‘तट की तरफ़ जाने वाली संकरी गलियाँ खचा-खच भरी हैं। यात्री, व्यापारी, फेरीवाले, भिखारी, चोर, आवारा लोग इस भीड़ का हिस्सा हैं। कई ठेलों पर चूल्हे जला कर भोजन बनाया जा रहा है। कुछ बाँस के बने पट्टों पर किताबें
लटकी हैं। रोचक गल्प भी हैं, प्रेरक पुस्तकें भी।
कुछ बौद्ध भिक्षु राहगीरों को बिठा कर कथाएँ सुना रहे हैं। कुछ वैद्य अजीबोग़रीब जड़ों से औषधि बना रहे हैं। साँप, मेढक और हिरण के मांस ज़मीन पर सुखाए जा रहे हैं। नाई उस्तरा लेकर, और मुंशी काग़ज़ और दवात लेकर बैठे हैं।
मुंशी तांबे के सिक्के लेकर अनपढ़ों के लिए चिट्ठी लिख रहे हैं।
एक भविष्यवक्ता बेंत की गठरी लेकर बैठा है, जिसमें हर बेंत पर एक अंक लिखा है। लोग आकर एक बेंत चुनते हैं, और वह अपने ग्रंथ का वह पन्ना खोलता है जिसमें उनका भविष्य लिखा है। उसके ठीक पीछे एक पट्टिका पर लिखा है-
ज़िंदगी बहुत कीमती है। अपने जीवन में सावधानी बरतें। सदैव किसी दिव्य व्यक्ति से मार्गदर्शन लें। ख़ास कर जब आप समुद्र यात्रा पर जा रहे हों!’
- झांग दाइ (Zhang Dai) के संस्मरण से, सत्रहवीं सदी
चीन के इतिहास में दो चीजें बहुतायत में मिलती हैं। एक तो किताबें बहुत लिखी गयी, क्योंकि
काग़ज़ की खोज जल्दी हो गयी। दूसरा यह कि यात्रा संस्मरण बहुत लिखे गए। दूसरे देशों के इतिहास को भी चीनी यात्रियों के संस्मरणों से देखा गया, जिसमें भारत में शामिल है। भले ही ह्वेन-सांग का लिखा आधा-अधूरा हो, विकृत हो, उसके अनुवाद ग़लत हुए हों या ह्वेन-सांग नामक कोई व्यक्ति ही न हो;
लेकिन वह ह्वेन-सांग के नाम से लिख दिया गया, तो अब वह इतिहास का हिस्सा है। मार्को पोलो ने क़ैदखाने में बैठे-बैठे किसी दूसरे कैदी को कुछ कहानी सुनायी, उसने कुछ मसाला जोड़ कर लिख दिया, वह इतिहास बन गया। इसलिए इस विषय पर माथापच्ची करने का मतलब नहीं कि सही इतिहास क्या और ग़लत क्या।
अगर कोई घटनाओं को दर्ज़ ही नहीं करता, तो वह सत्य होकर भी इतिहास के पन्नों में नहीं जाएगी। अगर दर्ज़ हो गयी तो हम उसे भले अविश्वसनीय और मिथ्या कहते रहें, वह इतिहास बन जाएगी।
अब जैसे इसी कथन को लें- ‘मंगोलों के बाद चीन पर कभी भी लंबे समय तक पूर्ण विदेशी शासन नहीं हुआ’
यह बात न सिर्फ़ चीनी बल्कि पश्चिमी इतिहासकार भी लिखते हैं। मैंने भी पहले लिखा है। लेकिन, यह कथन भ्रांतिपूर्ण है। इसलिए नहीं कि यूरोपीय शक्तियों ने चीन पर धौंस जमायी, या जापान ने हराया, बल्कि चीन का आखिरी राजवंश जिसने तीन सौ वर्षों तक शासन किया वही चीन की दीवाल फाँद कर आए थे!
सत्रहवीं सदी के शुरुआत में जब डोंगलिन अकादमी के बुद्धिजीवियों ने सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह शुरू किया, तो उन्हें पकड़ कर मृत्युदंड दे दिया गया। लगभग पूरी अकादमी ही साफ़ कर दी गयी। मगर उन्होंने जनता में अपना संदेश पहुँचा दिया था। पहले छोटे दुकानदारों ने शहरों में आंदोलन शुरू किए।
फिर गाँवों में किसान उठ खड़े हुए। मिंग वंश की नींव हिल गयी।
1635 ईसवी में ली जिचेंग नामक एक किसान के नेतृत्व में तीस हज़ार चीनियों ने राजधानी की ओर बढ़ना शुरू किया। वह एक-एक कर चीनी शहर जीतते जा रहे थे। हालाँकि वे अराजक थे, जो सरकारी संपत्ति जलाते हुए आगे बढ़ रहे थे।
कैफेंग प्रांत में तो उन्होंने एक बाँध तोड़ दिया, जिसमें तीन लाख लोगों के डूब कर मर जाने का विवरण है।1644 ई. में जब वह बीजिंग पहुँचे, मिंग वंश के आखिरी राजा फॉरबिडेन सिटी के बाहर एक पेड़ से लटके हुए मिले। उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।
ली जिचेंग ने उस जमाने का एक साम्यवादी भाषण दिया
‘अब इस राज्य पर शाही शासन नहीं, हम गरीबों का राज होगा। कोई कर नहीं लगाया जाएगा। ज़मीन हर नागरिक को बराबर बाँट दी जाएगी’
ऐसे अशांत माहौल में दो विदेशी शक्तियों ने चीन पर अपने जाल फेंकने शुरू किए थे।
पहले पुर्तगालियों ने यह सोचा कि मिंग राजवंश को सैन्य सहयोग देकर धीरे-धीरे
इसे अपना उपनिवेश बना लिया जाए। उन्होंने तोप और बारूद भिजवाए, जो चीन के लिए अपेक्षाकृत नयी चीज थी। ये गोला-बारूद युद्ध में भले काम आते किंतु इस जन-विद्रोह में तो नाकाम रहे।
दूसरी विदेशी शक्ति चीन की दीवाल के उत्तर में थी। नुरहाची नामक एक सरदार ने जुरचेन,
मंगोल और अन्य को मिला कर कुल आठ कबीलों का एक समूह बनाया। संभवतः वे तेंगरी या शामन आस्थाओं को मानते थे। कुछ स्रोत उन्हें बोधिसत्व मंजूश्री का अनुयायी मानते हैं। ऐसा भ्रम उनके नाम को लेकर संभव है।
चीन की दीवाल फाँद कर अगली तीन सदियों तक चीन पर अपना शासन स्थापित करने वाले ये लोग थे- मंचू।
बनारस से चला गंगा विलास क्रूज छपरा में जाकर फंस गया क्योंकि छपरा में पानी कम था, दर्जनों विदेशी सैलानियो को क्रूज से उतारकर लाया गया, बाद में जेसे तैसे क्रूज चालू हुआ और आगे बढ़ा .....इस बात से एक सवाल खड़ा होता है कि क्या गंगा में पानी कम हो रहा है ?
ऐसी स्थिति में भी अडानी जी को गंगा से पानी खींचने की अनुमति दी जा रही है
जी हां ! ये बिलकुल सच है अडानी जी हर साल साहिबगंज में गंगा नदी से 36 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को खींचेंगे, साहिबगंज में अडानी का जल-पंपिंग स्टेशन बनाया गया है जिससे पवित्र गंगा जल पाइप लाइन के जरिए 90
किलोमीटर दूर गोड्डा के पॉवर प्लांट तक भेजा जाएगा
गंगा के इस पानी को गोड्डा में अडानी कंपनी के बड़े पैमाने पर बिजली संयंत्र में पाइप किया जाएगा जहां इसका उपयोग कोयले को धोने, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन और टर्बाइनों को चलाने के लिए भाप उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा।
यही नाम था, थोड़ा अजीब.. पर था तो क्या करें। तो भैया को एक बार गुफा में ध्यान करने की हुनक हुई। तो चल पड़े गुफा खोजने.. मिल भी गयी।
गुफा, जाहिर है जंगल मे होगी, और जंगल तो पहाड़ पर होगा। तो पहाड़ी जंगल मे भैया भजपैया ने गुफा खोजकर ध्यान लगाया।
समझ मे आया कि पीछे, कोई पहले ही ध्यान लगाया हुआ है।
भालू था..
तो भालू साहब को अपनी गुफा में किसी और का ध्यान लगाना.. शायद पसंद नही आया, तभी तो रेस शुरू हुई। भैया भजपैया जीत रहे थे, काहे की भालू पीछे था, भैया आगे थे।
पर दो की रेस जीतने में कतई मजा न था। तो एक शेर भी रेस में कूद पड़ा। लेकिन रॉकेट हमारे भैया ..भैया भैया भैया, तो अभी भी लीड कर रहे थे।
गौरवर्णी, रक्ताभु, कोमल, रसीले और यम्मी थे, तो एक भेड़िया भी पीछे लग गया। जंगल मे तूफान मचा था, आगे आगे भैया, पीछे पीछे भालू, शेर और भेड़िया..
बीरबल का टखना फ्रैक्चर हो गया. वॉकर का सहारा लिए लंगड़ाते-घिसटते हुए दरबार की तरफ जा रहे थे. उसी बीच राजा टोडरमल अपनी बग्घी से गुजरे. बीरबल को बिठा लिया. वॉकर पीछे बंधवा लिया. टोडरमल खुद छोटे-मोटे वैद्य थे. चोट के बारे में मालूमात हासिल करने के बाद बोले,
“तुम अगले सात दिन तक केले मत खाना और सिर्फ सफ़ेद लुंगी पहनना.”
“दर्द बहुत है राजा साहब” बीरबल कराहे.
“सब ठीक हो जाएगा. याद रहे बस सफ़ेद लुंगी पहननी है और कोई केले खिलाने के बदले जवाहरात भी दे रहा हो केले नहीं खाने हैं.”
दरबार सजा हुआ था और बादशाह के आने का इंतज़ार हो रहा था. लंगड़ाते हुए बीरबल को देख सभी ने सहानुभूति जताई. बीरबल ने सोचा भला हो बादशाह सलामत का जिन्होंने अपने साम्राज्य के छः बड़े गवर्नरों की पोस्टों में से पांच पर डाक्टरों को तैनात कर रखा था.
दिल्ली में हो रही बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में इस साल 9 राज्यों के चुनाव में हिंदुत्व,5 किलो राशन और लाभार्थी कार्ड की रेवड़ी पर जीत की रणनीति बनी है।नरेंद्र मोदी सरकार के 8 साल के राज में यही 3 उपलब्धियां बची हैं। इसके सिवा आम जनता के लिए ऐसा कोई काम नहीं हुआ,जो चुनाव जितवा
सके,उल्टे मध्यमवर्ग की जेब से निकलकर बैंकों में जमा हुए 12 से 14 लाख करोड़ उन कंपनियों पर लुटा दिए, जिन्होंने चंदे से मोदी सरकार को टिका रखा है।
बदले में मोदी सरकार ने इन्हीं कंपनियों के लोन माफ किए, यानी फायदा पहुंचाया। यह नहीं होता तो साढ़े 66 लाख करोड़ के एनपीए यानी
बट्टे खाते के बोझ तले आज सारे बैंक जोशीमठ बन जाते। शायद ही किसी बैंक का जीएम, ईडी या सीएमडी ऐसा मिलेगा, जिसने राजनीतिक दबाव में किसी कारोबारी को कर्ज न बांटा हो और वह भी सारे नियमों को टेबल के नीचे रखकर। दुनिया के किसी भी देश में लोन का 1–2% ही एनपीए होता है,
चीनी मूल के पहले व्यक्ति जिनसे मेरी मुलाक़ात हुई होगी, वह दरभंगा के एक दंत चिकित्सक डॉ. चैंग थे। मुझे मालूम नहीं कि उनके कौन से पूर्वज कब भारत आए, किंतु बिहार-बंगाल में ऐसे कई चीनी मूल के दंत चिकित्सक मिल जाएँगे। मुमकिन है कि उन्होंने भारत से डिग्री हासिल की हो,
लेकिन उनका चिकित्सकीय ढर्रा और उनके यंत्र खानदानी नज़र आते थे। वे अपने बोर्ड पर चाइनीज डेंटिल क्लिनिक लिख कर इस बात को वजन भी देते थे।
वहीं, उनकी क्लिनिक से कुछ किलोमीटर दूर शहर के दूसरी छोर पर हवाई पट्टी थी जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय वायु सेना के अंतर्गत आ गयी।
हम कहानियाँ सुनते कि अगर भारत और चीन में युद्ध होता है तो बिहार के बिहटा और दरभंगा की वायुसेना यूनिट महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। हालाँकि ऐसी स्थिति बनी नहीं। अब उसका एक हिस्सा नागरिक हवाई अड्डा बन गया है।