केंद्र सरकार ध्यान दे. जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ा जाए और जाति के आंकड़े जुटाए जाएं. इन आंकड़ों से नीतियाँ बनाने और जातिवाद से लड़ने में मदद मिलेगी. सिर्फ़ ओबीसी नहीं, यह देशहित में है। @narendramodi@AmitShah#CasteCensus पूरा थ्रेड पढ़ें। 🧵
भारत में केंद्र और राज्य सरकारें जाति को केंद्र में रखकर कई नीतियां बनाती हैं.
जैसे कि केंद्र सरकार ओबीसी फाइनेंस कमीशन चलाती है. इसके अलावा राज्यों को भी ओबीसी विकास के लिए फंड दिया जाता है. लेकिन किसी को नहीं मालूम कि किस राज्य में कितने ओबीसी हैं और किसे कितना पैसा देना है.
इस वजह से केंद्र से ओबीसी विकास के लिए जाने वाला पैसा राज्य की कुल आबादी के अनुपात में भेजा जाता है. यह एक अजीब स्थिति है. समस्या को जाने बगैर, उसे देखे बगैर, समस्या से लड़ने की कोशिश की जा रही है. ओबीसी इस देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा समूह है.
मंडल कमीशन के मुताबिक इसकी आबादी 52% है. इतनी बड़ी आबादी के बारे में जानकारियां जुटाए बगैर, उनके विकास के लिए योजनाएं बनाना असंभव है. केंद्र और राज्य सरकारें कई दशक से यह असंभव काम कर रही हैं. जाति के आंकड़े आने से जातिवाद बढ़ जाएगा, जैसे तर्क का कोई मतलब नहीं है.
दुनिया के तमाम विकसित देश अपनी आबादी के बारे में तमाम तरह के आंकड़े जुटाते हैं और उन आंकड़ों के आधार पर नीतियां बनाते हैं. अगर नस्ल की जनगणना से अमेरिका में नस्लवाद बढ़ने का खतरा नहीं है, अगर धर्म की गिनती से सांप्रदायिकता नहीं बढ़ती, तो जाति की गिनती से जातिवाद कैसे बढ़ेगा?
जाति भारतीय समाज की एक समस्या है और इस समस्या को न देखने से यह समस्या खत्म नहीं हो रही है. बल्कि इस समस्या को तह तक देखने और वास्तविकता के आकलन के बाद शायद इससे लड़ने की कोई सुसंगत रणनीति बन सके.
जनगणना में धर्म की जानकारी मांगी जाती है. जबकि भारत में धर्म को लेकर बेशुमार हिंसा होती रही है. जनगणना में भाषा का सवाल भी पूछा जाता है, जबकि भाषा को लेकर न सिर्फ भयानक दंगे हुए हैं, बल्कि यह राज्यों के बंटवारे की वजह भी बना है.
1872 के बाद से हर जनगणना में धर्म और भाषा के सवाल पूछे गए. लेकिन आजादी के बाद से जाति का सवाल पूछना बंद हो गया. आजादी के बाद बनी सरकार की कल्पना यह थी कि अब भारत एक आधुनिक लोकतंत्र बन चुका है और जाति जैसी आदिम पहचान के आधार पर लोगों की गिनती करना उचित नहीं है.
सरकार ने शायद यह सोचा होगा कि जाति की गिनती नहीं होने से जातिवाद ख़त्म हो जाएगा. हालांकि ऐसा न होना था, न हुआ. जातियां कायम रहीं. इसकी सबसे बड़ी गवाही अख़बारों के शादी के कॉलम और मेट्रोमोनियल साइट्स हैं, जहां करोड़ों लोग अपनी जाति में जीवनसाथी की तलाश कर रहे हैं.
जाति संस्थाएं अपनी तमाम विकृतियों के साथ मौजूद हैं और अब भी एक भारतीय की प्राथमिक पहचान जाति के बिना शायद ही कभी पूरी होती है. आधुनिक संस्थाओं, शहरों और कॉरपोरेट वातावरण में बेशक जाति के कुछ लक्षण छिप जाते हैं.
रोजगार के मामले में भी जाति की सीमाएं कमजोर हुई हैं और तमाम जातियां तमाम तरह के काम कर रही हैं. शिक्षा भी अब कुछ जातियों के दायरे से बाहर निकल चुकी है.
लेकिन इस आधुनिकता के साथ परंपरा भी कदमताल कर रही है.
भारतीय आधुनिकता अपने आप में एक वर्णसंकर या बास्टर्ड श्रेणी में रखे जाने के योग्य है.यहां आधुनिकता का मतलब परंपरा से मुक्ति नहीं बल्कि परंपरा के साथ चलना है.
जनगणना के संदर्भ में देखा जाए, तो आजादी के बाद बदला सिर्फ इतना कि जातियां कायम रहीं, लेकिन जाति की गिनती बंद हो गई.
ऐसा भी नहीं है कि जनगणना में जाति का सवाल बिल्कुल नहीं पूछा जाता. हर जनगणना में एक सवाल यह जरूर पूछा जाता है कि क्या आप अनुसूचित जाति से हैं. इसके अलावा यह भी पूछा जाता है कि आप इस कैटेगरी में किस जाति से हैं.
चूंकि संविधान में प्रावधान है कि अनुसूचित जाति को आबादी के अनुपात में राजनीतिक आरक्षण दिया जाएगा. इसलिए उनकी आबादी को जानना एक संवैधानिक जरूरत है. यह सवाल एक बार फिर सामने आया जब यह तय करना था कि ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्ग को कितना आरक्षण देना है.
दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन ने जब अपनी रिपोर्ट के लिए काम शुरू किया तो उसके पास जातियों के आंकड़े नहीं थे.
मंडल कमीशन ने मजबूरी में 1931 की जनगणना से काम चलाया और सिफारिश की कि भारत में जाति जनगणना कराई जाए.
मंडल कमीशन की रिपोर्ट 1991 में लागू की गई, लेकिन अब तक जाति नहीं गिनी गई. सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि आरक्षण के बारे में कोई भी फैसला आंकड़ों के बिना कैसे हो सकता है और सरकार को आंकड़ा लेकर आना चाहिए.
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#SwamiVivekananda discussing his Kayastha caste and associated humiliation.
Source - His speech at Victoria Hall, Madras. Complete Works of Swami Vivekananda. Vol-3
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“I shall take this opportunity of thanking the people of Madras for the uniform kindness that I have received at their hands…I read in the organ of the social reformers that I am called a Shudra and am challenged as to what right a Shudra has to become a Sannyasin.”
“To which I reply: I trace my descent to one at whose feet every Brahmin lays flowers when he utters the words — यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः — and whose descendants are the purest of Kshatriyas.”
Why Indian history has forgotten Fatima Sheikh but remembers Savitribai Phule? Fatima Sheikh’s obscurity can be explained through 3 propositions: Read the Thread 🧵
Every year, on 3 January, India celebrates Savitribai Phule’s birth anniversary. She was the first Indian woman to become a teacher and start a school for girls.
However, there was another luminary woman who stood side by side with Savitribai Phule and Jyotirao Phule. Without her contribution, the whole girls’ school project would not have taken shape. And yet, Indian history has largely relegated Fatima Sheikh to the margins.
Battle of #Saragarhi and Battle of #BhimaKoregaon both had Indian soldiers fighting for the British. While the Battle of Saragarhi has become a symbol of valour and courage, the Battle of Koregaon has still not got its due in history. Read the thread🧵
There are two battles that are separated in time by almost 80 years and in space by 1,700 km —the Battle of Saragarhi(1897) and the Battle of Koregaon Bhima (1818). Only one of them got a Bollywood film, Kesari, featuring @akshaykumar
In both cases, persons of Indian origin were fighting for the British. The ‘idea of India’ was yet to be formed, so we can’t and should not brand anyone a traitor for being a part of the British army.
Thread: क्रिसमस 🎄अमीर हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार बन चुका है। लेकिन ईसाई बनने वालों के आकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि जिस काम के लिए मिशनरियों के लोग बिना शादी-ब्याह किए भारत में आकर मर-खप गए, वो प्रोजेक्ट बुरी तरह असफल हो गया। पढ़िए भारत में क्यों फेल हुआ ईसाई धर्म? ✝️
आजादी से पहले के लगभग ढाई सौ साल में ब्रिटिश शासन के बावजूद ये मिशनरियां भारत में सिर्फ 2.3 प्रतिशत लोगों को ईसाई बना पाई थीं. ये आंकड़ा आजाद भारत की पहली जनगणना यानी 1951 का है. इनके कहने पर लोग ईसाई बने ही नहीं.
तब से लेकर ये आंकड़ा लगभग स्थिर है बल्कि 1971 के बाद से तो भारत में ईसाई आबादी का अनुपात घट रहा है. 2001 और 2011 की जनगणना के बीच ईसाई आबादी का अनुपात 2.34 प्रतिशत से घटकर 2.30 प्रतिशत रह गया.
हिंदू इलीट ने क्रिसमस को अपने त्योहार के रूप में अपना लिया है। क्रिसमस अमीर हिंदुओं का सबसे बड़ा पर्व है। इन लोगों के लिए क्रिसमस के सामने होली, दिवाली की कोई हैसियत नहीं है।
क्या आप भी ये होता देख पा रहे हैं?
-आचार्य दिलीप मंडल
ये दिल्ली का एक मॉल है। मालिक हिंदू। लगभग सभी दुकानदार हिंदू। ख़रीदार भी लगभग सभी हिंदू। इन लोगों ने होली या दिवाली के लिए मॉल को कभी ऐसा नहीं सजाया।
क्रिसमस की होली और दिवाली पर सांस्कृतिक जीत हो चुकी है। क्रिसमस अमीरों का देश का सबसे बड़ा पर्व है।
प्रणय राय ने NDTV का अपना साम्राज्य सरकारी संसाधनों और सत्ता शिखर पर जान पहचान के दम पर खड़ा किया था। प्रभावशाली नेताओं-अफ़सरों के बेटे, बेटियों, दामादों के नौकरी देकर उन्होंने ये तंत्र बनाया। निजी चैनलों की बाढ़ आते ये ये तंत्र टूट गया। उनके चैनल न लोकप्रिय हुए न बिज़नेस कर पाए।
एनडीटीवी का इलीट स्वभाव कभी नहीं टूटा। भारतीय समाज और राजनीति में आए सामाजिक बदलाव से ये दूर रहा। सीताराम केसरी, देवेगौड़ा, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती इसके लिए कौतुक और मज़ाक़ के पात्र रहे। बीजेपी के सामाजिक बदलाव को भी ये बर्दाश्त नहीं कर पाए।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि ये चैनल आख़िर तक सरकारी और ख़ासकर पीएसयू के विज्ञापनों पर चलते रहे। आख़िरी 12 साल से अंबानी के पैसे से चला। तरह तरह की क्रांति की गई। पर क्रांति का खर्चा मुकेश भाई ने उठाया। फिर मुकेश भाई ने चैनल को बेच दिया। इति