अगर महत्वाकांक्षा न हो तब तो फिर जीवन में विकास ही नहीं होगा!
निश्चित ही, अभी जिस विकास को हम जानते हैं वह महत्वाकांक्षा के ही द्वारा होता है। लेकिन सच में क्या जीवन का विकास हुआ है? कभी यह सोचा कि विकास हुआ है? क्या विकास हुआ है? आपके पास अच्छे कपड़े हैं हजार साल पहले (1/25)
से, इसलिए विकास हो गया? या कि आपके पास बैलगाड़ियों की जगह मोटरगाड़ियां हैं, इसलिए विकास हो गया? क्या आप झोपड़ी की जगह बड़े मकान में रहते हैं सीमेंट-कांक्रीट के, इसलिए विकास हो गया?
यह विकास नहीं है। मनुष्य के हृदय में, मनुष्य की आत्मा में कौन सी ज्योति जली है जिसको हम (2/25)
विकास कहें? कौन सा आनंद स्फूर्त हुआ है जिसको हम विकास कहें? मनुष्य के भीतर क्या फलित हुआ है, कौन से फूल लगे हैं जिसको हम विकास कहें? कोई विकास नहीं दिखाई पड़ता। कोई विकास नहीं दिखाई पड़ता, एक कोल्हू का बैल चक्कर काटता रहता है अपने घेरे में, वैसे ही मनुष्य की आत्मा चक्कर (3/25)
काट रही है। हां, कोल्हू के बैल पर कभी रद्दी कपड़े पड़े थे, अब उस पर बहुत मखमली कपड़े पड़े हैं। लेकिन इससे विकास नहीं हो जाता। या कोल्हू के बैल पर हीरे-जवाहरात लगा कर हम कपड़े टांग दें, तो भी विकास नहीं हो जाता। कोल्हू का बैल कोल्हू का बैल है और चक्कर काटता रहता है। और उस (4/25)
चक्कर काटने को ही वह सोचता है: मैं बढ़ रहा हूं, आगे बढ़ रहा हूं।
मनुष्य आगे नहीं बढ़ रहा है। इधर हजारों साल से उसमें कोई परिलक्षण ज्ञात नहीं हुए जिससे वह आगे गया हो, कि उसकी चेतना ने नये तल छुए हों, कि उसकी चेतना ऊर्ध्वगामी हुई हो, कि उसकी चेतना ने आकाश की कोई और (5/25)
अनुभूतियां पाई हों, कि उसकी चेतना पृथ्वी से मुक्त हुई हो और ऊपर उठी हो, कि वह परमात्मा की तरफ गया हो, यह कोई विकास नहीं हुआ है।
महत्वाकांक्षा अगर है तो इस तरह का विकास हो ही नहीं सकता। विकास हो सकता है कि मकान बड़े होते चले जाएंगे। और यह घड़ी आ सकती है कि मकान इतने बड़े (6/25)
हो जाएं कि आदमी को खोजना मुश्किल हो जाए, वह इतना छोटा हो जाए। और यह घड़ी आ सकती है कि सामान इतना ज्यादा हो जाए कि आदमी अपने ही हाथ के द्वारा बनाए गए सामान के नीचे दबे और मर जाए। और यह हो सकता है कि एक दिन हम इतना विकास कर लें, यह तथाकथित विकास, कि हमारे पास सब हो, सिर्फ (7/25)
आदमी की आत्मा न बचे।
एक बार ऐसा हुआ। एक नगर में आग लग गई थी और एक भवन जल रहा था लपटों में। और भवनपति बाहर खड़ा था और रो रहा था और आंसू बह रहे थे, और उसकी समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करे, क्या न करे! लोग जा रहे थे और सामान ला रहे थे। एक संन्यासी भी खड़ा हुआ देख रहा (8/25)
था। जब सारा सामान बाहर आ गया, तो सामान लाने वाले लोगों ने पूछा, कुछ और बच गया हो तो बताएं? क्योंकि अब अंतिम बार भीतर जाया जा सकता है, उसके बाद फिर आगे संभावना नहीं है, लपटें बहुत बढ़ गई हैं, यह आखिरी मौका है कि हम भीतर जाएं।
उस भवनपति ने कहा, मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ता, (9/25)
तुम एक दफा और जाकर देख लो, कुछ हो तो ले आओ।
वे भीतर गए, भीतर से रोते हुए वापस लौटे। भीड़ लग गई, सबने पूछा, क्या हुआ? उनसे कुछ कहते भी नहीं बनता है। वे कहने लगे, हम तो भूल में पड़ गए। हम तो सामान बचाने में लग गए, मकान मालिक का इकलौता लड़का भीतर सोया था, वह जल गया और (10/25)
समाप्त हो गया। सामान हमने बचा लिया, सामान का मालिक तो खत्म हो गया।
वह संन्यासी वहां खड़ा था, उसने अपनी डायरी में लिखा: ऐसा ही इस पूरी दुनिया में हो रहा है लोग सामान बचा रहे हैं और आदमी समाप्त होता जा रहा है। और इसको हम विकास कहते हैं!
यह विकास नहीं है। अगर यही विकास है (11/25)
तो परमात्मा इस विकास से बचाए। यह विकास नहीं है, यह कतई विकास नहीं है। लेकिन महत्वाकांक्षा यही कर सकती थी, सामान बढ़ा सकती थी, शांति नहीं बढ़ा सकती थी; शक्ति बढ़ा सकती थी, शांति नहीं बढ़ा सकती थी। महत्वाकांक्षा दौड़ा सकती थी, कहीं पहुंचा नहीं सकती थी। फिर क्या हो? अगर (12/25)
महत्वाकांक्षा न हो तो क्या हो?
महत्वाकांक्षा नहीं, प्रेम होना चाहिए। किससे प्रेम? अपने व्यक्तित्व से प्रेम, अपने व्यक्तित्व के भीतर जो छिपी हुई संभावनाएं हैं उनको विकास करने से प्रेम, अपने भीतर जो बीज की तरह पड़ा है उसे अंकुरित करने से प्रेम। प्रतियोगिता और महत्वाकांक्षा (13/25)
दूसरे की तुलना में सोचती है और विकास की ठीक-ठीक दशा दूसरे की तुलना में नहीं सोचती, दूसरे के कंपेरिजन में नहीं सोचती, अपने विकास की, अपने बीजों को परिपूर्ण विकसित करने की भाषा में सोचती है। इन दोनों बातों में फर्क है।
अगर मैं संगीत सीख रहा हूं, इसलिए सीख रहा हूं कि दूसरे (14/25)
जो संगीत सीखने वाले लोग हैं उनसे आगे निकल जाऊं। मुझे संगीत से न कोई प्रेम है, न अपने से कोई प्रेम है। मुझे दूसरे संगीत सीखने वालों से घृणा है, र्ईष्या है। न तो मुझे अपने से प्रेम है और न मुझे संगीत से प्रेम है। मुझे दूसरे संगीत सीखने वालों से घृणा है, र्ईष्या है, जलन (15/25)
है। उनसे मैं आगे होना चाहता हूं। लेकिन क्या यही एक दिशा है सीखने की? और क्या ऐसा व्यक्ति संगीत सीख पाएगा जिसके मन में र्ईष्या है, जलन है?
नहीं, संगीत के लिए तो शांत मन चाहिए, जहांर् ईष्या न हो, जहां जलन न हो। संगीत नहीं सीख पाएगा। और सीखेगा तो वह झूठा संगीत होगा। उससे (16/25)
उसके प्राणों में न तो आनंद होगा, और न उसके प्राणों में फूल खिलेंगे और न शांति आएगी।
नहीं, एक और रास्ता भी है कि मुझे संगीत से प्रेम हो। संगीतज्ञों से र्ईष्या और नफरत और घृणा नहीं, प्रतियोगिता नहीं, प्रतिस्पर्धा नहीं, काम्पिटीशन नहीं, वरन मुझे संगीत से प्रेम हो और अपने (17/25)
से प्रेम हो। और मेरे भीतर संगीत की जो संभावना है वह कैसे बीज अंकुरित होकर पौधे बन सकें, कैसे संगीत के फूल मेरे भीतर आ सकें, इस दिशा में मेरी सारी चेष्टा हो। यह नॉन-काम्पिटीटिव होगी, इसमें कोई प्रतियोगिता नहीं है किसी और से। मैं अकेला हूं यहां और अपनी दिशा खोज रहा हूं (18/25)
जीवन में। किसी से संघर्ष नहीं है मेरा, मैं किसी को आगे-पीछे करने के खयाल में और विचार में नहीं हूं।
जब तक दुनिया में इस भांति की प्रेम पर आधारित जीवन-दृष्टि नहीं होगी तब तक दुनिया में राजनीति से छुटकारा नहीं हो सकता। राजनीति एंबीशन का अंतिम चरम परिणाम है। महत्वाकांक्षा (19/25)
सिखाएंगे, राजनीतिज्ञ पैदा होगा। महत्वाकांक्षा सिखाएंगे, कभी भी अहिंसक चित्त पैदा नहीं होगा, हिंसक चित्त पैदा होगा। यह सारी दुनिया की जो राजनीति फलित हुई है, यह हमारी गलत शिक्षा का फल है जिसने महत्वाकांक्षा सिखाई है। गलत सभ्यता और गलत संस्कृति का फल है, जो सिखाती है, (20/25)
दूसरों से आगे बढ़ो, दूसरों से आगे निकलो, दूसरों से पहले हो जाओ।
नहीं, सिखाना यह चाहिए कि तुम पूरे बनो, तुम पूरे खिलो, तुम पूरे विकसित हो जाओ। दूसरे से कोई संबंध नहीं सिखाया जाना चाहिए। दूसरे से कोई वास्ता भी क्या है। और इस दूसरे के साथ संघर्ष में, इस दूसरे के साथ (21/25)
प्रतियोगिता में अक्सर यह होता है कि जो हम हो सकते थे वह हम नहीं हो पाते हैं। क्योंकि हमें इस तरह के ज्वर पकड़ जाते हैं जो हमारे प्राणों की प्रतिभा नहीं थी, जो हमारे प्राणों के भीतर की वास्तविक पोटेंशियलिटी नहीं थी, जिसके बीज ही हमारे भीतर नहीं थे वह महत्वाकांक्षा में (22/25)
हमारे भीतर पकड़ जाते हैं। तब परिणाम यह होता है कि जो एक अदभुत बढ़ई हो सकता था, वह एक मूर्ख डाक्टर होकर बैठ जाता है। तब परिणाम यह होता है कि जो एक अदभुत डाक्टर हो सकता था, वह किसी अदालत में सिर पचाता है और वकील हो जाता है। तब परिणाम यह होता है कि सब गड़बड़ हो जाता है। जो (23/25)
जहां हो सकते थे वहां नहीं हो पाते और जहां नहीं होने चाहिए थे वहां हो जाते हैं। और जिंदगी सब बोझिल और भारी और कष्टपूर्ण हो जाती है।
जीवन के परम आनंद के क्षण वे हैं जब कोई व्यक्ति उस काम को खोज लेता है जो उसके भीतर की संभावना है। तब उसके व्यक्तित्व में एक निखार, (24/25)
महाभारत गुरुओं से भरी पड़ी है। यहाँ सब कुछ न कुछ सीखने ही आ जा रहे होते हैं। शुरुआत में कौशिक नाम के ब्राह्मण एक धर्म व्याध से व्याध गीता सीखने जा रहे होते हैं तो अंत के हिस्से में भीष्म शरसैय्या पर लेटे हुए भी करीब दर्ज़न भर गीताएँ सुना देते हैं। ज्यादातर ऐसे प्रसंगों में (1/27)
स्त्रियाँ प्रश्न पूछ रही होती हैं, या जवाब दे रही होती हैं। दार्शनिक मुद्दों पर स्त्रियों का बात करना कई विदेशी अनुवादकों और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दृष्टि से सही नहीं रहा होगा। शायद इस वजह से ऐसे प्रसंगों को दबा कर सिर्फ युद्ध पर्व के छोटे से हिस्से पर जोर दिया जाता (2/27)
रहा है।
सीधे स्रोत के बदले, कई जगह से परावर्तित होकर आई महाभारत की जानकारी की वजह से आज अगर महाभारत काल के गुरुओं के बारे में सोचा जाए तो सिर्फ दो नाम याद आते हैं। महाभारत में, आपस में साले बहनोई रहे कृपाचार्य और द्रोणाचार्य ही सिर्फ गुरु कहने पर याद आते हैं। कृपाचार्य (3/27)
मथुरा की कथित शाही ईदगाह मस्जिद कमेटी के अध्यक्ष डॉ जेड हसन का एक बयान कल अखबार में छपा था। जेड हसन ने कहा है कि वो कृष्ण जन्मभूमि मामले को अदालत के बाहर निपटाना चाहते है।
अल तकैय्या (काफिरों को धोखा देने के लिए मुसलमानों (1/11)
द्वारा बोला जाने वाला पवित्र झूठ) करते हुए हसन ने कहा कि मथुरा प्रेम की नगरी है और यहां पर कोई विवाद नहीं होने देंगे और अदालत के बाहर विवाद को सुलझाने के लिए श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान से बात करेंगे।
ये जानकारी तो आपको होगी ही की मथुरा की सिविल अदालत ने कृष्ण जन्म (2/11)
स्थल के 13.7 एकड़ का आमीन सर्वे कराने का निर्णय किया है उसी के संदर्भ में हसन का यह बयान आया है।
-यहां आपको ये बात समझनी होगी कि आखिर ये श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान क्या है? दरअसल श्री कृष्ण जन्म सेवा संस्थान, शाही ईदगाह कमेटी के द्वारा बनवाया गया एक फर्जी संस्थान (3/11)
एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा सांप रहता था। अपनी जवानी में वह बड़ा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज़ हर लेता हैं।
बुढापे की मार से मंदविष का शरीर कमज़ोर पड गया था। उसके विषदंत (1/15)
हिलने लगें थे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड़ गए थे। मंदविष इसी उधेडबुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन (2/15)
उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुंचा।
दादुर सरोवर में मेढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंदविष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेढकों का राजा बैठा नज़र आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया “महाराज की जय हो।”
11वीं-13वीं शताब्दी में महिषासुर का वध करती दुर्गा माँ की एक ज्वालामुखीय पत्थर का स्तंभ
इंडोनेशिया, पूर्वी जावा।
एक भैंस पर खड़ी होकर, आठ-सशस्त्र देवी राक्षस को उसके बालों से पकड़ती हैं और तलवार, शंख और धर्मचक्र जैसी विभिन्न विशेषताओं को धारण करती हैं। उसके धड़ को एक (1/7)
भारी हार के साथ समोच्च और सुशोभित किया गया है, एक सौम्य अभिव्यक्ति वाला चेहरा और एक मुकुट और विस्तृत बालों की सज्जा के साथ द्वारा मुकुट पहनाया गया है।
वह कई मनको की कमरबंद, दो रोसेट क्लैप्स और लटकन वाले बंदनवार के साथ एक बाटिक सारंग में लिपटी हुई है, उनके बाल एक ऊंचे (2/7)
शिगॉन में बंधे हुए हैं, जो किनारों पर बहते हैं, एक प्रभामंडल द्वारा समर्थित है और उसके चारों ओर एक तोरण बनाने वाली स्टेल है।
उद्गम: वर्तमान मालिक के दादाजी के व्यक्तिगत संग्रह से, अधिग्रहीत सी। 1960 में इटली में, और वहां से एक ही परिवार में वंश द्वारा।
मतांतरण पर भाषा कैसे बदल गई मीलार्ड की। क्या मतांतरण के आरोप गलत हैं। कितनी बेंच बनेंगी इस विषय पर?
वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय की धार्मिक मतांतरण पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने 14 नवंबर को कहा था कि “जबरन मतांतरण देश की सुरक्षा (1/11)
के लिए खतरा है, नहीं रोका तो हो जाएगी मुश्किल। नागरिकों को मिले धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को भी इससे खतरा हो सकता है।”
बेंच ने कहा कि धोखे, प्रलोभन, धमकी के जरिये मतांतरण नहीं रोका गया तो बेहद कठिन स्थिति पैदा हो जाएगी।
इसके बाद 12 दिसंबर की सुनवाई में उपाध्याय (2/11)
की याचिका का विरोध करने वाले वकील दुष्यंत दवे ने ऐसा व्याख्यान दिया जैसे कोई मतांतरण हो ही नहीं रहा हो और उपाध्याय के दूसरे धर्मों के खिलाफ लगाए गए मतांतरण के आरोपों को हटाने की मांग की। इस पर मीलार्ड की भाषा बदल गई और उपाध्याय को कहा कि “अन्य धर्मों पर लगाए आरोपों (3/11)
संगमेश्वर महादेव राजस्थान से ७० कि.मी. दूर माही अनास नदी के संगम स्थल पर महादेव का चमत्कारिक मंदिर है। ये मंदिर लगभग २०० वर्ष पुराना है। वर्ष में ३ से ४ महीने ये मंदिर गायब रहता है। दरअसल वर्षों के कुछ महीने इस मंदिर के दर्शन न होने की वजह इसका पानी में डूब जाना है।
(1/10)
हर वर्ष ये स्थल ४ फीट तक पानी में डूब जाता है, लेकिन भक्त इस मंदिर के दर्शन करने नाव पर पहुंच जाते हैं। हैरान करने वाली तो ये है कि इतना समय पानी में रहने के बावजूद भी ये मंदिर में कोई नुक्सान नहीं होता। कोई इसे चमत्कार कहता है तो कोई ईश्वरीय शक्ति।
तो आईए जानें, इस (2/10)
मंदिर की और भी खास बातें:
संगमेश्वर महादेव नाम से प्रसिद्ध ये मंदिर राजस्थान में बांसवाड़ा से ७० कि मी दूर भैंसाऊ गांव में माही और अनास नदी के संगमस्थल पर स्थित है।
हर वर्ष यह मंदिर जुलाई-अगस्त में डूब जाता है लेकिन इस साल मानसून में देरी की वजह से यह स्थिति सितंबर में (3/10)