चीनी मूल के पहले व्यक्ति जिनसे मेरी मुलाक़ात हुई होगी, वह दरभंगा के एक दंत चिकित्सक डॉ. चैंग थे। मुझे मालूम नहीं कि उनके कौन से पूर्वज कब भारत आए, किंतु बिहार-बंगाल में ऐसे कई चीनी मूल के दंत चिकित्सक मिल जाएँगे। मुमकिन है कि उन्होंने भारत से डिग्री हासिल की हो,
लेकिन उनका चिकित्सकीय ढर्रा और उनके यंत्र खानदानी नज़र आते थे। वे अपने बोर्ड पर चाइनीज डेंटिल क्लिनिक लिख कर इस बात को वजन भी देते थे।
वहीं, उनकी क्लिनिक से कुछ किलोमीटर दूर शहर के दूसरी छोर पर हवाई पट्टी थी जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय वायु सेना के अंतर्गत आ गयी।
हम कहानियाँ सुनते कि अगर भारत और चीन में युद्ध होता है तो बिहार के बिहटा और दरभंगा की वायुसेना यूनिट महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। हालाँकि ऐसी स्थिति बनी नहीं। अब उसका एक हिस्सा नागरिक हवाई अड्डा बन गया है।
बाद में मेरे कुछ जानकार डाक्टरी पढ़ने चीन गए,
तो मैं उनसे चीन के विषय में पूछता था। उन्होंने न चीनी भाषा सीखी, न उनकी चीन में ख़ास रुचि लगी। मुझे यही समझ आया कि वे भारतीय विद्यार्थियों का एक गुट बना कर रहते और गुट बना कर ही लौट आये। उनमें से एक गुट मुझे दिल्ली के गौतम नगर में भारतीय परीक्षा की तैयारी करता मिला।
अमरीकी विश्वविद्यालय में मुझे पक्के चीनी लोग मिलने शुरू हुए, जो चीन से अमरीका पढ़ने आए थे। उनमें एक से बहुत जल्दी दोस्ती हो गयी क्योंकि वह विभाग के मेरे ही तल पर थे। उनकी अंग्रेज़ी कच्ची थी, मगर विषय पर पकड़ अच्छी थी। मैं मुख्यतः सैद्धांतिक (थियरिटकल) प्रयोगशाला में था,
जबकि उन्होंने प्रायोगिक (प्रैक्टिकल) प्रयोगशाला चुनी।इसकी स्पष्ट वजह यह थी कि उनके हाथ और आँख बारीक कामों के लिए सधे हुए थे। किसी पियानो वादक की तरह वह धैर्य से और पूरी कारीगरी से प्रयोगकरते। उनका शोध सफल दिशा में बढ़ा, मैंने बीच मँझधार में त्याग दिया। अब उनकी अपनी प्रयोगशाला है,
कई शोधपत्र छप गए, और क्या पता भविष्य में नोबेल वगैरा भी मिल जाए।
किस्मत ऐसी कि नॉर्वे में जो पहले सहकर्मी फिजिशियन मिले, वह भी चीन से। हालाँकि वह छुटपन में नॉर्वे आ गए थे, और पढ़ाई ओस्लो में की, लेकिन उन्होंने चीन जाकर विवाह किया। उनके पहले बच्चे का पहला अल्ट्रासाउंड मैंने ही
किया क्योंकि उनकी पत्नी का मानना था कि भारतीय चिकित्सक बेहतर होते हैं। एक चीन में पली-बढ़ी महिला के मन में यह सोच किस कारण बनी होगी, यह मैं नहीं समझ पाया। संभव है यूँ ही मन रखने के लिए कह दिया हो।
खैर, इन व्यक्तिगत छिटपुट कारणों से चीन पर पढ़ना मैंने नहीं शुरू किया।
न ही भू-राजनीति (जियोपॉलिटिक्स) की गहरी समझ के लिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन पर लेखन की दो धाराएँ हैं। पहली जो चीन को सारी समस्याओं की जड़ बताती है, और उसके पर्याप्त तर्क देती है। दूसरी जो (कम्युनिस्ट) चीन के समर्थन में अपनी बात रखती है। लेकिन एक आम पाठक तो इन दो धाराओं से
मुक्त होकर भी देख सकता है। हालाँकि वह पाठक भारतीय हो, तो आज की राजनैतिक स्थिति में एक अवरोध आ सकता है, वैमनस्य या घृणा भी आ सकती है। यह तो मुझे भी लिख कर ही पता लगेगा कि कलम किस धारा का रुख लेती है, कितनी सीधी चलती है, कितना अपनी सहूलियत से तोड़-मरोड़ती है।
एक स्वीराकोक्ति तो यह कि मेरे लिए यह कठिन विषय है, और मैं इस पर कुछ भी लिखना टाल रहा था। एक सुझाव मिला कि पंद्रह अगस्त के बाद ही चीन पर कुछ लिखूँ क्योंकि भारत आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। यह तो भारतीय इतिहास जानने-समझने का वक्त है, मैं कहाँ चीन की कहानी कहने बैठ गया? लेकिन
हाल में जब लद्दाख से लौटा तो कुछ कुलबुलाहट सी हुई कि अब मुहूर्त न देखा जाए, बिना किसी अतिरिक्त भार के लिख दिया जाए।
लद्दाख में एक मशहूर झील है जिसका दो-तिहाई हिस्सा चीन में है। वहाँ क्षितिज की ओर देखते हुए मन में अपने-आप कुछ प्रश्न उमड़ पड़ते हैं।
जैसे-
“दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या जिसके साथ भारत की लगभग 2200 मील लंबी सीमा है, किंतु कोई बढ़िया चालू सड़क-मार्ग नहीं
जिससे भारत का रिश्ता दो हज़ार वर्षों से पहले से रहा है किंतु मित्रता आज भी संदिग्ध है,
सदियों पहले जहाँ बौद्ध परंपरा गयी और आज जहाँ के उपकरणों से बाज़ार पटा पड़ा है
उस चीन के जनमानस और इतिहास को भारतीय कितना जानते हैं?
जहाँ कभी रेशम मार्ग था, उस रेशम की डोर कब और क्यों टूट गयी?”
बनारस से चला गंगा विलास क्रूज छपरा में जाकर फंस गया क्योंकि छपरा में पानी कम था, दर्जनों विदेशी सैलानियो को क्रूज से उतारकर लाया गया, बाद में जेसे तैसे क्रूज चालू हुआ और आगे बढ़ा .....इस बात से एक सवाल खड़ा होता है कि क्या गंगा में पानी कम हो रहा है ?
ऐसी स्थिति में भी अडानी जी को गंगा से पानी खींचने की अनुमति दी जा रही है
जी हां ! ये बिलकुल सच है अडानी जी हर साल साहिबगंज में गंगा नदी से 36 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को खींचेंगे, साहिबगंज में अडानी का जल-पंपिंग स्टेशन बनाया गया है जिससे पवित्र गंगा जल पाइप लाइन के जरिए 90
किलोमीटर दूर गोड्डा के पॉवर प्लांट तक भेजा जाएगा
गंगा के इस पानी को गोड्डा में अडानी कंपनी के बड़े पैमाने पर बिजली संयंत्र में पाइप किया जाएगा जहां इसका उपयोग कोयले को धोने, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन और टर्बाइनों को चलाने के लिए भाप उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा।
यही नाम था, थोड़ा अजीब.. पर था तो क्या करें। तो भैया को एक बार गुफा में ध्यान करने की हुनक हुई। तो चल पड़े गुफा खोजने.. मिल भी गयी।
गुफा, जाहिर है जंगल मे होगी, और जंगल तो पहाड़ पर होगा। तो पहाड़ी जंगल मे भैया भजपैया ने गुफा खोजकर ध्यान लगाया।
समझ मे आया कि पीछे, कोई पहले ही ध्यान लगाया हुआ है।
भालू था..
तो भालू साहब को अपनी गुफा में किसी और का ध्यान लगाना.. शायद पसंद नही आया, तभी तो रेस शुरू हुई। भैया भजपैया जीत रहे थे, काहे की भालू पीछे था, भैया आगे थे।
पर दो की रेस जीतने में कतई मजा न था। तो एक शेर भी रेस में कूद पड़ा। लेकिन रॉकेट हमारे भैया ..भैया भैया भैया, तो अभी भी लीड कर रहे थे।
गौरवर्णी, रक्ताभु, कोमल, रसीले और यम्मी थे, तो एक भेड़िया भी पीछे लग गया। जंगल मे तूफान मचा था, आगे आगे भैया, पीछे पीछे भालू, शेर और भेड़िया..
बीरबल का टखना फ्रैक्चर हो गया. वॉकर का सहारा लिए लंगड़ाते-घिसटते हुए दरबार की तरफ जा रहे थे. उसी बीच राजा टोडरमल अपनी बग्घी से गुजरे. बीरबल को बिठा लिया. वॉकर पीछे बंधवा लिया. टोडरमल खुद छोटे-मोटे वैद्य थे. चोट के बारे में मालूमात हासिल करने के बाद बोले,
“तुम अगले सात दिन तक केले मत खाना और सिर्फ सफ़ेद लुंगी पहनना.”
“दर्द बहुत है राजा साहब” बीरबल कराहे.
“सब ठीक हो जाएगा. याद रहे बस सफ़ेद लुंगी पहननी है और कोई केले खिलाने के बदले जवाहरात भी दे रहा हो केले नहीं खाने हैं.”
दरबार सजा हुआ था और बादशाह के आने का इंतज़ार हो रहा था. लंगड़ाते हुए बीरबल को देख सभी ने सहानुभूति जताई. बीरबल ने सोचा भला हो बादशाह सलामत का जिन्होंने अपने साम्राज्य के छः बड़े गवर्नरों की पोस्टों में से पांच पर डाक्टरों को तैनात कर रखा था.
दिल्ली में हो रही बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में इस साल 9 राज्यों के चुनाव में हिंदुत्व,5 किलो राशन और लाभार्थी कार्ड की रेवड़ी पर जीत की रणनीति बनी है।नरेंद्र मोदी सरकार के 8 साल के राज में यही 3 उपलब्धियां बची हैं। इसके सिवा आम जनता के लिए ऐसा कोई काम नहीं हुआ,जो चुनाव जितवा
सके,उल्टे मध्यमवर्ग की जेब से निकलकर बैंकों में जमा हुए 12 से 14 लाख करोड़ उन कंपनियों पर लुटा दिए, जिन्होंने चंदे से मोदी सरकार को टिका रखा है।
बदले में मोदी सरकार ने इन्हीं कंपनियों के लोन माफ किए, यानी फायदा पहुंचाया। यह नहीं होता तो साढ़े 66 लाख करोड़ के एनपीए यानी
बट्टे खाते के बोझ तले आज सारे बैंक जोशीमठ बन जाते। शायद ही किसी बैंक का जीएम, ईडी या सीएमडी ऐसा मिलेगा, जिसने राजनीतिक दबाव में किसी कारोबारी को कर्ज न बांटा हो और वह भी सारे नियमों को टेबल के नीचे रखकर। दुनिया के किसी भी देश में लोन का 1–2% ही एनपीए होता है,
“दुनिया में कई राजा, कई राजकुमार हुए जिन्हें हम भूल गये। मगर इस आम आदमी को हम आज भी याद करते हैं, और आने वाली कई पीढ़ियाँ याद करेंगी। उन्होंने हम पर भले राज नहीं किया, लेकिन उन महान संत ने हमें राह दिखायी।”
- कंफ्यू़शियस के पहले जीवनीकार सिमा चियान (145-91 ईसा पूर्व)
अगर कोई एक व्यक्ति और उसकी शिक्षा ढाई हज़ार वर्षों से अधिक तक चीनी जनमानस में कायम है, तो यह साधारण बात नहीं। कई राजवंश आए-गए, गणतंत्र आया, साम्यवाद आया, मगर आज भी चीन के स्कूली पाठ्यक्रम में कंफ्यूशियस मौजूद हैं।
टीवी पर नित्य कार्यक्रम आते हैं, कई गाँवों में सुबह-सुबह ‘डिजी गुई’ बजायी जाती है जो कंफ्यूशियस की शिक्षा का सरल रूप है। बीजिंग के निकट एक गुरुकुल है, जहाँ बच्चे कंफ्यूशियस के संकलनों का रट्टा मारते हैं।
कंफ्यूशियस का संपूर्ण कुलवृक्ष संजो कर रखा गया है,