें वो आकर्षक दिखता हो वरना थोड़े भी खराब फोटो उसकी छवि में डेंट लगा सकते थे। इसी वजह से उसने अपनी फोटो खींचने के लिए प्राइवेट फोटोग्राफर हेनरीच हॉफमैन को रखा।
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Mar 23, 2022
भगत सिंह सिर्फ गंभीर निबंध लिखनेवाले और ओज से भरे भाषण देनेवाले क्रांतिकारी ही नहीं थे, बल्कि ऐसे लड़के भी थे जो दूसरों की खूब मौज लेता था और मामला बिगड़ने पर हालात संभालने में भी गजब का हुनरमंद था.

एक बार किसी ने भगवानदास माहौर उर्फ कैलाश बाबू को बता दिया कि जाड़े में जॉन एक्शा
नंबर वन का रोज़ एक तौला पिया जाए तो बदन बड़ा चुस्त-दुरुस्त मज़बूत हो जाता है.अब ये तो थी ब्रांडी यानि विशुद्ध शराब लेकिन भगवानदास कहते हैं कि उनको तब ये बात समझ में आई नहीं. बस फिर क्या था. चंद्रशेखर आज़ाद जो दल के प्रमुख थे भागे भागे भगवान दास उनके पास पहुंचे और शक्तिवर्धक दवा
लाने के लिए चार रुपये मांगे.दे भी दिए गए. आज़ाद अपने क्रांतिकारी साथियों की वाजिब ज़रूरतों का ख्याल रखते थे तो हुआ ये कि बोतल आ गई.रोज़ एक एक तोला नापकर पिया जाने लगा.फिर कुछ दिन बाद वो अपने घर चले गए. एक रोज़ उन्हें क्रांतिकारियों के ठिकाने आगरा फिर से बुलाया गया. भगवानदास अपनी
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